संविधान लागू होने के दिन अर्थात गणतंत्र दिवस के मौके पर यह कह देना कि ‘देश से प्यार करते हैं तो भूलना सीखें’, यह एक छलावे से कम नहीं है।
जहां तक मैं समझता हूं, यह कहना सरासर नासमझी होगी कि भूल जाने की वजह से ही इटली एक राष्ट्र बना है या फ्रांस भी भूलने की वजह से ही एक राष्ट्र बना है। भूलने से कभी कोई ‘एक राष्ट्र (One Nation) नहीं बनता है।
एक राष्ट्र व उसकी एकता के लिए तो चाहिए बंधुता, समता, स्वतंत्रता, न्याय। सवाल है कि राष्ट्र की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए क्या किया जाए?
इसका जवाब है कि राष्ट्र के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराई जाए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा को बढ़ाया जाए।
स्वतंत्रता, समता व बंधुता मिलकर एक संघ का निर्माण करते हैं। इस संघ में स्वतंत्रता व समता को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता व समता को बंधुता से अलग नहीं किया जा सकता है। बंधुता अथवा समता के बिना, स्वतंत्रता से बहुसंख्यक लोगों पर कुछ लोगों का वर्चस्व कायम हो जाएगा। स्वतंत्रता के बिना, समता से व्यक्तिगत पहल (individual initiative) खत्म हो जाएगी। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में सामाजिक व आर्थिक समता पूर्ण रूप से अनुपस्थित है।
भारतीय समाज विभिन्न धर्म, जाति इत्यादि में बंटा हुआ समाज है और वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत पर आधारित है, जहां अत्यधिक गरीब बहुसंख्यक लोगों की तुलना में, कुछ मुट्ठीभर लोगों के पास अथाह धन-संपदा है। संविधान लागू होने के बाद राजनीति में ‘एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य’ को अपनाया गया है। लेकिन सामाजिक व आर्थिक जीवन में ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ को आज भी नकारा जाता है। यदि सामाजिक व आर्थिक समता को आगे भी नकारा जाता रहा तो हम अपनी इस राजनीतिक समता को भी खतरे में डाल देंगे और असमानता से पीड़ित लोग ही इस व्यवस्था को उखाड़ फेकेंगे।
यदि शोषक व शोषित अपने-अपने इतिहास को याद नहीं रखते हैं, तो शोषित किस आधार पर अपना हक मांगेगा और शोषक किस आधार पर शोषितों का हक छोड़ेगा?
इतिहास को भूलने पर तो जातिगत आरक्षण को भी भूलना होगा, जो कि सरासर गलत होगा।
शोषक व शोषित-वंचित समुदायों द्वारा अपने-अपने इतिहास को भूल जाने से बंधुता, समता, स्वतंत्रता, न्याय की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। ऐसे में यह कहना भी गलत होगा कि भूलकर ही ‘एक राष्ट्र’ का निमार्ण किया जा सकता है।
– सत्येन्द्र मुरली (पत्रकार व मीडिया विश्लेषक)
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