Saturday, April 20, 2024
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प्राणायाम के पूर्व आवश्यक है यम, नियम और आसन की सिद्धि डॉ. दीपकुमार शुक्ल

2017.06.28 04 ravijansaamnaबीते 21 जून को विश्व के 180 से भी अधिक देशों में तीसरा अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया। भारत की धरती पर हजारों वर्ष पूर्व प्रस्फुटित, पुष्पित एवं पल्लवित हुए योगज्ञान के प्रति आज पूरे विश्व में उत्साह दिखायी दे रहा है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अप्रतिम पहल के परिणामस्वरूप ही यह सम्भव हो पाया है। भारतीय ऋषियों ने योग का मानव जीवन के साथ अटूट सम्बन्ध देखकर मनुष्य को योगमय जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी थी। ऋषि-महर्षियों ने आत्मकल्याण और लोककल्याण के सन्मार्ग का अनुसन्धान समाधिस्थ अवस्था में योगारूढ़ होकर ही किया था। वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण, गीता आदि धर्मग्रन्थ योगदर्शन के अनेकानेक चमत्कारों से आच्छादित हैं। योगज्ञान का ग्रन्थ रूप में संकलन इस बात की स्वतः पुष्टि है कि हमारे ऋषि-मुनि इस ज्ञान को जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे परन्तु भौतिक प्रगति की घुड़दौड़ में शामिल रहने वाले अनेक राजा-महराजाओं और बादशाहों द्वारा जहाँ इस ज्ञान की उपेक्षा की गयी वहीँ कट्टर मुस्लिम और अंग्रेजी शासकों द्वारा इस ज्ञान का मजाक उड़ाते हुए इसे पद्द्वलित करने का भी बारम्बार प्रयास किया गया। इसके बावजूद भी भारत के विभिन्न मनीषियों द्वारा सीमित संसाधनो के माध्यम से इस दिव्य और लोकोपयोगी ज्ञान को सुरक्षित रखा गया। इनमें से अनेक मनीषी ऐसे हैं जिनका नाम हममे से शायद ही किसी को ज्ञात हो।

वर्तमान समय में योग सहित सनातन धर्म के लगभग सभी ग्रन्थों एवं उनकी सरस व्याख्या को जन-जन तक पहुँचाने के लिए गीता-प्रेस गोरखपुर का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। बाबा रामदेव ने भी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के माध्यम से योग को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित होने के बाद से योग सारे संसार के सर चढ़कर बोलने की स्थिति में आ पहुँचा है। ऐसे में भारतीय मनीषियों का दायित्व बढ़ना स्वाभाविक है। अब आवश्यकता इस बात की है कि योग के सही और सार्थक ज्ञान का ही प्रचार-प्रसार हो। आज हम योग के नाम पर जो कुछ भी प्रस्तुत एवं प्रदर्शित कर रहे हैं क्या यह वही योग है जिसकी महिमा और चमत्कारों का वर्णन सनातन ग्रन्थों में किया गया है? यह यक्ष प्रश्न हम सबके सामने है।
गीता-प्रेस गोरखपुर ने सन 1935 में विशेषांक रूप में योगांक का प्रकाशन किया था। जिसका पुनर्मुद्रण वर्ष 2010 में हुआ था। इस विशेषांक में कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, ध्यानयोग, सूरतशब्दयोग आदि विभिन योगों की व्याख्या और उनकी उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त श्रीमद्भगवतगीता और योगतत्त्वसमन्वय-मीमांसा, भक्तियोग और शरणागतियोग सहित योग का विषय-परिचय एवं योगवाशिष्ठ तथा पातंजलयोगदर्शन आदि ग्रन्थों में योग और उसके स्वरुप की व्याख्या तथा योग के गंभीर रहस्यों एवं अंग-उपांगों का बृहत् ज्ञान प्रदान किया गया है। इस ग्रन्थ में विभिन्न मनीषियों के योगज्ञान से सम्बन्धित अनुभवयुक्त शोधपरक लेख भी हैं। जिनमें कई विद्वान लेखकों ने तो लेख के साथ अपना वास्तविक नाम लिखने से भी परहेज किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि सच्चा योगी स्वयं को प्रचार-प्रसार से सर्वथा दूर रखते हुए अन्तर्मुखी होकर अपने आप में मस्त रहना चाहता है।
योगांक के एक ‘दीन’ नाम के लेखक के अनुसार ‘विषपान आदि चमत्कार योग नहीं हैं। शरीर का असाधारण बल-प्रदर्शन भी योग नहीं है, जिसे व्यायामप्रवीण दिखाया करते हैं। शरीर और उसकी नाड़ियों की शुद्धि और स्वास्थ्य की रक्षा करना हठयोग का मुख्य उद्देश्य है। आसन से स्वास्थ्य की रक्षा और व्याधिनाश होता है। आसन का अभ्यास करने में कोई भय नहीं है परन्तु इसके लिए शरीर विज्ञान का अनुभव पहले आवश्यक है। इसलिए अनुभवी पुरुष से सीखकर ही आसन का अभ्यास करना चाहिए। नहीं तो व्याधिनाश के बदले व्याधिवृद्धि हो सकती है। विधिपूर्वक किये हुए थोड़े प्राणायाम से दोषों का नाश होता है। संध्योपासन में तीनों समय तीन-तीन बार अर्थात कुल नौ बार प्राणायाम करने की विधि है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में प्रातः, मध्यान्ह और सन्ध्या में दस-दस बार अर्थात कुल तीस बार प्राणायाम करने का आदेश है। किन्तु तीस बार एक साथ करने का आदेश नहीं है। प्राणायाम से शारीर के भीतर शुष्कता आती है, इसके लिए अभ्यास करने वाले को गोघृत का सेवन करना चाहिए। एक प्राणायाम ऐसा है, जिसका रेचक ब्रह्मरन्ध्र से मेरुदण्ड के बीच की सुषुम्ना नाड़ी में किया जाता है। जो गुरुगम्य है। प्राणायाम से उन्माद भी होता है। सच तो यह है कि योग के प्रथम और द्वतीय अंग यम-नियम की प्राप्ति और आसनसिद्धि के बिना प्राणायाम विशेष लाभदायक नहीं है। इससे स्वास्थ्योन्नति के स्थान पर ‘योगे रोगभयम’ की ही उक्ति चरित्रार्थ होगी। वायु के साथ मन को जीतने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। मन प्राणवायु से उच्च है। प्राणवायु मन का अनुसरण करता है परन्तु मन प्राणवायु का अनुसरण नहीं करता है।’ स्वामी श्री असंगानंद जी प्राणायाम के सन्दर्भ में बतलाते हैं कि ‘प्राणायाम योगी के जीवन का आधार स्तम्भ है, अतः इसकी प्रक्रिया को बहुत कुछ स्पष्ट एवं विशद करने की आवश्यकता है। प्राणायाम से पूर्व नाड़ीशोधन करना चाहिए, तभी प्राणायाम की शक्ति प्राप्त होती है। प्राणायाम का सम्बन्ध श्वास से नहीं है। श्वासोच्छ्वास तो असली प्राणायाम को सिद्ध करने के अनेक प्रकारों में से एक है। प्राणायाम का अर्थ है प्राणों को वश में करना। प्राण विश्व की मानसिक एवं शारीरिक सभी प्रकार की शक्तियों की समष्टि है। इसी प्राण के ज्ञान और निग्रह को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम के इस विशिष्ट साधन को प्रारम्भ करने से पूर्व साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह योग के चार मुख्य अंगों की पूर्ति कर ले। ये अंग हैं ब्रह्मचर्य, किसी सिद्ध योगी के तत्वाधान में रहना, अनुकूल संग और हित भोजन, जिसमें अधिक नमकीन, अधिक मीठी अथवा अधिक खट्टी, कड़वी और नशीली चीज न हो। इन प्रारम्भिक नियमों का पालन न करने पर साधक को भयंकर हानि उठानी पड़ती है, जो उन्माद, ह्रद्रोग, श्वास और इसी प्रकार के अन्य दुष्ट रोगों के रूप में प्रकट हो सकती है।’ श्री रामचन्द्रजी रघुवंशी ‘अखण्डानन्द’ के अनुसार ‘योग वास्तव में प्राच्य मनोविज्ञान है। योग के सूत्रों और उन पर किये गये व्यासमुनि के भाष्यादि से हम शरीर के अन्तरंग कारणों का ज्ञान प्राप्तकर, किस प्रकार वे उन्नत किये जा सकते हैं, इसकी भी जानकारी प्राप्त करते हैं। जिस दशा में मन के सहित पंचज्ञानेन्द्रिय संयम द्वारा स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी निश्चेष्ट हो जाती है। उस दशा का नाम योग है। योग के आठ अंगों में प्रथम चार यम, नियम, आसन और प्राणायाम को हठयोग की संज्ञा दी गयी है। इनके बाद के चार अंगों प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को राजयोग कहा गया है। प्राण, अपान, समान आदि वायुओं(प्राणों) की सहायता से मन को रोकने का अभ्यास करना अर्थात प्राणों का आयाम प्राणायाम कहलाता है। मूल, उड्डियान और जालन्धर बन्ध के बिना प्राणायाम कदापि नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे हानि की सम्भावना है। इन बन्धों के बिना प्राणायाम के अभ्यास से वास्तविक सफलता प्राप्त नहीं होती है।’ एक जीव सेवक प्रतिष्ठात्यागी महात्मा के शब्दों में ‘किसी भी कार्य साधन की सहज, सुन्दर और स्वाभाविक प्रणाली ‘योग’ शब्द के अन्तर्गत मानी जा सकती है। सभी कार्य योग हैं। सभी काम मनोयोग के ऊपर निर्भर करते हैं। चित्त की एकाग्रता के बिना कोई भी काम सुन्दरता के साथ सम्पन्न नहीं हो सकता है। योगियों ने योगबल से मन स्थिर करके देह के भीतर कहाँ पर क्या है, यह सब जानकर मानसिक अवस्थाओं का पूर्णरूप से विचार करके यन्त्र, तन्त्र और मन्त्रों के रहस्य का अविष्कार किया है। वर्तमान समय में ऐन्द्रजालिक कौशल आदि भी योग का अंग समझा जाता है। किसी प्रकार की कोई अस्वाभाविक क्रिया दिखा देने वाले को ही आजकल सब लोग योगी समझ लेते हैं। जो बंध्या को पुत्रप्राप्ति के लिए दवा देते हैं और रोगियों का रोग दूर करने की बात करते हैं, वे भी आजकल योगी कहे जाते हैं और पूजित होते हैं। आजकल ऐसे धूर्त योगियों की संख्या और प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गयी है कि इनके कारण वास्तविक योगियों ने लोकालय तथा प्रसिद्ध तीर्थ आदि से बहुत दूर जाकर रहना आरम्भ कर दिया है और गृहस्थ नकली योगियों द्वारा ठगे जा रहे हैं।’ श्री जयदयाल जी गोयन्दा के कथनानुसार ‘अनेक व्यक्ति समाधि लगाने की चेष्टा करते हैं परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती है। इसका कारण यह है कि समाधि की सिद्धि के लिए यम-नियमों के पालन की विशेष आवश्यकता है। यम-नियमों का पालन किये बिना ध्यान और समाधि का सिद्ध होना अत्यन्त कठिन है। झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि वृतियों के नष्ट हुए बिना चित्त का एकाग्र होना कठिन है और चित्त एकाग्र हुए बिना ध्यान और समाधि नहीं हो सकती। जैसे नीव के बिना मकान नहीं ठहर सकता, ऐसे ही यम-नियम का पालन किये बिना ध्यान और समाधि का सिद्ध होना असम्भव है।‘ महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगंगानाथजी झा लिखते हैं कि ‘योग के विषय को लोगों ने ऐसा जटिल बना और समझ रखा है कि इसका नाम ही भयंकर हो गया है। इसका कारण यह है कि इधर कुछ समय से ‘योग’ पद से लोग ‘हठयोग’-केवल आसन मुद्रादि को समझने लगे हैं। ‘हठयोग’ योग का अंग है परन्तु स्वयं योग नहीं है। अर्थात योग का साधन मात्र है।’ श्री आर. शामशास्त्री के शब्दों में ‘योगी कसरती की तरह न तो हजार डंड-बैठक लगाता है, न बहुत खाता ही है। शरीर को बेहिसाब बढ़ाना उसका काम नहीं है। उसे न स्नायुओं को फुलाने की परवाह है न बजन बढ़ाने वाले खाद्यों की ही। उसे तो नियमित सात्विक आहार चाहिए। योगी शब्द से अत्यन्त व्यापक अर्थ लिया जाये तो जो कोई संसार में सदाचार से रहकर जीवन को सफल करना चाहता है वही योगी है। योग एक मानस शास्त्र है। जिसमें मन को संयत करना और पाशविक वृत्तियों से खींचना सिखाया जाता है। मन के इस विशिष्ट धर्म से योगशास्त्र के प्रणेता ने धार्मिक क्षेत्र में भी काम लिया है। योग स्वयं में कोई धर्मसम्प्रदाय या धर्मविषयक तत्व नहीं है। प्रत्युत यह सभी धर्मों और तत्वज्ञानों का सहायक है।’
गीता के छठवें अध्याय में कहा गया है कि ‘जो अधिक भोजन करता है, जो बिलकुल भोजन नहीं करता है, जो बहुत सोता है, जो बहुत जागता है, उसके लिए हे अर्जुन योग नहीं है। बल्कि जो नियमपूर्वक भोजन करता है, नियमित विहार करता है, कर्म करने में भी नियमपूर्वक रहता है, जागना और सोना भी जिसका नियमपूर्वक होता है। उसके लिए योग दुःख का नाश करने वाला होता है।‘ वैद्यशास्त्री पं. श्री कमलाकान्त जी त्रिवेदी के विचारों में ‘विषय-तृष्णा योग की प्रबल विरोधिनी हैं। क्योंकि वह वृत्ति को अन्तर्मुखी नहीं होने देती। यदि कदाचित अति यत्नपूर्वक वृत्ति अन्तर्मुखी होती भी है तो फिर अल्प समय में ही विषयों के स्फुरण द्वारा चित्त को क्षुब्ध करके उसे बहिर्मुखी कर देती है।’ योगाभ्यास के लिए स्थान और वातावरण के सन्दर्भ में स्वामी श्री कृष्णानन्द जी का कथन है कि ‘योगाभ्यास एकान्त और पवित्र स्थान में करना चाहिए, जहाँ मच्छर आदि जन्तुओं का उपद्रव तथा कोलाहल न हो। योगाभ्यास के समय प्रबल वायु के झोंके से बचना चाहिए। वायु के प्रचण्ड अघात से प्रस्वेद बाहर नहीं आ सकेगा। प्रस्वेद आने से ही नाड़ियों की शुद्धि होती है। जब तक पद्मासन, सिद्धासनादि मुख्य आसनों में से कोई एक दृढ़ न हुआ हो, किसी एक आसन में लगातार दो-तीन घंटे तक अचल न बैठा जाय तब तक निश्चल मन से पहले आसन की क्रिया करनी चाहिए। आसन दृढ़ होने पर ही प्राणायाम प्रारम्भ करे। आसनों से अनेक लाभ होते हैं परन्तु अनुभवी सद्गुरु के सानिध्य में ही अभ्यास करने से साधक निर्विघ्नातापूर्वक उन्नति पथ पर अग्रसर हो सकता है।’ अनुभवी सद्गुरु के सन्दर्भ में श्री उड़ियास्वामीजी महाराज अपना अनुभव बताते है कि ‘पहले मैंने आसाम और भूटान आदि में हठयोगियों की बहुत खोज की थी। मुझे जिस किसी प्रसिद्ध हठयोगी का पता लगता उसी के पास जाता और उसकी सेवा करके अनुभव का पता लगाने का प्रयत्न करता। मैंने ऐसे कई हठयोगी देखे हैं जिन्हें तीन-तीन, चार-चार घंटे की समाधि होती थी परन्तु उनकी वास्तविक स्थिति का पता लगाने पर यही विदित होता कि उनमे से किसी को भी निर्विकल्प समाधि सिद्ध नहीं हुई। हाँ सविकल्प समाधि में उनकी स्थिति अवश्य थी। इसके सिवा मैंने प्रायः सभी हठयोगियों को रोगी भी पाया। ध्यान और वैराग्य की कमी होने के कारण आधुनिक हठयोगी प्रायः अर्थलोलुप और चंचल प्रकृति के देखे जाते हैं।’
उपरोक्त तथ्यों के दृष्टिगत योग का सही और सुव्यवस्थित मार्ग कैसे प्रशस्त होगा, इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। भारत के इस अति प्राचीन एवं लोककल्याणकारी ज्ञान के प्रति आज सम्पूर्ण विश्व ने ध्यान केन्द्रित किया है परन्तु यदि भविष्य में इसके सार्थक परिणाम प्राप्त न हुए तो एक बार पुनः यह ज्ञान उपेक्षा का शिकार हो जायेगा। ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजों ने कभी इसे व्यर्थ ज्ञान की संज्ञा देकर अंग्रेजी शिक्षा को सर्वोत्तम बताते हुए इसकी उपेक्षा की थी। भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली में योग का ज्ञान शिक्षा पाठ्यक्रम का प्रमुख अंग रहा है। तब इसके अनुभवी आचार्यों से भारत का शिक्षा जगत भरा पड़ा था। आज यह ज्ञान ग्रन्थ रूप में भले ही हमारे सामने हो परन्तु इसके अनुभवी विद्वानों का सर्वथा आभाव है। अब यदि भारत सरकार इस अद्वतीय ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए वास्तव में कृतसंकल्पित है तो उसे सर्वप्रथम योग ज्ञान के अनुसन्धान के लिए व्यापक स्तर पर योजनायें बनानी होंगी। उन आचार्यों या योगियों का पता लगाना होगा जिन्होंने इस ज्ञान को आत्मसात करते हुए उससे वही परिणाम प्राप्त किये हैं जो योग-ग्रन्थों में बताये गये हैं। अनुसन्धान के अन्तर्गत संस्कृत के वरिष्ठ विद्वान जब योग ग्रन्थो का विश्लेषण करते हुए उस पर व्यापक और खुली परिचर्चाएं करेंगे तब निश्चित ही योग ज्ञान को ग्रहण करने की एक रूपरेखा तैयार होगी। उसके बाद इसी रूपरेखा के तहत योग को शिक्षा का पठ्यक्रम बनाना होगा और छोटे-छोटे बच्चों को शनैः-शनैः योग की व्यावहारिक शिक्षा देनी होगी। तब कुछ वर्षों के बाद ही भारत की भूमि पर सच्चे योगियों के दर्शन संभव हो सकेंगे। पेट फुलाना, पिचकाना, घुमाना और कलाबाजी को योग का नाम देना भ्रम में डालने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार के योगज्ञान की आयु मात्र उतने दिनों की ही है जितने दिनों तक इसको प्रदर्शित करने वालों का शरीर स्वस्थ्य दखाई देता रहेगा। योगी और योगगुरु कहलाने का वास्तविक अधिकारी तो वही है जो योगज्ञान को आत्मसात करते हुए श्वेताश्वरोपनिषद की उक्ति ‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः। प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।। अर्थात योगाग्निमय शारीर जिसे प्राप्त होता है, उसे कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता और मृत्यु भी नहीं होती।’ को चरित्रार्थ करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है।