माँ का स्थान सबसे श्रेष्ठ माना जाता है और माँ शब्द में ही संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। शब्दकोश में अनेकों शब्द है लेकिन माँ के शब्द में जो आत्मीयता व मधुरता होती है वोे अन्य किसी शब्द में नहीं होती है। माँ के रिश्ते के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। माँ न केवल अपनी संतानों को अच्छे से सहेजती है बल्कि आवश्यकता के अनुसार उनका सहारा बन जाती है। माँ का सम्मान जितना किया जाये उतना कम है फिर भी मातृ दिवस को सभी माताओं का सम्मान करने के लिए मनाया जाना शुरू है। ऐसा कहा जाता है कि एक संतान का पालन-पोषण करने में माताओं द्वारा सहन की जाने वालीं कठिनाइयों के लिये आभार व्यक्त करने के लिये यह दिन मनाया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि माँ का आभार किसी भी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
‘माँ!’ वह अलौकिक व अनूठा शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही हर व्यक्ति का रोम-रोम पुलकित व प्रफुल्लित हो उठता है। ‘माँ’ वो अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘माँ’ की के आंचल की महिमा को किन्हीं भी शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, सिर्फ उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
हर संतान को उसकी मां से ही संस्कार मिलता है और संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी मिलती है। हमारे देश में मां को शक्ति का रूप माना गया है और सनातन वेदों में माँ को सर्वप्रथम पूज्यनीय कहा गया है। माँ हमारी भावनाओं के साथ कितनी खूबी से जुड़ी होती है, ये समझाने के लिए कोई शब्दाबली नहीं हैं।
गौर करने वाला तथ्य है कि ठोकर लगने पर या मुसीबत की घड़ी में माँ ही याद आती है। वो माँ ही होती है जो हमें तब से जानती है जब हम अजन्मे होते हैं। बचपन में हमारा रातों का जागना, जिस वजह से कई रातों तक माँ सो भी नहीं पाती थी। वह गीले बिस्तर में सोती थी और हमें सूखे में सुलाती थी जितना माँ ने हमारे लिए किया है उतना कोई दूसरा कर ही नहीं सकता।
मां के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है या यूं कहें कि मां ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं, वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है। कितनी दयनीय बात है कि हमारे देश ने स्त्री की शक्ति के रूप में अवधारणा दी, फिर भी माँ को देवी का सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है। सभ्यता के विकास क्रम में इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोंच-विचार में अभूतपूर्व बदलाव हुए है लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। पुराने युग में भी माँ ही संतानों का पालन-पोषण करती थी और आज भी कर रही है।
माँ को धरती पर विधाता का प्रतिनिधि कहा जा सकता है और माँ विधाता से कम भी नहीं है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा के रूप में माँ हर किसी को हर जगह नजर आती है।
माँ अपनी संतान की पहली किलकारी से लेकर आखिरी सांस तक उसका साथ नहीं छोड़ती है। माँ ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती हैं और इसीलिए उसको बच्चे का प्रथम गुरु कहा जाता है। उसकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वह कभी लोरियों में, कभी झिड़कियों में, कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के संस्कार को पनपने की आशा रखती है। लेकिन, आज कन्या भ्रूणों की हत्या का जो सिलसिला बढ़ रहा है, वह नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप है। हालांकि इसके लिए पितृवर्ग के साथ साथ मातृत्व वर्ग भी जिम्मेदार है। परिस्थितियां कुछ भी हों लेकिन माँ अपने अजन्मे, अबोल शिशु को अपनी सहमति से समाप्त करा देती है, क्यों? इसलिए कि वह एक लड़की है! ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या उसकी ममता का स्रोत सूख गया है? कन्याभ्रूणों की बढ़ती हुई हत्यायें एक ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी का कारण बन रही है तो दूसरी ओर मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है। ऐसे वातारण में अन्तर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसी अनेक कुरीतियों को मिटाना जरूरी हो गया है, तभी मातृ दिवस की सार्थकता है। इसके साथ ही अब देखने को बहुतायत मिल रहा कि दिनों दिन वृद्धाश्रमों में बढ़ोत्तरी हो रही है और उनमें भी बुजुर्ग महिलाओं की संख्या अच्छीखासी देखने को मिल रही है। इसे क्या यह समझा जाये कि हम अपने फर्ज को नहीं निभा पा रहे और मातृ दिवस का डिंडोरा पीट रहे हैं और हर वर्ष मातृ दिवस पर अपनी माँ के प्रति औपचारिकता निभा रहे हैं। इस ओर ध्यान देना ही होगा।