जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी महाकाल विद्यमान थे। स्कंद पुराण के अवंती खण्ड में महाकाल की कथा विस्तार से दी गई है-
पुरा त्वेकार्णवे प्राप्ते नष्टे स्थावरजंगमे।
नाग्निर्न वायुरादित्यो न भूमिर्न दिशो नम:।।
न नक्षत्राणि न ज्योतिर्न धौर्नेन्दुग्र्रहास्तथा।
न देवासुरगन्धर्वा: पिशाचोरगराक्षसा:।।
सरांसि नैव गिरयो नापगा नाब्धयस्तथा।
सर्वमेव तवोभूतं न प्राज्ञायत किञचन।।
तकैको हि महाकालो लोणनुग्रहकारणात्।
तस्थौ स्थानान्यशेषाणि काष्ठास्वालोकयन्प्रभु।।
प्रलय के समय स्थावर जंगम जगत में जब कुछ भी नहीं था। न अग्नि थी, न वायु था, न सूर्य, न पृथ्वी, न दिशाएँ, न क्षत्र, न प्रकाश, न आकाश, न चन्द्र और न ग्रह ही थे। देव, असुर, गंधर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षसगण भी नहीं थे। सरोवर, पर्वत, नदी एवं समुद्र भी नहीं थे। सब ओर घोर अंधकार था। ऐसे समय में लोकानुग्रह के कारण केवल महाकाल ही विद्यमान थे, जो सभी दिशाओं को देख रहे थे।
विविधा
कहानी: दुआओं का असर
विशाल ने अपनी बेटे कार्तिक के जन्मदिन पर अपने सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया हुआ था। सभी उसके शानो शौकत देखकर हैरान थी कि कैसे इतना सब कुछ उसने हासिल किया । कुछ लोगों ने उसकी पत्नी को ही उसकी तरक्की का श्रेय देते हुए कहां की यह सब उसे उसकी पत्नी के प्रेम, परिश्रम और विश्वास की बदौलत ही मिला है। कुछ ने कहा कि विशाल तुम बहुत भाग्यशाली हो जो तुम्हें इतनी अच्छी पत्नी मिली जिसने तुम्हारी अधूरी पढ़ाई को पूरा करने हेतु इतना प्रेरित किया और हर कदम तुम्हारा इतना साथ दिया जिसके बदौलत तुम आज बैंक के मैनेजर बन गए हो। पर विशाल ने इसके जवाब में कहा कि इसका पूरा श्रेय हमारी माता जी को जाता है और ये उन्हीं के दुआओं का असर है कि मुझे प्रियंका जैसी नेक दिल पत्नी मिली जिसने मुझ जैसे पढ़ाई में इतने कमजोर इंसान को इतनी सफलता हासिल करने को प्रेरित किया।
व्हील चेयर पर बैठी शारदा देवी अपने बेटे की ये बातें सुनकर वहां उपस्थित मेहमानों के समक्ष अत्यंत हर्ष महसूस कर रही थीं।
शारदा देवी का विवाह खेलने खाने की उम्र में ही हो गया था। उन्हें तीन बेटे थे और बेटी एक भी नहीं थी कम उम्र मी मां बनने से तथा संयुक्त परिवार के जिम्मेदारियों को निभाते निभाते वह अक्सर बीमार रहने लगी थीं । वह अपने बहुत बड़े परिवार में इकलौती बहुत थीं।
राम पधारे हैं
सखी रे गाओ मंगल गीत, अवध में राम पधारे हैं।
पांच सौ साल गए बीत, अयोध्या राम पधारे हैं।
सजाए तरकस में सब तीर, धनुष ले राम पधारे हैं।
सजी हैं गली और चौबार, अवध में रघुनंदन पधारे हैं।
बज रहे घंटा और घड़ियाल, पवनसुत प्रभु पधारे हैं।
सजे हैं रथ संग घोड़े आज, कौशल्या नंदन आए हैं।
बनाओ पूजा का प्रसाद, सियावर राम पधारे हैं।
विकसित भारत संकल्प यात्रा
तू गर्व किस बात पर करता है रे मानव ।
यहां वक्त ही बलवान है, तू बन रे दानव ।
जग को जो रोशन करें, डराता उसे बादल ।
हर ओर खूबी से भरा, मां का बस आंचल।
ब्रज में बजे आज भी, राधा की ये पायल।
कण-कण में बसे कान्हा, ये ऊधौ है पागल ।
हर और राम स्वागत की, सज रही झालर ।
चहुं ओर पीतांबर में, यह दिख रहा भारत ।
तुम सागर से हो मीत मेरे!
तुम सागर से हो! मीत मेरे,
मैं मोती तेरे दामन की।।
तुम पुरुषोत्तम निज हिय के हो,
मैं लक्ष्मी तेरे आंगन की।।
मेरे मन मन्दिर के नाथ तुम्हीं,
इस जीवन पथ में साथ तुम्हीं।
मेरी स्नेह स्वरूपी गाथा का,
तुम आदि हो, चरितार्थ तुम्हीं।।
इन सजल नेत्र में स्वप्न से तुम,
मैं आशा तेरी अंखियन की ।
तुम सागर से हो मीत मेरे!
मैं मोती तेरे दामन की।।
क्या मैं लिख पाऊंगी ?
कभी कभी मैं अपनी ही किसी
तस्वीर को दिल से चूम लेती हूं
देती रहती हूं दुआ अक्सर
अपने खूबसूरत ख्वाबों से भरी
इन खूबसूरत आंखों को
जिसने निराश हो कर कभी
नहीं छोड़ा हौसला ख्वाबों को संजोने का
अदा करती रहती हूं शुकराना
घनघोर अजाबों से जीतने पर
अपने मेहरबां उस रब का जिसने भर दी
मेरे वजूद की झोली अपने रहमतों से यूं ही
एक बार दुआ में दोनों हाथ उठाने पर
निहारती हूं एक टक उन पदचिन्हों को
मेरे दुःख में निस्वार्थ भाव से
साथ देने वाले भाई-बहनों और दोस्तों के
और संकल्प भी लेती हूं उन्हीं पदचिन्हों
पर चलते रहने का जिसपर चलकर
‘यादें’ जज्बातों के रंग से रंगी ग़ज़लें
‘देखनी है तो इसकी उमर देखें, गलतियां नहीं इसका हुनर देखें।
दबे पैर सोये जज्बात जगाकर, सौरभ की यादों का असर देखें।।’
मात्र 16 साल की उम्रके पड़ाव पर साल 2005 में कक्षा ग्यारह में पढ़ते हुए डॉ सत्यवान सौरभ ने अपनी पहली पुस्तक ‘यादें’ लिखी थी। जो नई दिल्ली के प्रबोध प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी। प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर और रामकुमार आत्रेय की नज़र में सत्यवान सौरभ उस समय इतनी अल्पायु में गजल संग्रह के रचनाकार होने का गौरव प्राप्त करने वाले संभावित प्रथम रचनाकार रहें होंगे। अब 18 साल बाद ‘यादें’ का दूसरा संस्करण 2023 में आया है। प्रस्तुत लेख स्वर्गीय रामकुमार आत्रेय द्वारा लिखी गई ‘यादें’ की समीक्षा है जो साल 2005 में लिखी गई। -स्व. रामकुमार आत्रेय
सत्यवान सौरभ एक ऐसी प्रतिभा का नाम है जिसके पांव पालने में दिखाई देने लगे हैं। यहां मैं पालने शब्द का उपयोग जानबूझकर कर रहा हूं। क्योंकि सौरभ अभी सिर्फ 16 वर्षों 3 माह के ही तो हैं। अभी वरिष्ठ विद्यालय की कक्षा 10 जमा 2 के छात्र हैं और गजलें कहने लगे हैं। सिर्फ कहते ही नहीं पत्र-पत्रिकाओं में ससम्मान प्रकाशित भी होते हैं। ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ यानी प्रतिभा की पहचान व्यक्ति के आरंभिक चरण से ही अपना प्रदर्शन करना शुरू कर देती है। प्रतिभावान व्यक्ति लम्बे समय तक किसी भी भीड़ से गुम नहीं रह सकता। उसमें छुपी उसकी प्रतिभा एक न एक दिन उसे शोहरत के पथ पर अग्रसर कर ही देती है। यह बात गाँव बड़वा के उभरते कवि, शायर सत्यवान ‘सौरभ’ पर बिल्कुल सटीक बैठती है। छात्रकाल से ही लेखन के क्षेत्र में रूचि रखने वाले इस अदने से कच्ची उम्र के शायर ने अपनी ग़ज़लनुमा कविताओं के माध्यम से ख्यालों-जज्बातों की दुनिया को किसी नई नवेली दुल्हन की तरह इस कदर सँवारा है कि ग़ज़लों में कहीं भी इनकी उम्र का आभास नहीं होता। यादें उनकी गजलों का पहला संकलन है। इस संकलन में अपनी बात में सौरभ गजल के प्रभाव के विषय में खुद कहते हैं-
न बहार, न आसमान न जमीन होती है शायरी,
जज्बातों के रंगों से रंगीन होती है शायरी।
कल्पनाओं से लबरेज कविता सी नहीं होती,
जिंदगी के आंगन में अहसासे जमीन होती है शायरी।।
ठीक कह रहे हैं सौरभ। यह पंक्तियां जज्बातों का एक नमूना है। जज्बात और तर्क का रिश्ता बहुत दूर का होता है। सौरभ आयु के ऐसे पड़ाव पर है जहां जज्बातों का उफनता हुआ समुद्र होता है।
मोटा अनाज खाओ सेहत बनाओ
सांवा, मकरा, मकई , बाजरा, कोदो,
कुटकी, जौ, मक्का, चीना, ज्वार लो।
इनको खाकर स्वास्थ्य संवार लो,
मोटे अनाज की उपज अपना लो।
सारे व्यंजन तुम इससे बना लो,
चाहे इडली डोसा और अप्पम हो।
रोटी कचौड़ी दलिया और खिचड़ी हो,
यह बहुत ही रुचकर लगता सबको।
मालपुआ लड्डू बर्फी खीर शकरपारा,
बेहिसाब भाता है बूढ़े बच्चों को सारा।
भारत को स्वर्ग बनाना है!
भारत को स्वर्ग बनाना है,
जन-जन में संयम लाना है।
पोशाक ज्ञान का द्योतक है,
यह मिथ्या भाव मिटाना है।
पश्चिमी सभ्यता भूलाना है ,
भ्रम उनका दूर भगाना है।
स्वार्थ में फंसा जग सारा है,
ये भ्रमित सबको करता है।
जो सोए हैं उन्हें जगाना है,
जो जगे है उन्हें समझना है।
भ्रम की नींद से उठाना है,
सत्कर्म में इनको लगाना है।
‘अभिनंदन’
उपवन से चुन-चुन फूलों का,
यह गुलदस्ता तैयार किया।
हे अतिथि आपके स्वागत का,
हम नेह बिछाए इंतजार किया।
है आज प्रफुल्लित हृदय हमारा,
हम करते हैं अभिनंदन तेरा।
तू मालिक हो सब खुशियों का,
जीवन में तेरे ठहरें खुशियां।