Tuesday, November 26, 2024
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कोरोना के बहाने मोदी की दोगली राजनीति उजागर

एमपी में कोविड़-19 नहीं निशाने पर शिवराज
राजनीति का भी अपना एक अलग ही चरित्र होता है। इसमें कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम जो न चाहे वह भी मजबूरी में करना पड़ जाता है। ये बात विपक्ष के संबंध में नही कही जा रही है। ये बात पक्ष या सत्ता पर बैठे दलों या नेताओं के संदर्भ में कही जा रही है।
दरअसल मसला ये है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी व गृहमंत्री अमित शाह अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता व मध्यप्रदेश में चौथी बार बने नए नवेले मुख्यमंत्री को शिवराज सिंह चौहान को कोरोना महामारी के बहाने निपटाने की चाल चल रहे है। बता दे कि इस समय गुजरात में कोरोना की स्थिति एमपी से भी गंभीर स्थिति में है लेकिन वहां केन्द्रीय जांच दल को न भेज कर एमपी की घेराबंदी की है क्यों?
जब से एमपी में केंद्रीय टीम को भेजा गया है तब से यहां के राजनीतिक व प्रशासनिक गलियारों में उस टीम को चौहान के लिए चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। इसका यह कयास भी लगाया जा रहा है कि केन्द्र के दोनों शीर्ष नेताओं ने इसके चलते स्पष्ट संदेश है कि कोशिश की है कि निगरानी में शिवराज हैं, न कि कोविड-19।
बहरहाल, राज्य में केंद्रीय टीम भेजे जाने को लेकर मध्यप्रदेश के राजनीतिक गलियारों में चौहान के लिए सौ जुबान सौ बात जैसे स्थिति निर्मित हो गई है। इसे एमपी की सत्ता व प्रशासन में बैठे लोग शीर्ष नेतृत्व की ओर से स्पष्ट चेतावनी भरा संदेश के तौर पर देख रहे है। प्रदेश में दबी जुबान में यह चर्चा जोरों पर है कि वायरस की महामारी का प्रकोप खत्म होने और लॉकडाउन हट जाने के बाद आलाकमान शिवराज को लेकर कुछ गंभीर कदम उठाएगा। अगर उन्हें हटाया नहीं भी जाता है तो यह सुनश्चित किया जाएगा कि वे एक कठपुतली से अधिक न रह जाएं।
ध्यान रहे कि अबकि बार संघ के दबाव के चलते एमपी में शिवराज को मजबूरी में मोदी-शाह को सीएम चुनना पड़ा है जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी को मोदी-शाह ने खुद चुना है।
बता दे कि हाल ही में दिल्ली में कोरोना वायरस के प्रसार की निगरानी के लिए बनी इंटर मिनिस्टेरियल टीम की जांच में मध्यप्रदेश को विपक्ष शासित राज्यों महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के साथ लताड़ लगाई है। मतलब साफ है कि कोविड पर निगरानी के तहत शिवराज को सबक सिखाने का काम किया जा रहा। हालांकि इस तरह की खबर को लेकर मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज की उम्र को लेकर कुछ भी अटकलबाजी लगाना अभी सही नहीं होगा।
पर ये बात हजम नही हो रही है कि आखिर विपक्ष शासित राज्यों महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश को इस सूची में शामिल क्यूं किया गया। ये बात समझ से परे है। इतना जरूर है कि यह राज्य वायरस से बुरी तरह प्रभावित है। दैनिक रिपोर्ट में सामने आ रहे आंकड़े भी इस बात को पुष्ट करते है कि इंदौर चिंताजनक और तेजी से हॉटस्पॉट बनकर उभर रहा है लेकिन इससे भी बुरी स्थिति तो गुजरात की है। वहां कोरोना संकट ने पीएम मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ की पोल खोल कर रख दी है।
हम आप सब जानते है कि गुजरात मॉडल का ढोल बहुत पीटा गया था, मगर इस महामारी ने बता दिया है कि असल में गुजरात का विकास कागजों पर ही हुआ होगा। और अगर कुछ हुआ भी है तो उसका फायदा वहां के आमजन को नहीं मिला। वास्तव में इस समय मध्यप्रदेश के मुकाबले गुजरात से अधिक बेचैन करने वाली खबरें आ रही हैं। दोनों राज्यों में यह अंतर यह बताने के लिए काफी है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा सूची के मुताबिक कोविड के सबसे ज्यादा कंफर्म मामलों में गुजरात देश भर में दूसरे नंबर पर है। इसकी तुलना एमपी से करें तो वह 6 ठे नंबर पर है। बहुत पीछे।
इससे साफ जाहिर होता है कि केंद्रीय निगरानी टीम को इंदौर भेजने का मतलब वायरस को नियंत्रण में लाने से ज्यादा लेना-देना नहीं है। इसका संबंध भाजपा की अंदरूनी राजनीतिक उठापठक से है। जब से प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों भाजपा मामूली अंतर से पराजित हुई है तब से यह तनातनी चल रही है।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि भाजपा के अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह प्रदेश में जोर-जबरदस्ती से सरकार बनाने को उतारू रहे हैं। उनके मन में यह बात भी साफ थी कि शिवराज मुख्यमंत्री नहीं होंगे। मोदी और शाह दोनों नेताओं का एक ही मकसद था कि एमपी में ऐसी भाजपा सरकार का गठन हो, जो शाह के प्रति जवाबदेह हो और शिवराज कहीं तस्वीर में नहीं हो।
वास्तव में जब कांग्रेस सरकार अस्थिर हो रही थी, तब जो नाम हवा में तैर रहे थे उनमें शाह के वफादार नरेंद्र सिंह तोमर और शिवराज को हर मौके पर चुनौती देते रहे नरोत्तम मिश्रा जैसे नेताओं के नाम प्रमुखता पर थे।
खैर। अंतत: ताजपोशी शिवराज की हुई। 23 मार्च की रात 9 बजे सीएम के तौर पर शपथ ली। सच यह है कि उन्होंने अकेले शपथ ली। मंत्रिपरिषद के बिना ही। हालाकि इससे ऐसा लगता है कि मानो लॉकडाउन हटाए जाने तक के लिए उनकी नियुक्ति तात्कालिक तौर पर हुई हो।
मोदी और शाह द्वारा जिस तरह के हालात निर्मित किए जा रहे है उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि अब उनको भले ही पद से हटाया न जाए पर कोरोना महामारी खत्म होने के बाद ‘कठपुतली’ सीएम बनाने की पूरी-पूरी तैयारी की जा रही है। गर यही हालात रहे तो शिवराज चाह कर भी प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर चौथा कार्यकाल वैसा नहीं होगा जैसा उन्होंने सोचा था। पिछले तीन कार्यकाल में उनने अपनी मन मर्जी से, खुद के हिसाब से शासन किया था। पूरा राज्य उनके हवाले था और काफी हद तक वही किया, जो वे चाहते थे। शीर्ष नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं था। इन नेताओं में आडवाणी भी थे, जो उनके मेंटर, संरक्षक और मार्गदर्शक थे। लेकिन अबकि हालात ऐसे नही लगते है।
इसमें कोई दो राय नही है कि 23 मार्च की शाम जल्दबाजी में हुए शपथ ग्रहण समारोह के बाद से शिवराज के लिए कुछ भी सही नहीं हुआ है। इससे खराब स्थिति और क्या हो सकती है कि उन्हें कैबिनेट गठित करने की अनुमति तब तक नहीं दी गयी, जब तक कि उनकी एक सदस्यीय सरकार कांग्रेस के दबाव में नहीं आ गयी। विशेष रूप से उल्लेेख है कि राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने विरोध करते हुए राष्ट्रपति के नाम चिट्टी तक लिख डाली। इसके बाद ही कुछ मंत्रियों के शपथ ग्रहण की इजाजत दी गयी। वह भी मात्र पांच तक सीमित कर दी गई। जबकि आर्टिकल 164 (ए) में संवैधानिक रूप से 12 मंत्री बनाए जाने की अनिवार्यता का प्रावधान है। यहां ये भी जान ले कि मंत्रिपरिषद में शामिल किए गये लोगों में न तो कोई उनका वफादार है और न ही कोई ऐसा व्यक्ति, जिसे उन्होंने खुद चुना हो।
बता दे कि शिवराज सिंह चौहान को पीएम नरेन्द्र मोदी आज भी अपना सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी मानते है। कभी संभावित प्रधानमंत्रियों में नरेंद्र मोदी के साथ उनका नाम भी एक साथ लिया जाता था। भले ही मोदी देश के दूसरी बार पीएम बन कर राज कर रहे हो लेकिन शिवराज का फोबिया अब भी उन पर भारी रहता है। याद रहे कि शिवराज संघ में भी सर्व स्वीकार्य है। असल में शिवराज ने पार्टी में खुद को एक अलग तरीके के नेता के रूप में स्थापित किया है। मसलन सीधे-साधे, साफ स्वच्छ और सरल- सहज नेता। शिवराज को इफ्तार पार्टियों में स्कल कैप पहनने (जिसे मोदी कभी नहीं पहनते) से कभी गुरेज नही रहा। खुशी-खुशी मुस्लिम महिलाओं से राखी भी बंधवा लेते है। अल्प संख्यकों के कल्याण के लिए विशेष योजनाएं चलाना भी उनके लिए आसान है। यही सब शिवराज को मोदी से अलग करते है। और शायद मोदी को शिवराज की यही बातें चुभती भी है।
खैर। अब हम थोड़ा कोरोना के संदर्भ में गुजरात की ओर रूख करते है। क्या वाकई मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ के चलते प्रदेश में कोरोना जैसी बिमारी नियंत्रित है। गर हां तो केन्द्रीय जांच दल को वहां नही भेजने का निर्णय सही ही है। लेकिन आंकड़े इस बात को ताकीद करते है कि वहां सब कुछ ठीक नही है। जिस तरह के आंकड़े सामने आ रहे है वे यही प्रमाणित कर रहे है कि गुजरात में कोरोना जैसी माहामारी को लेकर हालात बेकाबू है और ठीक नही है।
दरअसल सच तो ये है कि गुजरात में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खस्ता होने के कारण वहां कोरोना वायरस का संक्रमण बड़ी तेजी से फैल रहा है। अब वहां चार जिलों को छोडक़र सभी जिलों में कोरोना के मरीज पाए गए है। गुजरात संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। प्रदेश में जिस रफ्तार से संक्रमण फैल रहा है और मौंतों की जो दर है, उसे देखते हुए कहा जा रहा है कि वह कोरोना का एपिसेंटर यानी मुख्य केंद्र बन सकता है। देश में कोरोना से करीब एक तिहाई मौतें गुजरात में हो रही हैं।
बताते चलूं कि महाराष्ट्र में कोरोना फैलने की रफ्तार में पिछले दिनों कमी आई है, जबकि गुजरात में उल्टा हो रहा है। इसीलिए वह दिल्ली को पछाडक़र दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। अभी तक के आंकड़े कहते हैं कि गुजरात में कोरोना से संक्रमित 2600 से ज्यादा मरीज मिल चुके हैं। राज्य में अब तक 112 लोगों की कोरोना से मौत भी हो चुकी है। यह हालत तब है जब राज्य में टेस्टिंग बहुत कम हुई है और उसकी भी गति सुस्त है। इसलिए आशंका है कि आने वाले दिनों में हालात और तेजी से बिगड़ सकते हैं।
हालाकि केरल को छोड़ दें तो पूरे देश की हालत इस मामले में खराब थी, लेकिन गुजरात में सबसे बुरी बात यह थी कि पिछले बीस साल के बीजेपी शासन में स्वास्थ्य तंत्र वहां पूरी तरह से चरमरा गया था। भाजपा सरकार ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में राज्य के लोगों की सरासर उपेक्षा की गई। कई दूसरे राज्य जहां स्वास्थ्य पर अपना खर्च बढ़ा रहे थे वहीं गुजरात कटौती कर रहा था। और यह उस समय हुआ जब नरेंद्र मोदी प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
चलिए अब कुछ आंकड़ों पर गौर फरमाते है। आरबीआई के अनुसार सन 1999 में गुजरात देश में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च करने वाले राज्यों की सूची में चौथे नंबर पर था, मगर 2009 आते-आते वह फिसलकर 11 वें स्थान पर आ गया। सनद रहे कि गुजरात पहले स्वास्थ्य पर करीब 4. 39 फीसदी खर्च करता था जो कि घटकर केवल 0. 77 फीसदी रह गया। यानी पांचवां हिस्सा ही रह गया।
इसी का नतीजा है कि गुजरात में 1000 मरीजों पर 0. 33 बेड हैं। केवल बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां इससे भी ज्यादा हालत खराब है। राष्ट्रीय औसत 1000 मरीजों पर 0. 55 बेड का है। अब आप सोच सकते हैं कि जब महामारी से हजारों लोग संक्रमित होंगे तो उनका क्या हाल होगा। बीमारों के लिए बेड कहां से आएंगे और आ भी गए तो रखे कहां जाएगें। इतने अस्पताल या इमारतें कहां है।
काबिलेगौर हो कि जब 2001 में नरेंद्र मोदी ने राज्य की बागडोर संभाली थी तब राज्य में 1001 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थे। इसके अलावा 240 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 7224 उप केंद्र थे। अब जरा यह देख लीजिए कि अगले दस सालों में उनकी उपलब्धियां क्या रहीं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 1058 हो गए यानी केवल 57 नए केंद्र बने। इसके अलावा 74 सामुदायिक केंद्र और बने जबकि एक भी उपकेंद्र नहीं बना।
यही नहीं, गुजरात के सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने पर भी वहां के मरीजों को ज्यादा खर्च करना पड़ता है। इस मामले में तो बिहार भी उससे बेहतर है। प्रति व्यक्ति दवाओं पर खर्च करने के मामले में गुजरात 2009 में ही देश में पच्चीसवें स्थान पर पहुंच गया था।
बहरहाल आंकड़े और भी बहुत से ऐसे है जो गुजरात की स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर मोदी के मॉड़ल की सच्चाई को सामने लाकर उसकी धज्जियां उड़ाते है। मसलन, राज्य में वेंटिलेटर की भारी कमी, टेस्टिंग लेबोरेटरी का खासा अभाव। स्वास्थ्यकर्मियों व हेल्थ स्टाफ की हद से ज्यादा कमी। आश्चर्य तो ये कि पिछले बीस सालों में इन सभी मामलों में सुधार होने के बजाय स्थिति बिगड़ी ही चली गई।
कहा जा सकता है कि राज्य सरकार की खराब नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी ने गुजरात की जनता को बहुत बड़े खतरे में डाल दिया है। अब कोरोना जैसी महामारी के चलते मोदी के गुजरात मॉडल की खामियों की सजा जनता भुगतेगी।
असल में परेशानी तो यह है कि केंद्र में आने के बाद भी नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर वही काम कर रहे है जो उनने गुजरात में किया था। यानी एक नाकाम गुजरात मॉडल को वे देश पर थोप रहे हैं। और अब इसका नतीजा देश की जनता को भुगतना पड़ेगा। अब भी वे कोरोना जैसी महामारी को लेकर की गई अपनी नादानियों व गलतियों को स्वीकार करने के बजाय किसी तानाशाह के जैसे अपने ही दल के नेताओं के भविष्य पर चोट करने का प्रपंच रच रहे है।
असल में वे इस तरह की हरकतें करके समय सीमा में कोरोना पर अकुंश नही लगा पाने की अपनी गलतियों को छुपाने का काम कर रहे है। लेकिन कहते है न कि- ये पब्लिक है बाबू, पब्लिक। ये सब जानती है। -संजय रोकड़े