Wednesday, November 27, 2024
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भारत को ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द से इतना प्यार क्यों है

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बहुत सोच विचार के बाद सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग बंद कर दिया है और प्रेस कॉनफ्रेंस में भी सावधानी बरती जा रही है कि सोशल डिस्टेंसिंग शब्द न बोला जाए।
कोरोनावायरस की महामारी के समय भारत में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द काफी प्रचलित हो रहा है। इसका प्रयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषण में किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय भी इसी शब्द का इस्तेमाल अपने दस्तावेजों और निर्देशों में कर रहा है।
सोशल डिस्टेंसिंग को परिभाषित करते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि ‘ये संक्रामक बीमारियों को रोकने की एक अचिकित्सकीय विधि है जिसका मकसद संक्रमित और असंक्रमित लोगों के बीच संपर्क को रोकना या कम करना है ताकि बीमारी को फैलने से रोका जाए या संक्रमण की रफ्तार को कम किया जा सके. सोशल डिस्टेंसिंग से बीमारी के फैलने और उससे होने वाली मौतों को रोकने में मदद मिलती है.’।
इसका वर्तमान संदर्भ में अर्थ ये बताया जा रहा है कि लोगों को अनावश्यक एक दूसरे के संपर्क में या पास-पास नहीं रहना चाहिए, बिना वाजिब वजह के घर से नहीं निकलना चाहिए, हाथ मिलाने या गले मिलने से परहेज करना चाहिए, ताकि कोरोनावायरस फैल न सके।डब्ल्यूएचओ अब नहीं करता सोशल डिस्टेंसिंग का इस्तेमाल
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन संक्रमण रोकने के लिए दूरी बनाए रखने के उपायों के लिए फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग करता है। शुरुआती तौर पर इस शब्द को लेकर बेशक कुछ उलझन थी, लेकिन अब डब्ल्यूएचओ सोशल डिस्टेंसिंग का इस्तेमाल नहीं कर रहा है. डब्ल्यूएचओ के डायरेक्टर जनरल अपने ट्वीट में भी फिजिकल डिस्टेंसिंग ही लिख रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बहुत सोच विचार के बाद सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग बंद कर दिया है और प्रेस कॉनफ्रेंस में भी सावधानी बरती जा रही है कि सोशल डिस्टेंसिंग शब्द न बोला जाए।
विशेषज्ञ तो यहां तक कह रहे हैं कि ये शारीरिक दूरी रखने का समय है, लेकिन साथ ही ये सामाजिक और पारिवारिक तौर एकजुट होने का समय है। नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डेनियल एलड्रिच तो यहां तक कह रहे हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल न सिर्फ गलत है, बल्कि इसका ज्यादा इस्तेमाल नुकसानदेह साबित होगा. उनका संदेश है कि शारीरिक दूरी रखें और सामाजिक तौर पर एकजुटता बनाए रखें।
भारत में सोशल डिस्टेंसिंग रग-रग में समाई है
‘सोशल डिस्टेंसिंग’ को भारतीय जनमानस जिन अर्थों में ग्रहण करता है, उसके पीछे की सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना जरूरी है। यह शब्द लम्बे समय से सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए इस्तेमाल होता रहा है। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ हमेशा ताकतवर समूह द्वारा कमजोर समूह पर थोपी जाती है। भेदभाव और दूरी बनाए रखने और अस्पृश्यता को अमल में लाने के तरीके के तौर पर इसका इस्तेमाल होता रहा है।
यह पवित्र और अपवित्र की धार्मिक धारणा का सामाजिक जीवन में विस्तार है, जिसके बारे में फ्रांसिसी समाजशास्त्री लुई दुमों ने अपनी चर्चित किताब होमो हायरार्किकस में विस्तार से लिखा है।
दरअसल में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का कोरोना या अन्य किसी बीमारी से कोई संबंध नहीं है. इस शब्द का प्रयोग ही समाज के शक्ति संबंधों को समझाने के लिए किया जाता है। कोरोना के फैलने का संबंध ‘शारीरिक डिस्टेंसिंग’ से है. यानी बीमार व्यक्ति के शरीर से दूर रहो. अपनी बीमारी दूसरे को मत दो, दूसरे की बीमार मत लो।
‘सोशल डिस्टेंसिंग’ भारतीय समाज व्यवस्था का हिस्सा है
जातियों में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जाति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए है। इनमें शादी, खाने-पीने से लेकर छूने तक जिस ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का क्रूरतम रूप सामने आता है, वहाँ पर कोरोना की ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ कहीं पुनरुत्थान का कारण न बन जाए. अभी भी देश में पानी भरने से लेकर सार्वजनिक स्थलों, मंदिरों और कई जगहों पर रेस्टोरेंट और आटा चक्की तक पर दलितों के साथ ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का व्यवहार किया जाता है. किसका बनाया हुआ खाना कौन खा सकता है और कौन नहीं खा सकता, इसका पूरा विधान है और वह व्यवस्था खत्म नहीं हुई है।
उच्च जातियों के लोग इस महामारी के दौरान ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के सूत्र से लोगों के सामने जाति-व्यवस्था के औचित्य का तर्क रखने लग गए हैं। ये तर्क बार बार आ रहा है कि न छूकर किया जाने वाला अभिवादन, यानी हाथ जोड़कर दूर से किया जाने वाले नमस्ते, भारतीय परंपरा की श्रेष्ठता को दर्शाता है। हालांकि ऐसा बोलने वाले भूल जाते हैं कि चरण स्पर्श भी उसी परंपरा का हिस्सा है। समान लोगों के बीच गले मिलने यानी आलिंगन की भी परंपरा है. यानी दूरी बरती जाती है का मतलब ये नहीं है कि दूरी हर किसी के बीच बरती जाती है. सोशल मीडिया पर भी ‘कोरोना पर सबसे पहले आरक्षण वालों का हक’ जैसे नारे खूब लग रहे हैं।
पितृसत्ता की ‘सोशल डिस्टेंसिंग’
परिवार के अन्दर भी स्त्री और पुरुष के बीच एक ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ बनाई गई है ताकि स्त्री को कमजोर होने का अहसास दिलाकर उसका शोषण किया जा सके. स्त्री के लिए तो ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ इस तरह से की गई है कि वह घर से बाहर ना निकले. उससे अपेक्षा की जाती है कि वह “पराए” पुरुष से बात ना करे. यहां तक ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की गई है कि परिवार के अन्य लोगों के समाने अपने पति से भी दूरी बनाए रखनी है, उसका नाम तक जुबान पर नहीं लाना है।
इसके अलावा माहवारी के समय सोशल डिस्टेंसिंग को और भी सख्ती से अमल में लाया जाता है। पिछले दिनों एक धर्मगुरु ने तो यहां तक कह दिया कि माहवारी के दौरान खाना बनाने वाली औरतें अगले जन्म में कुतिया के रूप में जन्म लेंगी। सबरीमला मंदिर में भी रजस्वला महिलाओं के साथ सोशल डिस्टेंसिंग की जाती है।
गरीब और अमीर की ‘सोशल डिस्टेंसिंग’
भारत के इतिहास में आपको राजा और प्रजा के बीच भी ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ दिखती हैं. वर्तमान में गरीब और अमीर के बीच भी दूरी बनाई जाती है। सामाजिक संबंध इसी से निर्धारित होते हैं कि किसकी हैसियत क्या है. हमारे बच्चों को किसके बच्चों के साथ खेलना है, किसके साथ स्कूल जाना है, ये सारी बातें ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ तय कर देती है। मजदूर के लिए गाँवों में अलग बर्तन रखना और शहरों में भी उससे दूरी बनाए रखना भी इसी का परिणाम है।
आप सोचिये कि जिस देश में जाति, धर्म, जेंडर, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर सामाजिक दूरी बना ली जाती है, वहाँ पर उन लोगों को एक साथ आने का विश्वास सिर्फ संविधान ने दिया है. किसी महामारी का फायदा उठाकर सवर्ण जातियाँ या अन्य ताकतवर समूह अगर सोशल डिस्टेंसिंग की पोंगापंथी-पुरोहितवादी अवधारणा को मजबूत करने में जुट जाती हैं, तो इस पर न सिर्फ नजर रखनी चाहिए, बल्कि इसका विचारों के स्तर पर प्रतिकार भी करना चाहिए।
हर संकट के दौर में व्यक्ति अपनी विरासत को बचाता है। कोई सरकार बचाता है तो कोई व्यापार बचाता है, कोई खेत बचाता है. इस देश के उच्च वर्ण के लोग संकट के क्षण में निश्चित रूप से अपना जन्मजात प्रिविलेज यानी जाति व्यवस्था को ही बचाएंगे। जब धरती नष्ट हो रही होगी तब भी वे जाति-व्यवस्था को ही बचा रहे होंगे, वे अपने काम में लग भी गए हैं।
यह उठता है कि भारत के दमित वर्ग के लोग क्या बचाएं? उनके पास कोई सांस्कृतिक पूंजी तो बचाने के लिए है नहीं. पिछले सौ सालों में उन्होंने जो कुछ हासिल किया है वह आधुनिकता है, इसमें समानता, तर्क, विवेक और न्याय जैसी वे तमाम धारणायें हैं जो अन्याय आधारित समाज का अंत करके न्याय आधारित समाज के स्थापना का आधार बनती हैं।
इसको बचाना जरूरी है क्योंकि पाखंडी आपको पाखंड में फंसे रहने को कहेंगे और खुद विज्ञान के संसाधनों का इस्तेमाल करेंगे।
(लेखक-संदीप मील साहित्यकार हैं. इनका कार्य क्षेत्र राजस्थान है. यह लेख उनका निजी विचार है) साभर-द प्रिण्ट