कोविड-19 के दौरान यह बात स्पष्ट हो गई कि हमें अनिवार्य सैनिक सेवा के बजाय अनिवार्य चिकित्सीय सेवा पर बहस करना चाहिए। आज इस आपदा में सरकारी डॉक्टर अकेले लड़ते नजर आ रहे हैं और संसाधन से जुझता हुये सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं ने अपना पूरा दम लगा रखा है और यह सब इसलिए भी मुमकिन हो पा रहा है क्योंकि प्रशासनिक सेवाओं ने संक्रमण रोकने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी है। फिलहाल कोविड-19 जाँच मुख्य मुद्दा है और अब जाँच में वेटिंग चलने लगी है जो कि बेहद गंभीर बात है और इसका मुख्य कारण जाँच केंद्रों की कमी, टेस्टिंग प्रोब की निर्यात निर्भरता और लैब में मानव संसाधन की कमी है।
और अगर हम गैर कोरोना मरीजों की बात करें तो स्थिति और भी खराब है देश भर की ज्यादातर निजी चिकित्सालय या तो बंद पड़े हैं या तो उसमें से चिकित्सक गायब है। इसको लेकर सरकार अपील कर रही थी और कभी कभी आदेश भी दे रही थी। इसके बावजुद भी गैर कोरोना मरीजों को ईलाज नहीं मिल पा रहा है। ऐसा लग रहा है कि निजी चिकित्सक सरकार के जद से बाहर है इस तरह के संकट से निपटने के लिए निजी चिकित्सकों को अनिवार्य चिकित्सा सेवा के दायरे में लाने की जरूरत है और इसके साथ साथ जैविक आपदा और रासायनिक आपदा अर्ध चिकित्सीय बल (paramedics force) के स्थापना की जरूरत है। इस तरह की आपदा बल, प्रशासन के साथ मिलकर छात्रावास को आपातकाल अस्पताल में, स्कूलों को राहत केन्द्र में, बदलने के साथ साथ हॉस्पिटलों को संक्रमण क्षेत्र बनने से बचाने का काम करेगा। अभी कुछ दिनों पहले पूर्वांचल के सबसे बड़े अस्पताल सर सुंदरलाल अस्पताल के संक्रमित घोषित हो जाने से एक नय़ा संकट पैदा हो गया।
और ऐसे में क्या हम अस्पतालों कहीं और शिफ्ट कर सकते हैं या संक्रमित क्षेत्र को 24 घंटे के अंदर सैनिटाइज कर सकते हैं ? हम लोग इस तरह के तमाम सवालों से घिरे पड़े हैं।
जैविक और रासायनिक आपदा फोर्स 24 घंटों में इस तरह के संक्रमित क्षेत्रों को 24 घंटे में सैनिटाइज कर सकेगी। इस तरह की फोर्स देशभर के अस्पतालों के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी मेडिकल और केमिकल वेस्ट मैनेजमेंट की ट्रेनिंग देगी। हमारे छात्रों को ट्रेनिंग दे सकती है कि वह छात्रावास छोड़ने से पहले छात्रावास के कमरे को अस्पताल के कमरे में बदलकर जाएं। आपदा फोर्स देशभर के चिकित्सा एवं सफाई कर्मियों के लिए सुरक्षा उपकरणों का उत्पादन वितरण एवं गुणवत्ता जांच में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।
और अगर महामारी ना भी हो तो जैविक आपदा फोर्स मलेरिया डेंगू मलेरिया हैजा दिमागी बुखार आदि बीमारियों से लड़ने में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की मदद करेगी। ये सारी बीमारियां गरीबों की मौत का प्रमुख कारण है।
रासायनिक आपदा फोर्स देश में इंडस्ट्रियल सेफ्टी और प्रदूषण नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है विश्व की सबसे बड़ी रासायनिक त्रासदी भोपाल गैस कांड के 33 साल बाद भी हम लोगों ने कुछ नहीं सीखा जबकि भोपाल त्रासदी से वंशानुगत बीमारियां भी उपजी और जिनका इलाज स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है हम लोग भोपाल त्रासदी के पीड़ितों को एक अस्पताल देने में भी नाकाम रहे। त्रासदी के अलावा भी देश के बहुत सारे भाग में पेयजल प्रदूषित होता जा रहा है जिसकी जांच तक नहीं हो रही है।
खैर अगर आपदा की तैयारियों की बात करें तो हमें यह जान लेना चाहिए कि देश में 7 परमाणु ऊर्जा केंद्र है जो देश का कुल 4% विद्युत उत्पादन करते हैं जो किसी भी मानवीय भूल य़ा प्राकृतिक आपदा की स्थिति में खतरनाक साबित हो सकते हैं। 20 वीं सदी का चेर्नोबिल मानवीय भूल के कारण तो 21वीं सदी का फुकुशिमा हादसा भूकम्प के कारण, हम लोग देख चुके हैं। रासायनिक आपदा बल इस तरह के परमाणु खतरे के स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इससे अलग जैविक आपदा फोर्स तो हमारे लचर स्वास्थ्य व्यवस्था की लाठी बन सकती है सोचिए अगर जैविक आपदा फोर्स रहती है तो समय पर गोरखपुर के दिमागी बुखार से पीड़ित बच्चों को ऑक्सीजन मिल जाता और बिहार में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों को भी इलाज इलाज मिलने में मदद होती।
लंबित जांच के मामले हमारी क्षमता पर सवाल उठाते हैं और निश्चित तौर से हमारे पास तकनीक और मानव संसाधन की कमी है। एंबुलेंस वेंटिलेटर के साथ-साथ देश डॉक्टरों की कमी से भी जूझ रहा है। और जो डॉक्टर लड़ रहे हैं वह पीपीई किट कमी से जूझ रहे हैं। कोरोना संकट दौरान एक बात तो स्पष्ट हो गई कि देश में स्वास्थ्य और चिकित्सा विज्ञान अनुसंधान के बजट को बढ़ाने की जरूरत है।
हमारे छात्र चीन रूस के अलावा सोवियत रूस से आजाद हुए विकासशील देशों में भी मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। देश में मेडिकल कॉलेजों की कमी है और लगभग यही हाल अनुसंधान केंद्रों का भी है। अगर संस्थान के स्तर पर देखा जाये तो अनुसंधान का ढिंढोरा पीटने वाले संस्थान भी शोध छात्र को थिसिस सबमिट करने के बाद उन्हें फाइनल वाइवा तक बैठने की अनुमति भी नहीं देना चाहते हैं और ऐसी स्थिति में भी आज शोध छात्र कोविड-19 के अनुसंधान से जुड़ी हुई लैबों में रिसर्च कर रहे हैं। इसके अलावा देशभर में लगभग 20 लाख चिकित्सा एवं स्वास्थ्य कर्मी ऐसे हैं जो अस्थाई तौर पर नियुक्त किए गए हैं। यह लोग न्यूनतम वेतन पर या उससे भी कम वेतन पर काम कर रहे हैं, वेतन के अलावा इन्हें ट्रेनिंग भी कम दी जाती है। कम से कम इस संकट के हाल में देश के साथ खड़े रहने की एवज में स्थाई रूप से नियुक्त किया जाना चाहिए। और इन सब से बदतर स्थिति तो सफाई कर्मियों की है सफाई कर्मी बगैर किसी सुरक्षा उपकरण के खराब से खराब हालात में सफाई करने के लिए मौजूद रहते हैं। न तो इनके लिए नियमित स्वास्थ्य जांच की कोई विशेष व्यवस्था है ना ही इन्हें कोई विशेष स्वास्थ्य बीमा दिया जा रहा है। हर साल 50 से ज्यादा सफाई कर्मी सीवेज सफाई के दौरान सीवेज में ही मर जाते हैं। आजादी के 70 साल बाद भी भारत सरकार इनके लिए ना तो कोई विशेष उपकरण मुहैया करा पाई है। मंगल पर झंडा गाड़ने के बावजूद हम लोग सफाई कर्मियों का कुछ मंगल नहीं सोच पाए।
लेकिन यह सब तभी हो पाएगा जब हम स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी को राजनीतिक मुद्दा बनाए।
लोगों को सोचना होगा क्या अभी भी हमारे लिए अस्पतालों से ज्यादा धार्मिक संस्थान जरूरी है?
अंशु शरण वाराणसी