यही कोई पचास के आस पास उम्र होगी करुणेश की। सेना में सूबेदार के पद से सेवानिवृत्त। वर्तमान में समाज सेवा से जुड़े हैं। और अपना अधिक से अधिक वक़्त समाजसेवा को ही देते हैं। ग्रेटर कैलाश इलाके में एक वृद्धाश्रम भी चलता है उनका। खूब समर्पित रहते हैं और पूरे मनोयोग से वृद्धों की सेवा करते हैं। कभी कीर्ति यश के लिए काम नहीं किया। जो हृदय को सुकून दे बस वही काम किया। अपनी पेंशन का ज्यादा हिस्सा वह इस आश्रम में ही व्यय किया करते हैं।
उस इलाके में कई और भी अनाथालय, वृद्धाश्रम और एनजीओ संचालित हैं। खूब बड़े बड़े बैनर लगे हुए। पर केवल आर्थिक सहायता (अनुदान) लेने के लिए। सरकार को ठगने के लिए। अपना उल्लू सीधा करने के लिए। सब कुछ रजिस्टर में ही होता है वहां, अनुदान बराबर मिलता रहे बस इसी प्रत्याशा में चल रही हैं ये संस्थाएं। सारी गलती उन्हीं संस्थाओं की हो है यह भी नहीं कह सकते, सरकारी मशीनरी ही कुछ ऐसी है कि बिना ” रिटर्न गिफ्ट” वाली संस्थाएं उन्हें फूटी आंखों भी नहीं सुहाती। बिना उसके वह किसी की कोई फाइल नहीं बढ़ने देते। थक हार कर व्यक्ति नाउम्मीद हो जाता है। ऐसा नहीं है कि इन छद्म संस्थाओं ने करुणेश की संस्था के लिए कठिनाई नहीं पैदा की, पर सांच को आंच कहां आती है। करुणेश जी के समर्पण, सेवाभाव और त्याग के आगे वह लोग अपने मंसूबों के कामयाब न हो सके। करुणेश की संस्था ” आसरा ” के नाम से पंजीकृत थी। आसरा सही मायनों में त्यक्तों के लिए आसरा ही था। इस वृद्धाश्रम में जिसे हम आगे से “आसरा” ही कहा करेंगे, कुल साठ परित्यक्त वृद्ध रहा करते थे। सुबह से लेकर शाम तक करुणेश जी उनकी सेवा में लगे रहते। वृद्धों की उम्र पचपन से लेकर पचासी साल तक थी। हर तबके के लोग यहां थे। गरीब से गरीब और अमीर से अमीर।
पर जिस वृद्ध के जीवन का उत्तर काल अपनी संतान से दूर किसी वृद्धाश्रम में बीत रहा हो, उसे हम अमीर कैसे कह सकते हैं यह चिंतन का विषय है। स्वाभाविक सी बात है कि जब इतने वय वर्ग के लोग हैं तो बीमारी तो कोई न कोई होगी ही। इन लोगों की स्वास्थ्य सेवा के लिए और सफाई के लिए करुणेश जी ने बाकायदा वेतनभोगी कर्मचारी भी रखे हैं। रोग भी कैसे कैसे, किसी को अल्जाइमर, तो किसी पारकिंसन, किसी को पक्षाघात तो किसी को शोथ की समस्या, मधुमेह, रक्तचाप तो आम बात है। किसी का घाव रोज ड्रेसिंग करना है तो किसी को असमय मिर्गी का दौरा। कुल मिलाकर बिना सेवाभाव के कोई यह काम नहीं कर सकता। करुणेश की मृदुभाषिता और समर्पण की भावना से प्रभावित हो शहर के नामी डॉक्टर भी यहां सप्ताह में एक दिन मुफ्त सेवाएं दे जाते हैं।
बाकी दवाओं की भी व्यवस्था हो ही जाती है। न होने पर करुणेश जी अपने पास से व्यवस्था किया करते हैं। बेसहारा लोगों को ही करुणेश जी अपने यहां आश्रय देते हैं। बाकी किसी रसूख वाले या धनपशु की बात वह नहीं रखते। अभी कल ही उनके पास गुरुग्राम से फोन आया था कि मेरी मां को ले जाओ, जितना कहो उतना खाते में नेफ्ट कर देंगे। ऐसा नहीं है कि हम उनके साथ नहीं रखना चाहते, पर घर में इतनी अशांति हो गई है कि या तो मां रह सकती है या मेरी पत्नी। पर करुणेश ने सीधे मना कर दिया था। उनका बहुत स्पष्ट दृष्टिकोण था कि जो बेसहारा होगा हम उसी को आश्रय देंगे। किसी की सिफारिश से कोई घर नहीं उजाड़ेंगे। पर कभी कभी उन बेसहारा लोगों में भी कोई न कोई संभ्रांत घर का मिल ही जाता। जब उनका बेटा उन्हें धोखे से छोड़कर घर बार बेचकर एन आर आई बन जाता।
आज सुबह ही करुणेश जी ने जब अपना फोन देखा तो उन्हें एक नए नम्बर से संदेश दिखाई दिया।
“हम लोग आज अपनी मां के साथ ” मदर्स डे ” मनाना चाहते हैं। आपके वृद्धाश्रम में शचीरानी नाम की जो महिला हैं वह हमारी मां हैं। यदि आप अनुमति दें तो हम लोग शाम चार बजे तक पंहुच जाएंगे। दो घंटे रहकर फिर रात दस बजे की फ्लाइट से लौट जाएंगे। हम लोग न्यूजर्सी में रहते हैं। ”
संस्था के नियमों के अनुसार किसी को भी परिवार से मिलने के पहले उस पुरुष या महिला से सहमति लेनी आश्यक होती थी जिसके लिए सन्देश होता था। करुणेश जी शचीरानी के पास जाकर बोले,
अम्मा ! एक सन्देश आया है, शचींद्र के नाम से,
जानती हो …?
अम्मा आवाक रह गईं । क्या , क्या कहा शचींद्र ..??
मेरा शचींद्र ?
क्या संदेश है बताओ बेटे ?
क्या लिखा है उसने ? मेरे लिए ।
क्या ? ………..वह यहां आ रहा है ?
इस बार तो वह जरूर हमें साथ ले जाएगा । पिछली बार टिकट नहीं मिला था न …….. । इसलिए ।
अबकी वह भूल नहीं करेगा । कहते हुए अम्मा अतीत में खो गईं।
आज से तीन साल पहले जब शचींद्र भारत आया था, तो उसने मुझे अपने साथ न्यूजर्सी ले जाने के लिए कहा था । और बोला अम्मा , यहां की सारी सम्पत्ति बेच दो और चलो मेरे साथ। अब यहां क्या रखा है ? वहां हम लोग साथ रहेंगे । माया तुम्हें बहुत याद करती है , और तुम्हारा नाती तो अब एक साल का हो गया है। चलो न अम्मा। जब से उसके बाबूजी गुजरे तब से मैं उस पाश इलाके के घर की मालकिन थी ।मेरा मन तो बिल्कुल ही नहीं था कि इनकी बनाई एक मात्र निशानी बेच दूं, पर अब इकलौते बेटे के सिवा था ही कौन ? कलेजे पर पत्थर रख कर मैं उस दिन रजिस्ट्री आफिस गई थी। बेटे का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी मैं। एक साहब ने खूब पूछताछ की, और घर न बेचने की सलाह भी दी। पर शचींद्र के कहने के कारण हमने घर बेच दिया। कई जगहों पर उसने अंगूठे लगवा लिए। फिर अगले दिन वह हमें लिवाकर दिल्ली हवाई अड्डे पंहुचा। मुझे अंदर एक बेंच पर बैठाकर कुछ काउंटरों पर गया। मैं देर तक इंतजार करती रह गई। वह नहीं आया। धीरे धीरे वहां की भीड़ छंटने लगी। एक कर्मचारी मेरे पास आकर बोला, अम्मा किसी का इंतजार कर रही हो क्या? हमने बताया कि मेरा बेटा अंदर गया है। आज वह हमें न्यूजर्सी लेकर जा रहा है।
पर अम्मा वहां की फ्लाइट तो एक घंटे पहले ही चली गई। तब मैंने उन साहब से पूछा कि मेरा बेटा कहां है ? शचींद्र नाम था उसका। साहब बड़े अच्छे थे। उन्होंने कुछ फाइलें देखीं और बताया कि शचींद्र सुत महेंद्रनाथ तो उस फ्लाइट से उड़ान भर चुके हैं। मुझे सहसा विश्वास न हुआ, मैंने उन साहब से फिर से खोज करने को कहा। मेरी तसल्ली के लिए एक बार वह फिर अंदर जाकर लौट आए और बताया की अम्मा शचींद्र चले गये हैं। अब न्यूजर्सी की कोई उड़ान एक सप्ताह तक नहीं है। कुछ देर हतप्रभ सी बैठी रही मैं, और फिर धीरे धीरे वहां से निकल कर बाहर आ गई। कदम डगमगा रहे थे। अपने घर आई जिसकी रजिस्ट्री करा दी थी। और जाती भी कहां ….?
खरीददार ने भी आश्रय न दिया। देता भी क्यों, जिसे अपने बेटे ने निराश्रित कर दिया उस अभागन मां को भला कोई दूसरा क्यों पनाह देता ? रात को ही पागलों की तरह में रोड पर चल रही थी, वह एक सर्द रात थी। कुहरे ने पूरे शहर को अपने आगोश में भर लिया था। मुझे कुछ भी ज्ञान न था कि कहां हूं, क्या कर रही हूं। सर्दी सहन नहीं हो रही थी। रोड के किनारे एक बेंच पर बैठ गई। और फिर कुछ याद नहीं। जब आंख खुली तो सामने तुम थे बेटा करुणेश। और खुद को कंबलों में लिपटा पाई थी। तब से आज का दिन है तीन साल हो गए मैं यहीं हूं तुम्हारे साथ। न तुमने कभी पूछा और न ही हमने कभी बताया। अब तो मेरा नाती चार साल का हो गया होगा। आम्मा जी तो सहज थीं पर करुणेश की हिचकियां बंध गई थीं।
सहज होकर करुणेश ने अम्मा से पूछा, तो क्या उन लोगों से आप मिलना चाहती हो अम्मा ??
हां हां बेटा क्यों नहीं। अपने बेटे से कौन नहीं मिलना चाहेगा । उस बार जरूर कोई मजबूरी रही होगी। इसीलिए नहीं ले गया हमें, इस बार जरूर वह हम लिवाने ही आ रहा होगा। अम्मा की यह उम्मीद देखकर करुणेश का हृदय भी चीत्कार कर उठा। वाह रे मां की ममता, अभी तक अपने बेटे के लिए जगह बना रखी है। जिसने तीन साल पहले उसे हर तरीके से खुद से बेदखल कर दिया था। कितना बड़ा हृदय है तुम्हारा। कितनी वत्सलता, तू तो क्षमा की मूर्ति है मां। और करुणेश ने शचींद्र को सहमति का संदेश प्रेषित कर दिया।
ठीक चार बजे थे। एक बड़ी सी गाड़ी धूल उड़ाती वृद्धाश्रम के सामने आकर रुकी। उसमें से तीन लोग उतरे, शचींद्र उनकी पत्नी माया और बेटा कुशाल। पूरा आश्रम सजाया गया था। शचींद्र ने सबको फल बंटाए। अपनी मां से कुशाल को मिलवाया। दादी अपने पोते के साथ बहुत देर तक बतियाती रहीं। यद्यपि कुशाल थोड़ी बहुत हिंदी ही जानता था, और दादी अंग्रेजी में शून्य थीं, पर घंटों दोनों खेलते बतियाते रहे थे। शायद भाषा भावों के आड़े नहीं आती। शचींद्र अपनी मां को मातृ दिवस पर बधाई देने आया था। उस मां को जिसे उसने तीन साल पहले बिना बताए एयरपोर्ट पर बेसहारा छोड़ दिया था। शचींद्र अपनी मां के साथ फोटो खिंचवा रहा था। और उधर मां अपनी तीसरी पीढ़ी के साथ बालसुलभ क्रीड़ा में व्यस्त थीं। अपना अपमान और तिरस्कार भूल कर।
अच्छा अम्मा अब हम लोग चलते हैं, कुशाल की जिद पूरी करने हेतु हम लोगों को यहां आना पड़ा। अगर छुट्टियां मिली तो अगली साल भी मातृ दिवस पर जरूर आएंगे। तब तक अपना खयाल रखना अम्मा। नाती को पाकर शचीरानी निहाल थीं, मूलधन तो डूब गया था अब वह ब्याज को नहीं छोड़ना चाहती थीं। पर उसपर भी उनका कोई अधिकार नहीं रह गया था।
सुखी रहो बेटा। कहकर वह आंचल के कोने से अपनी बूढ़ी और सूनी आंखे पोछने लगी थीं। आज तीन साल बाद ये आंखें उर्वर हुई थीं।
शचींद्र गाड़ी से एयरपोर्ट जा रहा था। कुशाल ने अपने पापा से कहा, डैड ! यह पिकनिक सेंटर कितना अच्छा है न ? कितने सारे ओल्ड एज के लोगों की कम्पनी है। आप जब ओल्ड होंगे तब आपको यहीं ठहराएंगे। और मॉम आपको भी। हम एवरी ईयर मदर्स डे और फादर्स डे पर आप लोगों से मिलना आया करेंगे।
शचींद्र और माया दोनों आवाक थे। गाड़ी फिर से “आसरा” वृद्धाश्रम की तरफ घूम गई थी ………….। शायद शचींद्र को अपना भविष्य दिखने लगा था।
डॉ. आलोक कुमार तिवारी (यायावर)