आज राजनीति की भाषा और परिभाषा नहीं रह गई है। समय, और परिस्थिति के हिसाब से जो बातें उसके हित में हों वही विचारधारा बन जाती है। अब राजनीति और राजनेताओं के लिए दलित, गाय, हिंदू, अल्पसंख्यक शब्द राजनीति करने के लिए काफी मायने रखते हैं और वो समय-समय पर यह इसे भुनाते भी रहते हैं। इन्हीं पर सियासत करते हुए वो अपने वोटों की हांडी भरते हैं। सियासी गलियारे में जाति, धर्म और भाषा की राजनीति दिन ब दिन बढ़ती जा रही है ताकि चुनावी मौसम में इस्तेमाल किया जा सके। अवसरवादी राजनीति में मुद्दा कोई भी हो, सत्ता में बने रहने के लिए और निजी हितों की पूर्ति तक ही राजनीति सिमट कर रह गयी हैं।
दलितों की चिंता, गौ सेवक, गरीबी हटाना (जो काफी सालों से चलता आ रहा है), स्त्री सुरक्षा, बेटी बचाओ – पढ़ाओ (यह भी काफी समय से चल रहा है) यह सिर्फ खोखली बातें ही लगती हैं। भीड़तंत्र, गाय सेक्युलर धर्म, हिंदुत्व यह बातें सिर्फ सांप्रदायिकता ही फैलाती हैं। लोगों के दिलों में खाई ज्यादा गहरी होती जा रही है।क्या लगता है कि कोई नेता वाकई में दलित या गरीबों के बारे में सोचता है मायावती को ही ले सकते हैं जो खुद दलित है उनके रहते दलितों की स्थिति में कौन सा सुधार हुआ है? राष्ट्रपति कोविद के चुनाव के वक्त भी काफी राजनीति हुई थी। उनका दलित होना काफी भुनाया गया। स्त्री सुरक्षा के नाम पर दिनोदिन भयावह घटनाएं बढ़ती जा रही है। उस पर लगाम कितनी? और तो और लोगबाग वीडियो बनाकर शेयर कर देते हैं।
आज धर्म को राजनीति से बहुत जोड़ दिया गया है और यह दुर्भाग्य है कि धार्मिक कट्टरता समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम ज्यादा कर रही है। दरअसल यह परंपराओं की कट्टरता है जिसे हमने धर्म का जामा पहना दिया है। आज हिंदुत्व शुद्ध रूप से एक राजनीतिक विचारधारा बन गई है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहां हिंदुत्व की भावना का राजनीतिकरण करके धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को खत्म किया जा रहा है। यूं तो धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों ही बातें अलग अलग है। धर्म को कभी भी राजनीति पर थोपा नहीं जाना चाहिए लेकिन आजकल धर्म के नाम पर ही राजनीति चलती है बल्कि यह कहना ज्यादा सही है आज की राजनीति उसी पर टिकी है। चुनावों का आगाज ही मंदिरों के दरवाजों से शुरू होता है। नेता जनेऊ धारण करने से लेकर टोपी तक पहनने को तैयार हो जाते हैं। यह जनता की भावनाओं के साथ खेलना और उन्हें मोहरे बनाने जैसा है। धर्म और हिंदुत्व को न जोड़कर एक धर्म निरपेक्ष राजनीति की ओर बढ़ना चाहिए। एक धर्मनिरपेक्ष देश जनता की सभी नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जरूरतों को ध्यान में रखता है।
धर्म स्वीकार करता है कोई ऐसी शक्ति है जिससे इस सृष्टि को रचा है और वहां सब समान है। तुलसीदास का कथन “परहित सरिस धर्म नहीं भाई – पर पीड़ा सम नहिं अधमाई” अर्थात दूसरों का भला करना धर्म है, दूसरों को तकलीफ पहुंचाना अधर्म है। संत कबीर परंपराओं का मजाक उड़ाते हुए कहते थे कि “चढ़ मुल्ला जा बांग दे क्या बहरा भयों खुदाय है – बार बार के मूढ़ते भेड़ न बैकुंठ जाए।” मतलब अजान पुकारना और सिर मुढ़ाना धर्म नहीं है। गीता भी कर्तव्य को धर्म कहती हैं “कर्तव्यमेव धर्मः”। आज धर्म की आड़ में आर्थिक, सामाजिक, रंग, नस्ल को सियासी जामा पहनाकर अपने राजनीतिक मंसूबे पूरे किए जा रहे हैं। परंपराओं की कट्टरता ने समाज को बांट दिया है। मीडिया और सोशल साइट्स द्वारा इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। जब तक धर्म, जाति, क्षेत्र, रंग देश और समाज पर हावी रहेगा तब तक की लूट और शोषण जारी रहेगा। भीड़तंत्र का हावी होना और उस पर सियासत जन भावनाओं को दरकिनार कर देता है। शाहीन बाग, गो – हत्या या एनआरसी कोई भी मसला हो उसका एक वीडियो वायरल होता है और उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। फेक वीडियोज और स्तरहीन राजनीति का सिलसिला जारी हो जाता है और पीड़ित व्यक्ति की व्यथा कहीं दब जाती है। खत्म होती संवेदनशीलता निश्चित ही राजनैतिक और सामाजिक पतन का कारण है। -प्रियंका माहेश्वरी