प्रकृति मां जब इंसान को अपना खज़ाना लुटाने के वक्त रंग और नस्ल में भेदभाव नहीं करती- जैसे सूरज की किरने रोशनी देती हैं वायु शुद्ध हवा देती हैं नदियां शीतल जल देती हैं सब सामान दृष्टि रखते हैं। पुरातन समय से विचित्र मानवीय कथाएं जातीय भेदभाव व अलगाव और अत्याचार प्रकाश में आ रहे हैं, जिससे चिंगारी भड़की और वेदनाओ व भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। अमेरिका में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक 46 वर्षीय जॉर्ज फ्लोएड को 25 मई 2020 को एक सफ़ेद मूल के पुलिस वाले व उसके सहकर्मियों ने निष्ठुर, निर्दई व निर्मम हत्या की। जो यह प्रदर्शित करता है कि यह वर्ष मार्टिन लूथर की 50वीं पुण्यतिथि, का समय है परंतु आज भी हम उसी वक्त में रुके हुए हैं। इस वाक्य ने अमेरिकी नागरिकों, को जो पहले से कोविड-19 की महामारी झेल रहे हैं, इस पर विरोध करने पर मजबूर हो गए हैं और मानो समुद्र की भांति पूरे देश की सड़कों से लेकर प्रेसिडेंट हाउस तक जाम कर रखा है। तथापि, कई लोगों का ये भी मानना है कि ये पुलिस की बर्बरता व नृशंसता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वर्षों से दिमाग की अनुकूलता व प्रवृत्ति है जो फ्लोएड के आखरी शब्दों का प्रतीकात्मक रोष है “लेट मी ब्रीथ” क्योंकि काले मूल के अस्तित्व का दमन हुआ है।
एक प्रमुख श्वेत मूल की एजुकेटर जे. एन एलियट का मानना है, “देयर इज़ ओनली वन रेस द ह्यूमन रेस”, जिसके बारे में वे कई वर्षों से शोध कर रही हैं -” ब्लू आइज़ ब्राउन आइज़”। इस शोध में कैसे सत्ता में बदलाव अगर आ जाए तो दूसरे व्यक्ति का व्यक्तित्व, मानसिकता आत्मा व सामग्र तथा शारीरिक भाव में पूरा बदलाव देखने को मिलता है। उन्होंने जब अपने सफ़ेद मूल के विद्यार्थियों के साथ मात्र 15 मिनट के लिए अन्य रंग व नस्ल के लोगों की जिंदगी जीने को कहा, तो मात्र ख्याल ही से विद्यार्थियों की रूह कांप गई। इसका क्या अर्थ है? पीढ़ी दर पीढ़ी यातना, हस्तंतारण व घुटन पृथक कर देती है। पुलिसकर्मियों की उद्दंडता समाज में हमेशा से रही है, परंतु फ्लोएड के मामले में उसके अपराध के लिए क्रूरता से गला घोटने, बहुत गलत था। अन्य नस्ल खासकर काले मूल वाले लोगों के साथ यह मामला नया नहीं है। एक और अफ्रीका मूल की महिला, पुलिस की हिरासत में मृत लटकी हुई पाई गई, उन्होंने केवल ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन किया था जिसके लिए पुलिस ने हिरासत में लिया था। एक और वाक्य में एक 12 साल का बच्चा अपने घर के बाहर खिलौने की पिस्तौल से खेल रहा था जिस पर उनके सफ़ेद मूल के पड़ोसी ने पुलिस बुलाकर बच्चे की शिकायत कर दी कि उसके पास हथियार हैं और उस बच्चे को उसी वक्त गोली मार हत्या कर दी बिना जांच पड़ताल के। ना जाने कितने अनगिनत रोजमर्रा, कभी स्कूल, पार्क, ट्रेन व कार्यालयों में यह वाक्य होते रहते हैं ।ऑस्ट्रेलिया में भी एशिया मूल, के कई विद्यार्थियों, को चलती बस से उतारा गया। उनको कई अन्य तरह से तिरस्कृत कर पुनः अपने देश लौट जाने को मजबूर किया गया। ये सब मुख्य आकर्षण करता है की सामान्य चीज यह है कि हमारे रक्षक पुलिसकर्मी भी इस भेदभाव के ऊपर नहीं है। एक अमेरिकी पुलिस सर्वे के मुताबिक, नागरिकों को पुलिस वालों को तापमान 0-100 डिग्री सेंटीग्रेड के अनुसार ठंड व गर्म स्वभाव जनता के साथ की रेटिंग देनी थी। जिसमें सफ़ेद मूल वालों ने करीबन 80 डिग्री का वोट किया कथा अफ़्रीकी मूल वालों ने 40 डिग्री। आप अंतर देख सकते हैं!
यह विरोध अब विश्व विरोध बन चुका है, यूरोप के इंग्लैंड और फ्रांस इस में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। जिसमें सबसे बड़ी मांग है कि पुलिस की बर्बरता व जिस्मानी बेरहमी पर कड़ी रोक लगाई जाए। खेल जगत में भी इसकी कड़ी निंदा की गई है, टेनिस के मशहूर खिलाड़ी रोजर फेडरर व रफेल नडाल ने नस्लभेद के खिलाफ अपना विरोध जताया, जोकोविच ने अपने इंस्टाग्राम पर “ब्लैक लाइवस मैटर” नाम पर संदेश दिया साथ ही अन्य महिला खिलाड़ी मारिया शारापोवा व नाओमी ओसाका ने भी फ्लोएड की मौत पर दुःख व्यक्त किया। उन्होंने अपने सोशल मीडिया पर कई बार कई पोस्ट डालें ।
एक सिक्के के दो पहलू होते हैं इस विरोध ने एक हिंसक मोड़ ले लिया है जिसमें मासूमों की हत्या व खुलेआम भरी दुकाने व बाज़ार लूटे जा रहे हैं, साथ ही कोविड-19 का विस्फोटक ( सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ गई हैं) खतरा बनता जा रहा है। इस मामले में अमेरिकी प्रेसिडेंट, डॉनल्ड ट्रंप ने कहा है, “शूटिंग इफ लूटिंग कंटिन्यू”, साथ ही उन्होंने आर्मी को शांति बनाने की व्यवस्था का ऑर्डर दे दिया है। आर्मी ने शांति से प्रदर्शन करने वाले विरोधियों का साथ देते हुए कुछ कदम सड़कों पर चलकर व अपने घुटने पर बैठकर एक्या भाव दिखाया। इंग्लैंड की गृहमंत्री प्रीति पटेल का मानना है कि कई विरोधियों ने पुलिसवालो व पुलिस के परिवार वालों को निशाना बनाकर उन पर हमला कर रहे हैं, जिससे अराजकता फैल रही है।
कोविड-19 ने मनुष्य को दिखा दिया कि वह कितना तुच्छ है, परंतु उसकी मानसिकता को बदलने में न जाने कितने वर्ष लगेंगे, नित कई विद्रोह व मासूमों की जान जाएगी, जो अभी भी नसल व जाती प्रजाति के भेदभाव पर अटकी हुई है। -सुमन नांरग