दिखावे की राजनीति बंद कर ईमानदार पहल करें
भारतीय लोकतंत्र में आजकल एक नए तरह के चलन या रिवाज पैदा हो गया है। जो काम जिसका है वो काम वो न करके कोई दूसरा करने लगा है। कैसे लगता है जब कोई एक दूसरे के कार्यो में हस्तक्षेप करें। पर अब ऐसा ही होता है। कार्यपालिका के रहनुमा न्यायपालिका की भूमिका का निर्वहन कर रहे है और कार्यपालिका के ही कर्ताधर्ता न्यायपालिका को अपने हिसाब से चलाने का कुत्सित प्रयास करने लगे है।
दरअसल यहां बात कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे द्वारा पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद प्रदेश सरकार की जवाबी कार्रवाई के संदर्भ में हो रही है। कानपुर के चौबेपुर में हुई मुठभेड़ में शहीद हुए पुलिस कर्मियों की शहादत का बदला लेने के लिए योगी सरकार के आदेश पर कानपुर प्रशासन ने कुख्यात अपराधी विकास दुबे के घर को गिराने के साथ कार्रवाई शुरू कर दी है।
शनिवार को प्रशासन की एक टीम ने बिकरू गांव पहुंचकर विकास दुबे के किलेनुमा घर को गिरा दिया है। महंगी-महंगी कारें व गाड़ियों को तहस-नहस कर दिया है। जेसीबी, ट्रैक्टर सहित अनेक कृषि उपकरणों को मलबे में तब्दील कर दिया है।
अब सवाल उठता है कि क्या राज्य सरकार द्वारा पुलिस के सहयोग से इस तरह की जवाबी कारवाही को जायज ठहराया जा सकता है। आप इस बात पर आपत्ति उठा सकते है कि एक हिस्ट्रीशीटर के साथ इस तरह की ही कार्रवाही को अंजाम न दिया जाए तो फिर किस तरह से दिया जाना चाहिए।
बेशक आपका जवाब यहां यही हो सकता है लेकिन यह सही और उचित नही है। सच तो है कि हर काम हर काम को अंजाम देने के लिए एक कानूनी प्रक्रिया होती है। उसके लिए अलग-अलग संस्थाएं होती है। मसलन कार्यपालिका का काम कानून और नीति नियम बनाना है उसे अमल में लाने का काम न्यायपालिका का है। क्या यहां सरकार ने अपनी बिगड़ी साख को पटरी पर लाने के लिए न्यायपालिका के काम और उसके अधिकारों पे हस्तपेक्ष नही किया है।
कहने का मतलब है कि जिस काम को अंजाम सरकार को देना चाहिए था उसे तो नही दिया और न्यायपालिका का काम करने को आतुर दिखी। ये सब अच्छे से जानते है कि एक अपराधी जब अपराध करके भागता है तो उसके अपने भी न्यायिक अधिकार होते है। इस मामले मेें कार्यपालिका की बजाय न्यायपालिका को अपना धर्म निभाने दिया जाता तो बेहतर होता है।
सच तो यह है कि धारा 82 व 83 के तहत कानूनी कार्रवाही की जानी चाहिए थी न कि सरकार को सीधे न्यायपालिका के काम में दखल देना चाहिए था। जब सब काम सरकार ही कर ले तो फिर न्यायपालिका की जरूरत ही क्या रह जाती है। फिर प्रदेश के तमाम न्यायालयों में तालाबंदी कर देना चाहिए।
खैर, कोई बात नही लेकिन जिस बात का सरोकार आम इंसान से है वह यह है कि किसी भी अपराधी की प्रॉपर्टी को सरकार को सीधे नुकसान पहुंचाने का अधिकार नही है। असल में इस मामले में न्यायिक प्रक्रिया को अपना कर उसकी प्रॉपर्टी को कुर्क किया जाना चाहिए था, ताकि उसको परमानेंट आर्थिक नुकसान पहुंच सके। देखा जाए तो योगी सरकार ने इस प्रक्रिया को अमल में ना लाकर विकास को फायदा पहुंचाने की नीति पर ही काम किया है।
ये सब जानते है कि आजकल हर वस्तु का बीमा होता है। जिस तरह से नई-नई कारों, ट्रेक्टर व जेसीबी सहित अन्य वस्तुओं को क्षतिग्रस्त किया गया है वह सब बीमित ही होगी। और इस बात कि क्या ग्यारंटी की जितना भी सामान क्षतिग्रस्त किया गया वह सब विकास दुबे के नाम पर ही बीमित हो। गर नही हुआ और हुआ भी तो नुकसान तो आम इंसान के पैसे का ही होगा न। बीमा कंपनी से जो हरजाना दिया जाएगा वो पैसा किसका है। वह तो आम जनता का ही है। इस तरह से देखा जाए तो योगी सरकार ने उस हिस्ट्रीशीटर को ही मदद की है।
सच तो यह है कि इस तरह की कार्रवाही करके योगी ने अप्रत्यक्ष रूप से विकास दुबे की मदद को तरजीह दी है। गर योगी सरकार न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार काम करती तो हो सकता है उसे आर्थिक नुकसान पहुंचता। इस केश में सरकार का स्वंय न्यायालय बन जाना किसी षडय़ंत्र का ही परिचायक दिखाई देता है।
दरअसल, विकास दुबे को सजा दिलाने के मामले में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नियत में ही खोट दिखाई देती है। इस मामले में सबसे पहला सवाल तो यही खड़ा होता है कि क्या विकास दुबे सरकार की दरियादिली और उसके रहमोकरम के बिना इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे सकता था। जब ये मोस्ट वांटेड विकास अपराध के सहारे अपना साम्राज्य खड़ा कर रहा था तब सरकार या उसकी कोई भी सुरक्षा व जांच एंजेसी क्या कर रही थी। क्या योगी सरकार को विकास के असामाजिक कारनामों की कानों- कान खबर तक नही लगी। गर नही लगी तो क्या यह कानून व्यवस्था का फैलियर नही है। और गर लगी भी तो सरकार ने उस पर क्या अमल किया।
सच तो यही है कि विकास को सीधे-सीधे सरकार का प्रश्रय था। किसी नेता या सरकार के संरक्षण के बिना कितने से कितना बड़ा ही गुंड़ा या अपराधी क्यों न हो, इतना बड़ा कदम तो उठा ही नही सकता है। पुलिसकर्मियों को मरवा देना कोई नानी -दादी का खेल नही है। जब पुलिस विकास के घर में दबिश देने गई तो उसके अंदर इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि वे कानून के रखवालों को ही अपना निशाना बना कर मौत के घाट उतार दे। वो भी एक-दो-तीन नही बल्कि पूरे के पूरे आठ पुलिसकर्मी। इसमें एक ड़ीएसपी लेवल के अधिकारी भी है। पुलिसकर्मियों को मरवा देना कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल तो नही है।
बता दे कि विकास के गांव में कोई परिंदा भी पर नही मार सकता था, ये किसी और का नही बल्कि स्वंय विकास का ही कहना है। दंभ में चूर विकास लोगों से भी कहता रहा है कि पंडितजी के गांव में सिर्फ सेना ही घुस सकती है। गांव में विकास का घर किसी किले से कम नही था। उसका मकान हर तरह की सिक्योरिटी से लैस है। जेल की तरह दीवारें हैं। इन पर कांटेदार तारों से घेराव है। गांव के मकान में 50 से अधिक सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। दीवारों की ऊंचाई तीस से चालीस फीट है। दीवारों पर कटीले तारों की घेराबंदी से यहां किसी का दाखिल होना आसान नहीं है, अगर कोई दाखिल हो भी जाए तो उसका पकड़ा जाना तय है। व्यवस्था ऐसी कि परिंदा भी पर मारे तो विकास को इसकी खबर हो जाए।
विकास ने कानपुर के अलावा कई अन्य शहरों में करोड़ों की जमीनें कब्जा रखी हैं। अरबों की संपत्ति बनाई है। उसके पास लग्जरी कारें हैं। घर में लाखों के फर्नीचर व लग्जरी इलेक्ट्रॉनिक सामान हैं। कुल मिलाकर वह गांव में लग्जरी लाइफ जीता रहा है। विकास जब प्रदेश में इतना नंगा नाच, नाच रहा था तब योगी क्या गहरी निंद सो रहे थे या जानबुझ कर उसे प्रश्रय दे रहे थे।
अब जब एक हिस्ट्रीशीटर ने योगी को सीधे चैलेंज किया है तो सरकार की जान पर बन आई है। जिस तरह से उसने कानून को धत्ता बता कर पुलिस वालों को खुले आम हत्या कर दी तब कहीं जाकर विकास का यह कृत्य योगी के लिए साख का सवाल बन गया है। विकास की इस गुंड़ागर्दी ने योगी के राज में लॉ एण्ड़ ऑर्डर की स्थिति को भी धरातल पर लाकर सामने रख दिया है। जब सीधे साख पर बन आई तो विकास को पकडऩे के लिए पूरे प्रदेश में पचास से अधिक टीमें पिछले 24 घंटों में उतार दी है। विकास के करीबियों से पूछताछ की जा रही है। प्रदेश की सीमाओं को सील कर सघन तलाशी अभियान चलाया जा रहा है।
क्या इसे हम योगी का दिखावा मात्र करार नही दे सकते हैै। अब धुल में लठ्ठ चलाने से क्या मिलना है। ये तो जगजाहिर था कि विकास हिस्ट्रीशीटर है। फिर क्यों वक्त रहते योगी ने उस पर दंड़ात्मक कार्रवाही नही की। अब पचास हजार का ईनाम घोषित करने से क्या होता है। सुना है कि इस मुठभेड़ में चौबेपुर एसओ विनय तिवारी की भूमिका को संदिग्ध मान कर आईजी कानपुर ने उन्हें तत्काल प्रभाव से सस्पेंड करने का ऑर्डर भी जारी कर दिया है। एसटीएफ की एक टीम भी इस मुठभेड़ के संबंध में विकास के करीबियों से पूछताछ कर रही है। कॉल डिटेल के आधार पर 12 संदिग्धों को हिरासत में ले लिया गया है। खबरें तो ये भी सामने आ रही है कि पूछताछ की आड़ में विकास के बुढ़े मां-बाप को परेशान भी किया जा रहा है। पिता रामकुमार दुबे को घर के बाहर निकालकर घर को गिराया गया।
अंचल में चर्चाएं तो ये भी है कि इन सबके बीच विकास सरकार की नाक के नीचे से नेपाल फरार होने की जुगत में है। हालाकि, इस खबर की आशंका के चलते ही लखीमपुर खीरी जिले की पुलिस को अलर्ट कर दिया है। इस संबंध में लखीमपुर खीरी की एसपी पूनम ने मीडिय़ा को बताया है कि नेपाल बॉर्डर पर अलर्ट कर दिया गया है। यहां नेपाल से जुड़ी 120 किमी की सीमा है, चार थाने हैं, हर जगह फोटो चस्पा कर दी गई है। एसएसबी के अधिकारियों से बात हो गई है। जिले के बॉर्डर पर भी अलर्ट है और जांच की जा रही है।
लेकिन अब इन सबसे होना जाना क्या है। असल कलई तो खुल कर सामने आ ही गई है। लगता है कि योगी को शायद विकास के ऐसे ही किसी कृत्य या घटनाक्रम को अंजाम देने का इंतजार था, शायद इसलिए उसे छूट दी जा रही थी। अब जनता के बीच दिखावे की राजनीति के लिए कुछ भी किया जाए लेकिन सच से पर्दा तो उठ चुका है। सच तो यही है कि जिन नागों को दुध पिलाओगे वही नाग अब तुमको ढसेगें।
-संजय रोकड़े
नोट- लेखक देश के अनेक समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में अपनी सेवाएं दे चुके है। एक दशक से अधिक समय से पत्रकारिता से जुड़े है। वर्तमान में द इंडिय़ानामा पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चलाते है।