Wednesday, November 27, 2024
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प्रतिभाओं का हनन–एक चर्चा

हमारे देश में प्रतिभाओं की भरमार है किंतु विडम्बना यह है कि प्रतिभाएं कराह रही है कई कई कुरीतियों, सरकारी नीतियों, समाज में व्याप्त विसंगतियों, राजनैतिक दखलंदाजी, दबाव, अनैतिक व्यवहार, दुराचार, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी व भाई-भतीजावाद के अनुचित दबाव से। यह उन प्रतिभाओं व हमारे देश समाज के लिए शुभ संकेत नीं है। दुर्भाग्यशाली हैं हम कि स्वार्थ व स्वान्तः सुखाय की अति के वशीभूत हो इन विसंगतियों को आंख मूंदकर स्वीकार कर रहे है, अपनी अंतरात्मा की अनसुनी करते हुए इसे अपने स्तर पर उचित भी ठहरा रहे हैं।
सबसे पहली विडम्बना देखिए कि किसी विशेष सामाजिक उद्देश्य-दुर्बल, पिछड़ी जाति की समता- को लेकर बनाई गई समयबद्ध सरकारी सुविधाजनक रोजगार आरक्षण व्यवस्था की उद्देश्य प्राप्ति व समय सीमा समाप्त हो जाने के उपरांत भी वह व्यवस्था राजीनीतिक व सियासी हथकंडों में फंसी समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही।कोई भी सरकारी तंत्र सत्तामोह या कहें निहितस्वार्थी सामाजिक विरोध के चलते यह कदम उठाने से कतरा रही है। जबकि सरकारी रोजगार में यह विषमता आज पूर्णतयः समाप्त ही नहीं हो गयी है बल्कि अब तो इसने सामान्य प्रतिभाओं का अतिक्रमण तक कर लिया है। प्रारम्भिक स्तर से उच्च स्तर तक सरकारी सुविधाएं प्राप्त यह वर्ग अब प्रतिभा हनन की आंख की किरकिरी बनता जा रहा है। इस अतार्किक अनुचित सरकारी व्यवस्था के कारण सामान्य प्रतिभाएं अवसाद ग्रस्त होकर दमित हो रही हैं,समाप्त हो रही हैं।किंतु न तो कोई सामाजिक तंत्र न ही सरकारी तंत्र इस ओर जागरूक है।इस आरक्षण प्रणाली जिसमें प्रतिभा की गुणवत्ता व श्रेष्ठता से समझौता किया गया है, निजी क्षेत्र-जहां किसी भी स्तर की आरक्षण व्यवस्था नहीं है,खुली प्रतियोगिता से चयनित प्रतिभाएं काम करती है- की तुलना में सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली व स्तर पर इसका अंतर स्पष्ट दिखाई देता है।किसी भी स्तर की सरकारी या सामाजिक हठधर्मिता के चलते इस जातिगत, धर्मगत, वर्णगत या लिंगगत आरक्षण व्यवस्था को अनवरत बनाये रखना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। प्रतिभाओं के हित मे, देश व समाज के हित में अब रोजगार,शिक्षा या अन्य किसी भी सुविधा हेतु किसी भी क्षेत्र में यह आरक्षण व्यवस्था नहीं होनी चाहिए।बाबा भीमराव अंबेडकर के नाम पर यह राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्होंने इस व्यवस्था को आजीवन चलाने की बात नहीं की थी। मात्र 10 वर्षों के लिए इसे लागू किया था ताकि सामाजिक विषमता को दूर किया जा सके।आज वह विषमता पूर्णतयः दूर हो गयी है। आज अपने संविधान को बने सत्तर वर्षों से अधिक का समय हो गया है। अब यह व्यवस्था प्रतिभाओं, समाज व देश के लिए घातक हो रही है। इसकी अवधि समाप्त हो चुकी है, इसे बिना किसी उहापोह के हटा देना चाहिए। हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि इस हमें पूर्ण समर्थन करना चाहिए। जीवनभर सुविधाओं भारी आरक्षण व्यवस्था की बैसाखी के सहारे जीने की आदत जहाँ हमारे स्वाभिमान पर कुठाराघात करती है वहीं हमारी निहित क्षमता व सामर्थ्य को भी निम्न दिशा की ओर प्रभावित करती है। प्रतिभा को अवांछित आरक्षण नहीं वांछित सुअवसर मिले, अनावश्यक अनुचित सुविधाएं नहीं समुचित सुरक्षा मिले।हमारा विकास हमारी प्रगति गुणों के ठोस आधार पर हो न कि आरक्षण के समझौते पर टिकी पोली ज़मीन पर।
हम देखते हैं कि समाज में व्याप्त भ्र्ष्टाचार, रिश्वतखोरी इस विसंगति की खाई को और चौड़ा करने का काम कर रहा है। प्रत्येक सरकारी विभाग में नई भर्ती व विभागीय उन्नति में यह इस कदर हावी है कि शायद सरकारी मशीनरी भी इस पर अंकुश लगाने या इसे नियंत्रित करने में असमर्थ है। सेवायोजन रोजगार कार्यालय में शिक्षा- योग्यता के कार्ड बनते हैं। फिर सरकारी विभागों में आवश्यकतानुसार अभ्यर्थी बुलाने व योग्यतानुसार उन्हें लिखित/मौखिक,साक्षात्कारआधारित सेवायोजित करने का विधान है। किन्तु होता क्या है? जिसकी पंहुच है, पहचान है,रुतबा है, दबाव है। चयन की सभी औपचारिकताओं पर वह खरा उतरा है या नहीं, इससे नजर अंदाज कर उसी का काम होता है। इससे सभी मापदंडों पर सफल प्रतिभाशाली अभ्यर्थी जो अपनी योग्यता का दम भरता है, उसकी स्थिति के विषय में विचार करें। वह किस मानसिक पीड़ा से गुजर रहा होगा।
अभी बेसिक शिक्षा परिषद में कस्तूरबा गांधी बेसिक विद्यालय समूह भर्ती कांड का ताजा उदाहरण हमारे समक्ष है। शिक्षा विभाग,जो कि रोजगार का आधार है,में भ्रष्टाचार बेईमानी का इतना बड़ा जाल बिछ सकता है,कल्पना से भी परये है।एक ही अभ्यर्थी के शैक्षिक योग्यता दस्तावेजों के आधार पर अलग अलग नाम से अलग अलग शहरों में अलग अलग लोगो की अध्यापक पद पर नियुक्तियाँ। कैसे संभव है,बुद्धि चकरा जाती है। दिमाग गलत दिशा में कितना चल सकता है, अनुमान लगाना भी मुश्किल लगता है।इतना ही नहीं, भर्तियाँ भी हो गयी, लोगों ने नौकरियां भी सालों सालों की, खूब सरकारी धन अर्जित किया।भले ही हर पाप का भंडाफोड़ तो अंततः होता ही है किंतु व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह तो लग ही जाता है और वास्तविक प्रतिभाओं के साथ तो अन्याय हो ही चुका होता है।उसकी भरपाई तो हो नहीं सकेगी।इसी तरह एक विभाग से दूसरे विभाग में यह अन्याय अत्याचार की कड़ी के तार जुड़े रहते हैं,प्रतिभाएं कराहती रहती है,कभी संभल पाती हैं कभी लड़खड़ा जाती हैं।
इतना ही नहीं माध्यम से उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाऐं भी इस भ्र्ष्टाचार से अछूती नहीं हैं। अभ्यर्थी कोई होता है, अभिलेख किसी और के परीक्षा कोई और दे रहा होता है,साक्षात्कार कोई और दे रहा है, चयन किसी और का होता है और नियुक्ति किसी और की।क्या यह भी संभव है? क्या सरकारी, प्रशासनिक वैधानिक व्यवस्था के समानांतर चल रही यह अवैध बेईमान भ्रष्टाचार की योजना इतनी सुनियोजित है कि दबे पांव चलकर सभी पूर्व नियोजित व्यवस्थाओं का अतिक्रमण कर रही है। यह कैसा मकड़जाल है, कैसा चक्रव्यूह है कि तोड़ा ही नहीं जा पा रहा है।अभिलेखों में हेराफेरी जैसा असंभव काम तो आज चुटकी बजाते हो जाता है।
यह तो हुई शिक्षा रोजगार की बात। अन्य क्षेत्र चाहे क्रीड़ा क्षेत्र हो, राजनीति का क्षेत्र हो, सामाजिक क्षेत्र हो, अभिनय व मनोरंजन जैसी बिंदास दुनियां हो। हर कहीं ऐसा अयोग्य रसूखदार पंहुच वाला सिंडिकेट उपस्थित है जो योग्य प्रतिभाओं को जीने नहीं देता। कही क्षेत्रवाद हावी है तो कहीं जातिवाद। हालिया उदाहरण अभिनय की दुनियां का उदीयमान प्रतिभाशाली अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत है। अपनी प्रतिभा के दम पर टेलिविज़न की दुनियां से नाम कमाने वाला सितारा जब फिल्मी रुपहली दुनियां में भी कदम दर कदम सफलता के झंडे गाड़ने लगा,प्रसिद्धि व प्रगति के सोपान चढ़ने लगा तो पहले से ही सक्रिय भाई- भतीजावाद सिंडिकेट भौचक रह गया।अपने दम पर उन्नति के शिखर छू रहा यह सुशिक्षित,संस्कारित होनहार नौजवान उनकी आंख की किरकिरी बना और उन्होंने उसे इस कदर उपेक्षित किया,अपमानित किया,लांछित किया, नीचा दिखाया कि वह अवसाद ग्रस्त हो गया। उसका भविष्य चौपट कर दिया अंततः वह टूट गया और जिंदगी से ही मुंह मोड़ लिया।
यह तो हाल की घटनाएं है। ऐसी ही न जाने कितनी घटनाएं घट चुकी है और घटने वाली है जो कि हमारी सामाजिक व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है जो अनुत्तरित जी रह जाता है।क्या है हल इन विसंगतियों का,इस बीमार मानसिकता का? क्या यह घटनाक्रम यूँ ही चलता रहेगा या इसका कुछ ऐसा तोड़ निकलेगा कि यह स्थितियां उत्पन्न ही न हों।सब कुछ सुचारू रूप से चले। जो जिस योग्य हो उसको वह मिले। निःसंदेह प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती, स्वयं में सक्षम होती है किन्तु भ्र्ष्टाचार व असंवेदनशील दबाव की अति के समक्ष वह निरीह हो जाती है, संवेदना की गहराइयों में डूबकर कभी कभी समर्पण कर बैठती है।
हमें व हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को आज की स्थितियों की तह में जाकर उसकी पूर्ण विवेचना करनी चाहिए और इसका कोई ठोस निराकरण निकालना चाहिए ताकि यह घातक खेल अब बन्द हो। जब तक इसकी परतें नहीं खुली थी तब तक यह खेल चल रहा था अब जब खुलासा हो गया है तो ऐसी नीति बने की इसकी पुनरावृति न हो। जो नैतिकता का पाठ भूल चुके हैं उनके मनोमस्तिष्क के प्रदूषण को दूर करने के प्रयास हों,उनकी धुलाई हो ताकि वे कुत्सित मानसिकता से मुक्ति पा सके व पुनः इन अनैतिक कार्यों में लिप्त न होकर सुमार्ग पर चले, नैतिकता का पालन करें,अपना व देश-समाज के लिए कल्याणकारी सिद्ध हों। जन-हित, समाज-हित, देश-हित का उद्देश्य लेकर चलना ही हमारा धर्म है और कर्तव्य भी।
लेखिका-कुसुम सिंह