आज के इस आपातकाल दौर में जब आम जनता खुद के पेट की तपिश को ही मिटाने में अक्षम है, तो देश तो दूर की बात है साहेब, उससे उसी की आत्मनिर्भरता के बारें में बात करना बेमानी होगी। जहाँ आम जनता एक तरफ भौतिक तत्वों की मारी है तो दूसरी तरफ अभौतिक तत्व उसे तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर रहे हैं , ऐसे में वह निर्भर बने भी तो कैसे ? कुदरत की माया देखें कहावत है कि आग लगते ही हवा का तीव्र हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही है। जहाँ एक तरफ सब पर भारी कोरोना महामारी ने आम जनता की तीन मुख्य जरूरतें रोटी, कपड़ा और मकान को प्रतिबंधित करने में कामयाब रही, तो वहीं दूसरी तरफ प्रकृति ने ओलों, तूफानों, चक्रवातों व भूकम्पों के द्वारा आम जनता को खूब सताया। इन बेकाबू हो चली आग की लपटों में तेल की आहुति ने आम जनता के वर्तमान को भी निगल लिया ऐसे में भविष्य का निर्माण भला यह करे भी तो कैसे ? पेट्रोल व डीजल तेल की कीमतों में लगातार हो रही तीव्र वृद्धि ने भी आगे आकर आम जनता की मूल वृद्धि में भी आखिरी कील ठोक दी । देश में पिछले एक माह से पेट्रोल और डीजल के दाम जिस रफ्तार से अग्रसर हैं कि आम जनता के उपयोग से मीलों दूर निकल चुकी है। इस तीव्र वृद्धि ने अब तक के सारे रिकार्डों को बौना साबित करते हुए आपातकाल की इस धधकती ज्वाला में तेल की आहुति देने का काम किया है। सूत्रों के मुताबिक आम जनता के पैदावार में वृद्धि कर तेल की इन कीमतों को बराबर किया जाएगा , मगर सवाल यह उठता है कि जब पैदावार के लिए पूँजी ही न हो, इतने महँगे डीजल व पेट्रोल वर्तमान पैदावार को ही न सम्हाल पाए तो फिर भविष्य की आय में वृद्धि का आखिर औचित्य ही क्या साहेब ? हालांकि तेल की कीमतों में दिन-दूनी , रात-चौगुनी हो इस वृद्धि पर गजब के सियासी पैतरे जारी हैं, मगर सवाल यह है कि राजनीति के इस ट्विट-ट्विट टेस्ट मैच से आम जनता की समस्या का क्या औचित्य ? समस्या तो समाधान की इच्छुक है साहेब ! उसे आपके राजनीतिक अखाड़े से क्या मतलब ? इस विपत्ति काल में अर्थव्यवस्था की निगाहें कृषि क्षेत्रों पर टिकी हुई हैं, मगर तेल की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर यह उम्मीद भी बेमानी होगी। क्योंकि तेल की बढ़ती कीमतों ने सीजन के धान की बुआई, रोपाई और खेत की जुताई सभी को प्रभावित किया है, ऐसे में किसान खुद क्या खाएगा और धान की रोपाई में क्या लगाएगा ? इस विषम परिस्थितियों में जाहिर सी बात है कि धान रोपाई का स्तर जरूर बढ़ता, मगर तेल की कीमतों में तेजी से हो वृद्धि धान की रोपाई को जरूर प्रभावित करेगी जिससे अर्थव्यवस्था की उम्मीदों पर पानी फिरना निश्चित है। ऐसे में जब आम जनता ही आत्मनिर्भर नहीं होगी तो देश क्या खाक निर्भर बनेगा ? यही प्रथम स्तरीय आत्मनिर्भरता देश की रीढ़ का करती है, जब यह खुद भौतिक व अभौतिक आपातकाल झेल रही हो तो उससे आत्मनिर्भरता की उम्मीद करना मतलब मन को महज तसल्ली देना ही होगा।
रचनाकार – मिथलेश सिंह ‘मिलिंद’