Wednesday, November 27, 2024
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लोकतंत्र में दलबदल नीति जनता का विश्वास डगमगा रही है

आधुनिक राजनीति में सत्तालोलुप राजनेता जनता की बिल्कुल परवाह किए बिना ही अपनी पार्टी बदल लेते हैं। जनता अपने पसंदीदा दल के नेता को चुनती है लेकिन वो नेता बड़े पद अथवा सत्ता पाने के लिए किसी भी हद्द तक जा सकता हैं।लोकतंत्र में जब जनता अपने प्रतिनिधि का चयन करती हैं तब वह अपने विशेष दल का ध्यान रखकर करती हैं लेकिन जब प्रतिनिधि निर्वाचित हो जाता है और उसके बाद जब वह पार्टी बदल देता है तब तो जनता के साथ एक प्रकार का धोखा हुआ ये मान लेना चाहिए। बहुत सारी परिस्थितियों में जनता अपने क्षेत्र का नेता उसे ही चुनती हैं जिस दल से उनको लगाव होता हैं। लेकिन राजनीति में तो ‘अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता’ वाला स्लोगन हर राजनेता के अंदर स्वतः बैठ ही जाता हैं। यथार्थ में आज राजनीति से नीति शब्द अलग हो चुका है।कभी कभी तो राजनीति ऐसे स्तर पर पहुंच जाती हैं कि ऐसा लगता है जैसे कि कोई नौटंकी करने वाला मंच हो। यथार्थ में राजनीति का परिदृश्य जनता तक कभी भी नहीं पहुंच पाता है क्योंकि राजनेताओं के द्वारा जनता को किसी न किसी मुद्दे पर भटका ही दिया जाता हैं। बड़े अफ़सोस की बात ये है कि बहुत सारे राजनेता किसी आरोप के कारण जैल में होने के बावजूद भी निर्वाचित हो जाते हैं ये कार्य जनता की जागरूकता में कमी के कारण होता है।
अपने देश में जनता अपने प्रतिनिधि की योग्यता की जगह उसकी जाति, धर्म इत्यादि देखती हैं और उसी के आधार पर वोट करती हैं।
हालांकि राजनीति में बहुत सारे ऐसे भी नेता होते हैं जो अपने क्षेत्र में बहुत कुछ करना चाहते हैं लेकिन शीर्ष दबाव की विवशता में हाथ बाँध कर खड़े रहना पड़ता हैं।
भारतीय जनता में ‘श्मशान वैराग्य’ की भरमार हैं, श्मशान वैराग्य मतलब जब हम किसी श्मशान घाट में जाते हैं तब मन में ख्याल आते हैं कि दुनियाँ नश्वर हैं, सभी को एक दिन मरना हैं, इतना दौड़ने से क्या मिलेगा आखिर अंतिम समय तो खाली हाथ ही जाना हैं इत्यादि। पर जब श्मशान घाट से बाहर आते हैं तब वह सब कुछ भूलकर वापस अपने कार्य में लग जाते हैं ऐसा ही भारतीय जनता के साथ होता है, नेता चुनावों के दौरान उन्हें बहुत बड़े बड़े वादे अथवा आश्वासन देते हैं कि आपके हित में सब कुछ कर लेंगे, इतने में जनता उनसे बहुत प्रभावित हो जाती है और उन्हें जीता देती हैं। जनता भी अनायास सबकुछ प्राप्त करना चाहती हैं। आजकल नेताओं के द्वारा स्पष्ट रूप से कानून की अवहेलना की जा रही है जनता के भावनाओं के साथ खेला जा रहा है, स्वार्थपरता के इस दौर में सब अपना अपना फायदा चाहते हैं।
कितनी शर्म की बात की जिस नेता का चुनाव अपने क्षेत्र के भविष्य के लिए करते हैं वहीं कुछ स्वार्थ के कारण बिक जाते हैं। इसी कारण कहीं बार जनता का लोकतंत्र से भी विश्वास डगमगा जाता है।
देश की जनता को ये भी सोचना चाहिए कि जब नेता चुनाव जीतने के लिए लाखों, करोड़ो का खर्च करता हैं तब वह जीतने के बाद आपका भला करेगा या अपने ख़र्च पैसों की वापस भरपाई करेगा?
ईधर राजनीति में भाई- भतीजावाद ने भी गहरी नींव जमा दी, अयोग्य व्यक्ति भी सत्ता के शीर्ष पर अपने पुरखों की वज़ह से बैठ जाता है और प्रतिभा का बहिष्कार कर दिया जाता है। वर्तमान में राजनेताओं की केवल एक ही महत्वाकांक्षा हैं किसी भी तरह सत्ता प्राप्त हो। राजनीति आज अनुशासन की पराकाष्ठा को तोड़ती हुई नजर आ रही है। राजनीति में नैतिकता शब्द अब विसंगतियों में पड़ गया है।
आधुनिकता ने लोगों को राजनीति की प्रत्येक बारीकियों को समझने की सुविधाएं प्रदान की हैं लेकिन कुछ लोग एक ही दल का पुंछ पकड़ कर बैठ जाते हैं प्रत्याशी चाहे कोई भी हो वोट दल को देखकर ही देते हैं, यहाँ पर उन लोगों की मूर्खता प्रकट होती हैं क्योंकि वोट दल को देखकर नहीं अपने प्रत्याशी को देखकर देना चाहिए, यदि प्रत्याशी योग्य नहीं होगा तो आपका विकास कभी भी सम्भव नहीं है।
पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति में दलबदल बहुत तेज़ी से सक्रिय हो चुका हैं, जो जनता की भावनाओं को आहत कर रहा है। भारतीय संविधान भी इसकी भर्त्सना करता हैं लेकिन कुछ सत्तालोलुप बड़ा पद पाने की चाह में अपना दल छोड़कर दूसरे दल में चले जाते है लोकतंत्र में ये बड़े दुःख की बात है। हालांकि कही बार कुछ मजबूरियां भी होती हैं जब दल बदलना पड़ता हैं क्योंकि उनको महसूस होता है कि उसकी प्रतिभा को अनदेखा किया जा रहा है अथवा उनका ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है तब दल बदलना बिल्कुल सही साबित होता है।
आजकल की राजनीति के परिदृश्य को देखकर लगता है कि राजनीति में प्रवेश करने के लिए भी कुछ विशेष स्तर अथवा परीक्षा का प्रबंध किया जाना चाहिए, और योग्य व्यक्तियों को ही राजनीति के उच्च शिखर पर जाने दिया जाना चाहिए। लेकिन नेपोटिज्म से ग्रस्त राजनीति प्रतिभा को छिपा देती हैं उन्हें आगे आने का अवसर भी नहीं दिया जाता हैं।
इसी कारण भारत के विकास का रथ आगे नहीं बढ़ पा रहा है। दल बदल इतना आसान हो चुका है कि आज कोई भी नेता अपने कुछ विधायक साथियों को लेकर सरकार के ख़िलाफ़ हो जाता है और सरकार पर बहुमत पास कराने का दबाव डाल दिया जाता है, हालाँकि ये सभी कार्य बहुत सोच समझकर किए जाते हैं जिसमें सत्तारूढ़ अथवा दबाव समुह भी सम्मिलित होते हैं। कानून के ज़रिए भी दल बदल के विरोध प्रदर्शन किए हैं, सरकार भी इसको समाप्त करना चाहती है।
दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हाल ही में कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर सरकार बना लेते हैं जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी। ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव आम लोगों हेतु बनाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ता था। दल-बदल विरोधी कानून ने सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपनी सत्ता की स्थिरता के बजाय विकास संबंधी अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रेरित किया है।
कानून के प्रावधानों ने धन या पद लोलुपता के कारण की जाने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और अनियमित चुनाव के कारण होने वाले व्यय को नियंत्रित करने में भी मदद की है।
साथ ही इस कानून ने राजनीतिक दलों की प्रभाविता में वृद्धि की है और प्रतिनिधि केंद्रित व्यवस्था को कमज़ोर किया है।
लेकिन आज की स्थितियों को देखकर लगता है कि व्यक्ति अपने लिए पद हेतु किसी भी कानून को मानने के लिए तैयार नहीं है। राजनेताओं की इसी महात्वाकांक्षी नीति के कारण जनता का लोकतंत्र से विश्वास डगमगा रहा है।
कवि दशरथ प्रजापत पथमेड़ा, जालोर (राजस्थान)