शहरों की भीड़ में रहते हुए हम जैसे संवेदना शून्य होते चले जाते हैं। वहां सुबह मोबाइल अलार्म से होती है, यहां मुर्गे की बांग से। वहां हवा एसी की होती है, यहां आम के पेड़ की। वहां आसमान धुंध से भरा होता है, यहां पक्षियों की उड़ान से।
– प्रियंका सौरभ
शहर की चमचमाती सड़कों, ऊंची इमारतों और बंद खिड़कियों के पीछे जब हम जीवन को व्यस्तताओं की कैद में जी रहे होते हैं, तब कहीं दूर गांवों की बाल्कनियों में जीवन अब भी खुले आकाश के नीचे साँस ले रहा होता है। वहां सुबहें अब भी चिड़ियों की चहचहाहट से शुरू होती हैं, दोपहरें कोयल की तान से सजी होती हैं, और रातें उल्लुओं की टेर में गूंजती हैं। यह लेख उन्हीं स्मृतियों और अनुभवों की यात्रा है — एक गांव की बाल्कनी में बैठकर महसूस की गई उस दुनिया की, जो कभी हमारी थी, लेकिन जिसे हमने शहर के शोर में कहीं खो दिया।
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