Friday, March 29, 2024
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जिनकी आँखे खुली नहीं, वो कहते ‘रात’ है……..

satendra shukla
सतेन्द्र कुमार शुक्ल

मेरा ख्याल है कि ‘कबूतर और बिल्ली’ वाली कहावत तो सब जानते ही होंगे। अगर नहीं भी जानते हैं तो उसका भाव यह है- कि यदि आप किसी भी समस्या को सम्मुख देखकर, उससे किनारा करने का प्रयास करें, तो वह खुद-ब-खुद सामने से नहीं जाएगी, बल्कि उसे हटाने के लिए हमें सतत प्रयास करना पड़ेगा। गीता में भगवान ने भी अर्जुन से यही कहा था कि- हालांकि मैं सब जानने वाला हूँ। फिर भी-ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः। अर्थात मैं हर व्यक्ति को उसके कार्य के लिए प्रयुक्त तो करता हूँ लेकिन कार्य उसे ही करना पड़ता है। निष्कर्षतः अपना काम स्वयं ही करना पड़ता है। समस्याओं से मुँह चुरा लेने मात्र से समस्या भागती नहीं है, बल्कि वह और बढती है।
इसी संदर्भ में यदि हम देखें तो कई समस्यायें ऐसी हैं, जिनकी तरफ से हम इतने ज्यादा उदासीन हैं कि हमारा ध्यान कभी उधर जाता ही नहीं। जाता भी है तो हम उस पर बात ही नहीं करना चाहते हैं। ऐसा ही एक मुद्दा है ‘श्रीराम मंदिर’। आखिर हम इतने पवित्र मुद्दे में एक-दूजे से इतने मतभेद क्यूँ बनायें हुए हंत ? क्यूँ नहीं साधारण तरीके से बिना किसी जोर-जबरदस्ती के इसे निपटाना चाहते हैं ? क्यूँ हमेशा यह मुद्दा आते ही हमारे मन में एक डर और भय का माहौल क्रीयेट हो जाता है? दरअसल यह डर, लज्जा,संकोच एक दो दिन का नहीं है। यह सालों से प्रायोजित तरीके से हमारे मनोमष्तिष्क में बैठाया गया है, इतिहास की गलत जानकारी देकर। एक बात और, यदि आपको लगता है कि हर लड़ाई में सिर्फ नेताओं द्वारा ही आग भड़काई जाती है। तो ध्यान दीजिये, आप गलत हैं। इस लड़ाई में आग लगाने का काम नेताओं की बजाय चाटुकार इतिहासकारों ने किया है।
मशहूर पत्रकार ‘अरुण शौरी’ ने अपनी किताब ‘जाने-माने इतिहासकारः उनके छल छद्म और कार्यविधि’ नामक अपनी किताब में साफ- साफ लिखा है कि-अयोध्या मुद्दा बहुत पहिले ही सुलझ गया होता यदि उसमें मिले खुदाई के अवशेषों को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देखा गया होता। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नही हुआ। रोमिला थापर, बिपिन चन्द्रा, प्रो.धनेश्वर मंडल, शीरीन मौसवी, डीएन झा, आर एस शर्मा, प्रो. सुप्रिया वर्मा आदि सभी इतिहासकारों ने माहौल खराब करने की कोशिश के चलते ऐसा किया और इसमें इनका निजी स्वार्थ भी शामिल था। वह स्वार्थ पूरा भी हुआ। जिसके तहत इन्हें सालों तक इतिहास अनुसन्धान परिषद में कई अन्य-अन्य पदों पर आसीन किया गया। इन्हें वहाँ से कई प्रकार के प्रोजेक्ट मिले। जिनमें से कुछ को तो इन्होने आज तक पूरा नही किया। आराम से सरकार का पैसा लेते रहे और इस बीच अपनी-अपनी यूनिवर्सिटियों के पठन-पाठन से भी दूर रहे और वहाँ से भी सरकार का पैसा डकारतें रहे। दर असल इनके दावों की पोल तब दुनिया के सामने एकदम खोखली हो गई, जब एएसआई के क्षेत्रीय निदेशक (उत्तर क्षेत्र) रहे श्री के के मोहम्मद ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा ‘नज्न एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) में सीधे तौर पर रोमिला थापर और इरफान हबीब पर बाबरी मस्जिद विवाद को गलत ढंग से प्रस्तुत करने का आरोप में लगाते हुए लिखा है कि- 1976-1977 में जब प्रो. बी लाल की अगुआई में वहां पर खुदाई हुई थी तो उसमें भी वहाँ मंदिर के साक्ष्य पाए गए थे। मोहम्मद के इस मत से इतिहासकार एमजीएस नारायन ने भी सहमती जताई है। बावजूद इसके इन तमाम ‘वामपंथी इतिहासकारों’ ने यह बात कभी नहीं स्वीकार की, कि वहां पर कभी किसी मंदिर का ध्वंस हुआ था। इन्होने जानबूझकर इतिहास का विरूपण किया। यह जानते हुए भी कि इतिहास का विरूपण एक गंभीर अपराध है। के के मोहम्मद ने अपनी किताब में खुदाई स्थल पर ‘14 स्तंभों वाले आधार मिलने की बात स्वीकारी है।’
के के मोहम्मद अकेले ऐसे विद्वान नहीं है जिन्होंने यह स्वीकार किया है कि वहाँ मंदिर था, बल्कि उनसे बहुत पहले भी मिर्जाजान ने अपनी किताब ‘हदिकाए शहदा’ में इसका जिक्र किया है। हाजी मोहम्मद हसन ने भी 1878 में लिखी अपनी किताब ‘जियाए अख्तार’ में राममंदिर और सीता की रसोई तोड़े जाने की बात कही है। इसके आलावा मौलवी अब्दुल करीम आदि विद्वानों ने भी अपने ग्रंथों में इस बात को स्वीकार किया है कि वहाँ मंदिर था। इस्लामी मामलों की जानकार ‘रामिश सिद्दीकी’ ने अपने एक लेख में लिखा है कि- अगर इतिहास के आईने में देखें तो 1528 में मीर बाँकी ने श्बाबरी मस्जिद बनवाई थी। मीर बाँकी उस समय अयोध्या के गवर्नर थे। चूँकि वह स्लामिक विद्वान् नहीं थे लिहाजा वह समझ नहीं पाए कि इस्लाम में अगल-बगल धार्मिक स्थल नही बनाये जाते और दो धार्मिक स्थलों के बीच एक निश्चित दूरी होनी होनी ही चाहिए।
अतः अदालत ने जो सुलह का सुझाव दिया है वह काफी हद तक सही तो हैं। पर कुछ सवाल हैं- क्या ये तथ्यविहीन लोग अभी फिर से माहौल खराब करने की कोशिश नहीं करेंगे ? क्या ये कभी अपनी बंद आँखें खोलने के लिये राजी होंगे? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जो तथ्यों और प्रमाणों से हारने के बावजूद नहीं मान रहें हैं क्या वह कोर्ट के बाहर सुलह को तैयार होंगे ? शायद नहीं, अदालत की ‘मध्यस्तता’ के बिना तो बिल्कुल नही। अतः मेरे विचार से निश्चित रूप से अदालत को मध्यस्तता तो करनी ही चाहिए और तथ्यों के आधार पर फैसला देना चाहिए, नहीं तो यह मुद्दा भी एक मुहावरा बन कर ही रह जायेगा। रही बात राममंदिर की, तो मेरा मनना है कि राम मंदिर सिर्फ एक मंदिर नहीं है। वह कई लोगों की आस, उम्मीद, श्रद्धा, पूजा, विश्वास, प्रेम न जाने क्या-क्या है। और जो धूर्त लोग बाबर और राम की तुलना करते हैं। उनके लिए हरिओम पवार जी की ये पंक्तियाँ कि-
बाबर हमलावर था मन में गढ़ लेना, इतिहासों में लिक्खा है ये पढ़ लेना।
जो तुलना करते हैं बाबर राम की, उनकी बुद्धि होगी किसी गुलाम की।।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं)