Wednesday, January 22, 2025
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लेख/विचार

कम्युनिकेशन कैसे करें…?

क्रेडिट रोल-सरश्री तेजपारखी ‘तेजज्ञान फाउंडेशन’
व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, ऑफिस हो या घर, स्वयं के साथ हो या दूसरों के साथ, सभी जगहों पर दिखनेवाली एक कॉमन समस्या है, ‘मिस कम्युनिकेशन’ यानी गलत तरीके से संवाद करना।
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि कम्युनिकेशन का क्या मतलब है? बातचीत के दौरान एक इंसान सामनेवाले को जो संदेश देना चाहता है, वह उसे मिल जाए और उससे अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो तो वह सही कम्युनिकेशन है। जीवन के सभी क्षेत्रों में आज सही संप्रेषण (संवाद) न करने की समस्या दिखाई देती है। साधारणतः बातचीत के दौरान लोग बताना कुछ और चाहते हैं और सुननेवाला कुछ अलग ही समझता है। इसलिए कम्युनिकेशन का पहला एवं महत्वपूर्ण पहलू है- ‘पूरा और सही सुनना, न समझ में आए तो फिर से पूछना।’
पहला पायदान- कम्युनिकेशन का पहला पायदान है, ‘सुनना’। विचारों की भीड़ में खोया हुआ इंसान सही तरह से सुन नहीं पाता। साथ ही किसी से कम्युनिकेशन करते वक्त इंसान उसकी छवि अपने मन में बनाता है और उसके अनुसार सुनता है। इसलिए वह पूरा नहीं बल्कि अपने विचारों के अनुसार जितना उसे आवश्यक लगता है, उतना ही सुनता है। सही कम्युनिकेशन न होने का यह पहला कारण है।
अपना कम्युनिकेशन सुधारने के लिए सामनेवाले की बातें वर्तमान में रहते हुए पूरी सुनें और उसमें अपने विचारों की मिलावट न करें। सही और उत्तम कम्युनिकेशन के लिए केवल बोलने की नहीं बल्कि दिल से सुनने की कला विकसित करें। वरना आधा सुनकर लोग अकसर कह देते हैं, ‘मैं समझ गया’ मगर वे नहीं समझे होते हैं। ऐसे वक्त हमें सामनेवाले से पूछ लेना चाहिए कि उसने क्या समझा। इसे कहा गया है सही और पूर्ण कम्युनिकेशन।

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युद्ध स्मारकों को जातीय चश्में से न देखा जाए

नया साल हर तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद आ जाता है लेकिन 2018 के पहले दिन को हम इस लिहाज से अलग कह सकते हैं कि इस दिन ने देश के दो युद्ध स्मारकों को भी जातीय बहस का हिस्सा बना डाला। 200 वर्ष पहले 500 महारों की ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी ने हजारों पेशवा सैनिकों को धूल चटाकर मराठा शासन को इस देश से खत्म किया था। उन वीर लड़ाकों की याद में अंग्रेजों ने वैसा ही युद्ध स्मारक भीमा कोरेगांव में ‘जय स्तंभ’ (विक्ट्री पिलर) के नाम से बनाया जैसा देश की राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के नाम से बनवाया गया है। यह अंग्रेजों की परम्परा रही है। ऐसे विजय के प्रतीक देश के अन्य स्थानों पर आज भी मिल जाएंगे। दिल्ली के नजदीक नॉएडा के गाँव छलेरा में भी ऐसा ही एक युद्ध स्मारक है जिसे स्थानीय लोग ‘विजय गढ़’ कहते हैं। युद्ध में शहीद सैनिकों के गाँव के आस-आस ब्रिटिश हुकूमत ऐसे स्मारकों का निर्माण करवा दिया करती थी।
1 जनवरी 1818 को छोटी सी महार सैन्य टुकड़ी द्वारा अनुशासित, प्रशिक्षित और सुसज्जित मानी जाने वाली विशाल पेशवा सेना पर प्राप्त किए गए विजय के भारत के दलित समाज के लिए अनेक मायने हैं। 19वीं सदी के पेशवा राज में दलितों की सामाजिक स्थिति को समझे बिना, कोरेगांव विजय का दलितों के लिए महत्त्व को नहीं समझा जा सकता है भारतीय इतिहास का यह वही कलंकित दौर था जब जाति विशेष के लोगों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू बंधा होता था। जब जाति को छिपाना अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता था। पेशवा शासकों द्वारा इंसानों के एक समुदाय को अछूत घोषित कर उनपर लम्बे समय से शोषण और भेदभाव किया जा रहा था।

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डूबते सूरज की विदाई नववर्ष का स्वागत कैसे

पेड़ अपनी जड़ों को खुद नहीं काटता, पतंग अपनी डोर को खुद नहीं काटती, लेकिन मनुष्य आज आधुनिकता की दौड़ में अपनी जड़ें और अपनी डोर दोनों काटता जा रहा है।
काश वो समझ पाता कि पेड़ तभी तक आजादी से मिट्टी में खड़ा है जबतक वो अपनी जड़ों से जुड़ा है और पतंग भी तभी तक आसमान में उड़ने के लिए आजाद है जबतक वो अपनी डोर से बंधी है।
आज पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण करते हुए जाने अनजाने हम अपनी संस्कृति की जड़ों और परम्पराओं की डोर को काट कर किस दिशा में जा रहे हैं? ये प्रश्न आज कितना प्रासंगिक लग रहा है जब हमारे समाज में महज तारीखघ् बदलने की एक प्रक्रिया को नववर्ष के रूप में मनाने की होड़ लगी हो।
जब हमारे संस्कृति में हर शुभ कार्य का आरम्भ मन्दिर या फिर घर में ही ईश्वर की उपासना एवं माता पिता के आशीर्वाद से करने का संस्कार हो,उस समाज में कथित नववर्ष माता पिता को घर में छोड़, होटलों में शराब के नशे में डूब कर मनाने की परम्परा चल निकली हो।
जहाँ की संस्कृति में एक साधारण दिन की शुरुआत भी ब्रह्ममुहूर्त में सूर्योदय के दर्शन और सूर्य नमस्कार के साथ करने की परंपरा हो वहाँ का समाज कथित नए साल के पहले सूर्योदय के स्वागत के बजाय जाते साल के डूबते सूरज को बिदाई देने में डूबना पसंद कर रहा हो।
यह तो आधुनिक विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि पृथ्वी जब अपनी धुरी पर घूमती है तो यह समय 24 घंटे का होता है जिससे दिन और रात होते हैं, एक नए दिन का उदय होता है और तारीखघ् बदलती है। जबकि पृथ्वी जब सूर्य का एक चक्र पूर्ण कर लेती है तो यह समय 365 दिन का होता है और इस काल खण्ड को हम एक वर्ष कहते हैं। यानी नव वर्ष का आगमन वैज्ञानिक तौर पर पृथ्वी की सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण कर नई परिक्रमा के आरंभ के साथ होता है।
वो परिक्रमा जिसमें घ्तुओं का एक चक्र भी पूर्ण होता है।
सम्पूर्ण भारत में नववर्ष इसी चक्र के पूर्ण होने पर विभिन्न नामों से मनाया जाता है।

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सवा लाख से एक लड़ावाँ ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ

चिड़ियाँ नाल मैं बाज लड़ावाँ
गिदरां नुं मैं शेर बनावाँ
सवा लाख से एक लड़ावाँ
ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ
सिखों के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह द्वारा 17 वीं शताब्दी में कहे गए ये शब्द आज भी सुनने या पढ़ने वाले की आत्मा को चीरते हुए उसके शरीर में एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं।
ये केवल शब्द नहीं हैं, शक्ति का पुंज है, एक आग है अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, भय के विरुद्ध, शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध, निहत्थे और बेबसों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध।
कल्पना कीजिए उस आत्मविश्वास की जो एक चिडिया को बाज से लड़ा सकता है, उस विश्वास की जो गीदड़ को शेर बना सकता है, उस भरोसे की जिसमें एक अकेला सवा लाख से जीत सकता है। और हम सभी जानते हैं कि उन्होंने जो कहा वो करके भी दिखाया।
मुगलों के जुल्म और अत्याचारों से टूट चुके भारत में एक नई शक्ति का संचार करने के लिए उन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में एक सभा का आयोजन किया। हजारों की इस सभा में हाथ में नंगी तलवार लिए भीड़ को ललकारा, इस सभा में कौन है जो मुझे अपना शीश देगा?
गुरु जी के ये शब्द सुनकर पूरी सभा में से जो पांच लोग अपने भीतर हौसला लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए आगे आए इन्हें गुरु गोविंद सिंह जी ने पंज प्यारे का नाम देकर खालसा पंथ की स्थापना की और नारा दिया वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दी फतेह।

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दम तोड़ती इंसानियत का रुदन हम कब सुन पायेंगे साहब

‘‘अपना दर्द तो एक पशु भी महसूस कर लेता है लेकिन जब आँख किसी और के दर्द में भी नम होती हो, तो यह मानवता की पहचान बन जाती है।’’
मैक्स अस्पताल का लाइसेंस रद्द करने का दिल्ली सरकार का फैसला और फोर्टिस अस्पताल के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का हरियाणा सरकार का निर्णय, देश में प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिए इस दिशा में किसी ठोस सरकारी पहल के रूप में दोनों ही कदम बहुप्रतीक्षित थे।
इससे पहले इसी साल अगस्त में सरकार ने घुटने की सर्जरी की कीमतों पर सीलिंग लगाकर उसकी कीमत 65 प्रतिशत तक कम कर दी थी।
इसी प्रकार दिल के मरीजों का इलाज में प्रयुक्त होने वाले स्टेंट की कीमतें भी सरकारी हस्तक्षेप के बाद 85 प्रतिशत तक कम हो गई थीं। एनपीपीए पर मौजूद डाटा के मुताबिक अस्पताल इन पर करीब 654 प्रतिशत तक मुनाफा कमाते थे। लेकिन अब एडमिशन चार्ज, डाक्टर चार्ज, इक्विपमेंट चार्ज, इन्वेस्टिगेशन चार्ज, मेडिकल सर्जिकल प्रोसीजर, मिसलेनियस जैसे नामों पर अब भी मरीजों से किस प्रकार और कितनी राशि वसूली जाती है, फोर्टिस अस्पताल का यह ताजा केस इसका उदाहरण मात्र है।
चिकित्सा के क्षेत्र में इस देश के आम आदमी को बीमारी की अवस्था में उसके साथ होने वाली धोखाधड़ी और ‘लापरवाही’ पर ठोस प्रहार का इंतजार आज भी है।
वैसे तो हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की दशा किसी से छिपी नहीं है लेकिन जब भारी भरकम फीस वसूलने वाले प्राइवेट अस्पतालों से मानवता को शर्मसार करने वाली खबरें आती हैं तो मानव द्वारा तरक्की और विकास के सारे दावों का खोखलापन ही उजागर नहीं होता बल्कि बदलते सामाजिक परिवेश में कहीं दम तोड़ती इंसानियत का रुदन भी सुनाई देता है।
एक व्यक्ति जब डाक्टर बनता है तो वो मानवता की सेवा की शपथ लेता है जिसे ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ’ कहते हैं, वो अपने ज्ञान के बल पर ‘धरती का भगवान’ कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है, लेकिन जब वो ही मानवता की सारी हदें पार कर दे तो इसे क्या कहा जाए?

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ब्रह्मोस मिसाइल से बढ़ेगी आक्रामक क्षमता

-डाॅ0 लक्ष्मी शंकर यादव
22 नवम्बर को ब्रहमोस मिसाइल का सफल परीक्षण करके भारत ने एक और नया मील का पत्थर हासिल कर लिया है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस दिन भारत ने दूसरी बार सुखोई – 30 एमकेआई सुपरसोनिक लड़ाकू विमान से इस मिसाइल का सफल प्रक्षेपण किया है। वर्तमान समय में इस मिसाइल को थल, जल एवं आसमान में कहीं से भी छोड़ा जा सकता है। यह मिसाइल जमीन के नीचे परमाणु बंकरों, कमांड एंड कंट्रोल सेंटर्स और समुद्र के उपर उड़ान भर रहे लड़ाकू विमानों को निशाना बनाने में सक्षम है।
सुखोई-30 एमकेआई के साथ जोड़कर ब्रह्मोस का पहली बार परीचण 25 जून 2016 को किया गया था। यह परीक्षण एचएएल के हवाई अड्डे पर किया गया था। तब 2500 किलोग्राम वजन के प्रक्षेपास्त्र के साथ उड़ान भरने वाला भारत पहला देश बन गया था जो कि विमानन इतिहास में एक यादगार दिन बना हुआ है। अब इस नई सफलता के बाद सुखोई विमानों में ब्रह्मोस मिसाइलों का लगा दिया जाएगा जिससे वायु सेना की मारक क्षमता काफी बढ़ जाएगी। इस परीक्षण का उद्देश्य सुखोई के जरिए हवा से जमीन पर मार करने में सक्षम बनना है। अब भारतीय वायु सेना पूरी दुनिया की अकेली ऐसी वायु सेना होगी जिसके पास सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल प्रणाली होगी। अब वायु सेना दृश्यता सीमा से बाहर के लक्ष्यों पर भी हमला कर सकेगी। लगभग 40 विमानों में यह प्रणाली लगाए जाने की योजना है।

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हदिया जैसी लडकियां लव नहीं, जिहाद का शिकार होती हैं

परिवर्तन तो संसार का नियम है। व्यक्ति और समाज के विचारों में परिवर्तन समय और काल के साथ होता रहता है लेकिन जब व्यक्ति से समाज में मूल्यों का परिवर्तन होने लगे तो यह आत्ममंथन का विषय होता है।
अखिला अशोकन से हदिया बनी एक लड़की आज देश में एक महिला के संवैधानिक अधिकारों और उसकी ‘आजादी’ की बहस का पर्याय बन गई है।
दरअसल आज हमारा देश उस दौर से गुजर रहा है जहाँ हम हर घटना को कभी अपनी अभिव्यक्ति तो कभी अपनी स्वतंत्रता, कभी जीने की आजादी तो कभी अपने संवैधानिक अधिकारों जैसी विभिन्न नई नई शब्दावलियों के जाल में उलझा देते हैं। और प्रतिक्रियाएँ तो इतनी त्वरित और पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती हैं कि शायद अब हमें पहले यह सोचना चाहिए कि समाज में अपने हकों की बात करते करते कहीं हम इतने नकरात्मक तो नहीं होते जा रहे कि मानव सभ्यता के प्रति अपना सकरात्मक योगदान देने का कर्तव्य लगभग भूल ही चुके हैं?
सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या हमारे देश में एक लड़की अपने पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती?
क्या वो अपने पसंद का जीवन नहीं जी सकती?
क्या वो अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन नहीं कर सकती?
ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जो एक सभ्य समाज के लिए उचित भी हैं।
लेकिन ऐसे सवाल पूछने वालों से एक प्रश्न कि क्या ये तब भी ऐसे ही तर्क देते अगर हदिया उनकी खुद की बेटी होती?
क्या हम अपनी बेटियों को हदिया बनाने के लिए तैयार है?
जबकि प्रश्न यह उठना चाहिए कि क्यों एक लड़की ने विद्रोह का रास्ता चुना?
क्यों एक मामला जो कि पारिवारिक था कानूनी और सामाजिक मुद्दा बन गया?
क्या वाकई में यह मामला ‘लव’ का है या फिर एक लड़की किसी लड़के के लिए ‘जिहाद’ का मोहरा भर है?

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‘‘एड्सः रोग के प्रकोप संग सामाजिक तिरस्कार का दंश’’

इसे आधुनिक जीवन के खुलेपन का अवदान कहें या रोग द्वारा विज्ञान को पहली बार परास्त करने की दास्तान कि दुनिया भर के डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बाद भी एक बीमारी ऐसी है जिसकी अभी तक कोई औषधि विकसित नहीं हो पाई है। इस रोग का नाम है ‘एड्स’। एक ऐसी भयंकर और प्राणघातक बीमारी कि जिसका नाम सुनते हीं हम सब दहशत, उद्वेग, डर, घृणा और घबराहट से भर उठते हैं। दरअसल एच.आई.वी नामक इस बीमारी का वायरस एक बार शरीर में प्रवेश करने के बाद शरीर के प्रतिरक्षक पिंड व्यवस्था को तोड़ना शुरू करता है। जैसे-जैसे प्रतिरोधक क्षमता जीर्ण होती जाती है, वैसे-वैसे शरीर में अनेक प्रकार के संक्रमण उत्पन्न होते जाते हैं। ‘एड्स’ एच.आई.वी संक्रमण की अंतिम अवस्था है जिसमें रोगी की प्रतिरक्षक पिंड व्यवस्था पूर्णरूपेण ध्वस्त हो जाती है और वह बेहद हीं छोटी, साधारण-सी बीमारी से भी नहीं लड़ पाता, अत्यंत दुर्बल होकर सदैव घोर रूप से थका हुआ महसूस करता है। इस अवस्था में पहुँचने के बाद एच.आई.वी रोगी व्यक्ति तीन-चार वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहता। वायरस जनित अन्य बीमारियों और इस बीमारी में एक विशेष फर्क है कि जहाँ अन्य बीमारियाँ कुछ दिनों या कुछेक हफ्तों में अपने लक्षण प्रकट कर देती है वहीँ एड्स का वायरस बिना किसी प्रत्यक्ष लक्षण के महीनों / वर्षों तक शरीर के अन्दर चुपचाप टी-सेल में छुपा पड़ा रहता है, रोग से अनजान रोगी ऊपर से न केवल पूर्णतया स्वस्थ दिखता है, बल्कि वह स्वस्थ महसूस भी करता है। इसके विषाणु आठ से नौ वर्ष में विकसित होते हैं, जबकि इस अवधि के दौरान संक्रमित व्यक्ति बीमारी के वायरस को न जाने कितने लोगों में हस्तांतरित कर उन्हें भी संक्रमित कर चुका होता है। इसके वायरस के द्रुत गति से फैलने और रोग के महामारी का स्वरुप धरने के पीछे भी यही कारण है। इलाज शुरू होने से पहले हीं देर हो चुकी होती है जबकि वक्त रहते इलाज शुरू कर देने से रोग की उग्रता को काफी हद तक काबू में रखा जा सकता है, एक रिसर्च के मुताबिक भारत में 2.1 मिलियन लोग एच.आई.वी से प्रभावित हैं (2015) तथा दक्षिण अफीका और नाईजीरिया के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा एड्स प्रभावित देश है।

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भाजपा के लिए खतरा हो सकते हैं बाबा !

वैसे तो फिलहाल बाबा रामदेव की छवि एक कारोबारी की है जिनका पिछले कुछ सालों से एकमात्र लक्ष्य है हर्बल उत्पाद व उपभोक्ता वस्तुओं की अपनी कंपनी पतंजलि के मुनाफे को आसमान तक पहुंचाना।
बाबा इस कंपनी के ब्रांड एंबेसडर हैं और उनके करीबी सहयोगी बालकृष्ण इस कंपनी का संचालन करते हैं। पतंजलि उत्पादों के प्रचार के लिए योग गुरु अपने राजनीतिक संपर्कों का इस्तेमाल करने में माहिर हैं। यही कारण है कि कुछ ही वर्षों में यह कंपनी देश व विदेश की नामी-गिरामी कंपनियों को टक्कर देने लगी है। पर फिलहाल की बात अलग है। 
 सूत्रों के अनुसार पतंजलि ने देश के सभी छह लाख गांवों में शाखाएं खोलने वाली है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह। शाखाएं भारत स्वाभिमान खोलेगा। गांवों में संघ की शाखाओं की तर्ज पर प्रस्तावि इन कैंपों में योग-प्राणायाम की ट्रेनिंग तो दी ही जाएगी। युवाओं को नैतिक शिक्षा का ज्ञान भी दिया जाएगा। इससे करोड़ों लोग जुड़ेंगे। पर इन शाखाओं के जरिए कहीं बाबा जी अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षा तो नहीं पूरी करने वाले हैं।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कुछ समय पहले भाजपा शासित राज्यों से केंद्र के गरीब समर्थक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कहा था। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस सबक का मतलब यह निकाला कि पतंजलि के स्वदेशी उत्पाद को बढ़ावा देना ही उनका गरीब समर्थक कार्यक्रम है। तब से पतंजलि के उत्पादों के प्रचार की ऐसी होड़ लगी कि असम, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा से लेकर छत्तीसगढ़ तक सभी भाजपा के मुख्यमंत्रियों का यह एकसूत्रीय अभियान बन गया। भाजपा शासित राज्य बाबा रामदेव के प्रोजेक्ट को प्राथमिकता देने में जुटे हैं। पतंजलि ट्रस्ट को सस्ती दरों पर या मुफ्त में जमीन मुहैया कराई जा रही है, करों में छूट दी गई है और सबकुछ बीजेपी के स्वदेशी एजेंडे के नाम पर हो रहा है। पतंजलि के उत्पादों में वृद्धि को बाबा रामदेव ‘आर्थिक स्वाधीनता अभियान’ का नाम देते हैं। 

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मेरा भारत महान …!!!

दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश भारत और यहाँ के निवासी महासर्वश्रेष्ठ। यहाँ की मान्यता है कि ईश्वर जब भी अवतार (जन्म) लेता है तो वो भारत में ही लेता है क्योंकि यहाँ की भूमि पावन - पवित्र है। यहाँ सबसे अधिक भगवान पाये जाते हैं और सभी बड़े शक्तिशाली होते हैं। इनके भक्त आये दिन आपस में लड़ - लड़ कर कट - मर जाते हैं पर इनके भगवान कभी इन्हें बचाने - समझाने या बीच - बचाव भी कराने नहीं आते । आश्चर्य की बात तो यह है कि यहाँ हर रोज एक - दो नये भगवान पैदा हो जाते हैं। यहाँ भगवानों का निवास रेलवेस्टेशनों पर और पटरियों के बीच में भी पाया जाता है। भारतीय भगवान लखपती नहीं, करोड़पति नहीं, अरबपति नहीं खरबपति और इससे भी ज्यादा अमीर हैं, लेकिन आप विश्वास कीजिये कि यहाँ गरीबी भी इतनी ज्यादा है कि लोगों को कूड़े के ढेरों में कुत्ता - बिल्ली, सुअरों के साथ खाते हुए देखा जा सकता है। अब कुछ अंग्रेज वंशज मुझपर भौंकेगे कि हमने तो कभी नहीं देखा। मैं उनसे कहना चाहूंगा कि पहले वो अपनी आंखों पर से अमीरी के घमण्ड वाला चश्मा उतारें फिर सबकुछ साफ - साफ दिखाई देगा। खैर यह सब छोड़िये अब बाकी मुद्दों पर बात करते हैं। भ्रष्टाचार कोई बुरा शब्द नहीं है। भारत में तो सारे के सारे भगवान ही भ्रष्टाचारी हैं फिर यहाँ के खूंसट नेताओं, अधिकारीयों की बात ही करना बेकार है। अब देखिये यहॉ ऐसा कोई मठ - मंदिर, मस्जिद, चर्च या गूरूद्वारा नहीं जहाँ चढ़ावा - बढ़ावा न होता हो द्य यहाँ लोगों में होढ़ मची रहती है कि वह सबसे ज्यादा चढ़ायेगा ताकि उसकी मनोकामना पहले पूरी हो जाये। कुलमिलाकर भगवान भी भ्रष्टाचारी हैं फिर दल्लों की तो बात ही करना बेकार है। अब कुछ लोग दलील देंगे कि भगवान कभी किसी से कुछ नहीं मांगते। मेरा जवाब - भईया सीधे - सीधे तो यहाँ के मंत्री - संत्री, अधिकारी भी कुछ नहीं मांगते। देखिये पिछले दिनों मैंने एक इण्टरव्यू दिया, मैं इंटरव्यू में पास भी हो गया, किसी ने मुझसे इशारों - इशारों में चालीस हजार का चढ़ावा चढाने को कहा मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। सूची लगी पर मेरा नाम नहीं था, कारण... चढ़ावा न चढ़ाना ही रहा होगा।
  

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