1000 और 500 की नोटबंदी के बाद दो तरह के लोग देखने को मिले, एक वे जो यह सोचकर खुश थे कि अब गरीब और अमीर एक जैसे हो जाएँगे और दूसरे वे लोग जिनके लिए यह घोषणा किसी सदमे से कम नहीं थी। नोटबन्दी का यह फैसला जाली नोटों के कारोबार और कालेधन पर नकेल कसने के लिए लिया गया। भारतीय अर्थव्यवस्था में जाली नोटों की समस्या एक बहुत पुरानी बीमारी है, सरकारें इससे पार पाने के लिए हमेशा से प्रयत्न करती रहीं हैं और जाली नोटों के कारोबारी तू डाल-डाल मैं पात-पात की तर्ज पर सरकार को चकमा देकर अपने तोड़ निकालते रहे हैं। यह सच है कि इन जालियों की कमर तोड़ने के लिए काफी समय से एक बेहद कठोर और निष्ठुर कदम उठाने की दरकार भी थी पर ये भी सच है कि इस सब में गेंहूँ के साथ साथ घुन भी पिस गया।
जीवनभर कपड़े सिलकर, दूध बेचकर या अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए पूरी ईमानदारी से एक-एक पैसे बचाकर जिन्होंने दस-बीस लाख रूपये जोड़े थे उनके सर पर मानों आसमान टूट पड़ा। सबसे पहली बात तो यह कि हमारे समाज का नियम हीं ऐसा है कि जिनके पास पैसे नहीं हैं, उन्हें नीची निगाहों से देखा जाता है। इस कारण से सबलोग कुछ न कुछ बचाकर रखते हीं हैं। उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया जिन्हें बेटियों की शादी करनी है क्योंकि आज भी एक आम हिन्दुस्तानी पति ससुराल से मिलने वाले पैसों के लालच से बाहर नहीं निकल पाया है। सिर्फ कानून बनाने से क्या होता है, दहेज-निरोध के कानून को ऐसे लोग अपने पैरों के नीचे रख कर चलते हैं स उन गृहणियों का कलेजा टूक-टूक हो गया जिन्होंने अपने पतियों से छुपाकर अपनी संतानों के भविष्य के लिए कुछ जोड़कर रखे थे, बहुत जागरूकता के बाद भी आज भी सारे पति एक से नहीं होते। अतिसम्पन्न ऊँचे तबके के लोगों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह समाज में अच्छे सकारात्मक आदर्श प्रस्तुत करें पर जिस समाज में नोटों की इस भयानक अफरा तफरी के बीच, जहाँ अधिकतर लोगों के पास सब्जी खरीदने को भी पैसे की किल्लत हो गई, उच्चवर्ग की ओर से पाँच सौ करोड़ की शादी के आयोजन का आदर्श प्रस्तुत किया गया तो वैसे उच्चवर्गीय समाज से मध्यम या निम्नवर्ग किस आदर्श की अपेक्षा रख सकता है ….। बैंकों के बाहर लोगों के कतारों का हजूम अब भी यथावत है पर अभी तक इन कतारों में कोई अरबपति तो नजर नहीं आया। पेट काटकर, इच्छाओं की अनदेखी कर भविष्य के लिए बचत करने वालों में हताशा गहराती जा रही है। जिन्होंने अपने पैसे खा, उड़ा दिए वह तसल्ली में हैं पर जिन्होंने मन के अनेक अरमानों को मारकर भविष्य के लिए पैसे बचा रखे वे, तकलीफ में आ गए हैं। यह सब देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि लोकतंत्र के हक में कदम उठाना गलत नहीं पर ईमानदारों, लाचारों को इसका खामियाजा न भुगतना पड़ जाए। वैसे तकलीफ में तो हेराफेरी से धन बनानेवाले, करोड़ों दबा रखने वाले सूदखोर, जमाखोर भी आ गए हैं, अगर उन्होंने जिस-तिस विधि से अपनी करेन्सियों को सुरक्षित नहीं कर लिया होगा तो। पैसों को ठिकाने लगाने की कवायद में जो जितने होशियार थे उतने सुरक्षित तरीकों से पैसों को ठिकाने लगा दिया और लगातार लगाए जा रहे हैं। आम निम्न व मध्यवर्ग को प्रधानमंत्री के लगातार आश्वासन से उम्मीद की जो किरण बंधती है वह उस समय बिखर जाती है जब सुनने में आता है कि समर्थों की ओर से कितने हीं भूले-बिसरे गरीब रिश्तेदारों, नौकरों, सेवकों के अकाउंट में ढाई-ढाई लाख जमा कराकर धन को सुरक्षित किया जा रहा है। जिन्होंने हजारों हजार करोड़ रूपए जमीन के नीचे दबा रखे थे वे लगातार गरीबों के जनधन खातों के जरिये इन्हें बदल रहे हैं …..। यह भी तो पैसों की हीं ताकत है। कुछ लोग बैंकों में ब्याजदर कम होने की बात से खुश हो रहे थे पर फिलहाल तो आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट हीं देखने में आएगी। वैसे तो जैसा कि सुनने में आ रहा है सबसे बड़ी गाज तो राजनीतिक दलों पर भी गिरी होगी क्योंकि चुनावों में जो कालेधन की नदियाँ बहती हैं उससे कौन नहीं वाकिफ है। बड़े क्रांतियों की शुरुआत में परेशानियाँ तो आती हैं, हो सकता है कि कल को सबकुछ बहुत अच्छा हो जाए पर फिलहाल तो आम लोग संशय में पड़े हुए हैं, सबकुछ अनिश्चित सा लग रहा है सबकी निगाह संसद की कार्यवाही पर है स हिन्दुस्तान मंश आज भी लोग आज का बचत कल का सुख के सिद्धान्त पर जीते हैं। नन्हीं चींटियाँ भी भविष्य को ध्यान में रखते हुए खादान्न्य का संग्रह करके रखती हैं स यही जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टि भी है।
आम जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि, जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का कर्तव्य है कि वह आम जनता के हित को सर्वोपरि रखे। अब देखना ये है कि छोटी मछलियाँ हीं फँसती हैं या बड़े मगरमच्छों के लिए भी कुछ होता है या समरथ को नहीं दोष गुसाई का विस्तार हीं देखने को मिलता है। Written By: Kanchan Pathak, Mumbai