तुम मेरे उर के सागर हो
मै प्रेम दीवानी सरिता हूँ
तुम गीत गजल रस छंद मेरे
मै तुम में बहती कविता हूँ
पर्वत से तो निकल पड़ी हूँ
मिलन की आस लिए मन में
जाने कब तक पड़े भटकना
कंकड़ पत्थर के वन में
विरह वेदना की अग्नि में
पल – पल जलती वनिता हूँ
एक तुम्हें पाने की खातिर
छोड़ के सब कुछ आई हूँ
पथ के शूल पाँव के छाले
साथ मै अपने लाई हूँ
विषम घड़ी में लक्ष्य साधकर
भेदने वाली अमिता हूँ
दो पाटों के बीच मे अविरल
कल – कल करती बहती हूँ
हरीभरी मरुभूमि को करती
पग – पग ठोकर सहती हूँ
प्रियतम का सानिध्य ढूँढती
घट – घर फिरती रमिता हूँ
अनामिका सिंह ‘अविरल’
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