Thursday, November 21, 2024
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भारतीय नारी के उत्पीड़न का समाधान

हर साल वूमेन डे पर स्त्री विमर्श लिखते हुए सोचती हूॅं अगले साल स्त्री स्वतंत्रता पर लिखूॅंगी। लेकिन विमर्श का समाधान होता ही नहीं और अगले साल भी वही प्रताड़ना का मंज़र पन्नों पर उकेरना पड़ता है। जानें कब करवट लेगी ज़िंदगी कमज़ोर शब्द से उलझते थकी महिलाओं की, सदियों से चले आ रहे स्त्री विमर्श पर अब तो पटापेक्ष हो।
‘उत्पीड़न की आदी मत बन पहचान अपनी शख़्सियत को, ए नारी तू संपूर्ण अधिकारी है खुलवा सारी वसीयत को’
भले ही आज हम खुद को खुले विचारों वाले आधुनिक समाज का हिस्सा समझे पर साहित्य के पन्नों को ‘स्त्री विमर्श’ विषय शायद बहुत पसंद है, तभी तो सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते आज भी कहीं न कहीं महिलाएँ उत्पीड़न का शिकार होती रहती है। क्यूँ कोई इस विषय वस्तु के समापन और समाधान की दिशा में कदम नहीं बढ़ाता।
आने वाली आधुनिक पीढ़ी की लड़कियाँ याद रखो। महिलाओं के त्याग, हुनर, सहनशीलता और समझदारी को याद रखना परिवार, समाज और इतिहास ने कभी न जरूरी समझा है, न कभी समझेगा। ‘निगरानी, दमन, बंदिशें या असमानता की चक्की में पीसते सदियों से स्त्री कमज़ोर ही कहलाई है।’
लड़कियाँ अपना कर्तव्य निभाते परिवार के लिए ज़िंदगी खर्च करते लड़की से औरत बन जाती है। दो सिरे को जोड़ने की जद्दोजहद से उलझते उम्र के मध्याह्न में ही बुढ़ी दिखने लगती है, पर उसके त्याग की गाथा फ़र्ज़ की खूँटी पर टाँग दी जाती है। अब तो संसार रथ की सारथी के हर हक को उनके नाम कर दो।
हकदार नहीं किसी वसीयत की, न दो बोल प्रशंसा की। न मायके में वारसदार होती है, न ससुराल की मिल्कियत में हिस्सेदार होती है। स्त्री के कर्मों की कथनी उसकी रीढ़ पर छपी होती है, जिसे कोई नहीं पढ़ता। तुम चुप रहो, तुम्हें कुछ नहीं आता या ष्बोलने से पहले सोच लिया करोष् जैसे ताने उल्हानों के वाग्बाणों से छलनी होते उम्र काटने की आदी हो जाती है।
समाधानः अब वक्त आ गया है बेटी को मायके की प्रॉपर्टी में भी बेटों के बराबर की हिस्सेदार समझी जाए और ससुराल में भी बहू को अपना स्त्री धन पहले ही सौंप दिया जाए। ताकि कोई भी परिस्थिति में लड़की को किसीका मोहताज न रहना पड़े। शादी में ताम-जाम कम कीजिए उन पैसों को बेटी के नाम का बैंक एकाउंट खुलवाकर बेटी का भविष्य सुरक्षित कर लीजिए।
बहु बीमार हो तो उसे आराम करने मायके आना पड़ता है। और समाज कहता है, ‘हमारी बहू तो हमारे लिए बेटी जैसी है’ क्यूँ बहूओं के लिए ससुराल वालों के दिल में बेटी के प्रति जो ममता उमड़ती है वो भाव नहीं आता? हर माँ-बाप को बेटियों के भविष्य की चिंता सताती रहती है। जिस माँ-बाप की बेटी ससुराल में दुःखी होती है उनकी रातों की नींद और दिन का सुकून छीन जाता है। बेटियों के माँ-बाप ईश्वर से एक ही कामना करते है, भले बेटी की सौगात दें पर बेटी की लकीरों में सुख और खुशियों की बौछार लिखकर देना। बेटी हर माँ-बाप के जिगर का टुकड़ा होती है। बेटी का उदास चेहरा पिता का हदय छलनी कर देता है।
हर माँ-बाप से निवेदन है कि बेटियों को पढ़ा, लिखाकर इतनी काबिल बनाओ की उसे किसीका मोहताज न होना पड़े। हर परिस्थिति से लड़ना सिखाईये और हर कला में माहिर बनाईये। बेटियाँ दो कूलों का गौरव है। बेटी के जन्म पर मुँह हरगिज़ न बनाईये बेटी को उसके हर अधिकार और हक का उपहार दीजिए। समाज से प्रार्थना है बेटियों का, महिलाओं का सम्मान कीजिए। बेटे के समान लालन-पालन करके बेटियों को उनके जन्म लेने पर गौरवान्वित कीजिए तभी समानता दिखेगी।
‘हर महिला को आज़ाद ज़िंदगी जीने का पूरा अधिकार है।’
‘मत सहो बेवजह प्रताड़ना की जलन जागो औरतों अपनी क्षमता को पहचानों, नहीं हो तुम सज़ा की अधिकारी, संसार रथ की सारथी हो, कर दो असमानता की आँधी का हनन’
सम्मान की अधिकारी कुछ औरतें समाज के डर से और लोक निंदा के भय से अपनी स्वाधीनता की बलि चढ़ाते, ऐसे दुराचारी पति या पुरुष के हाथों दमन सहती रहती है, जिनको स्त्रियों के सम्मान से कोई लेना-देना ही नहीं होता। पत्नी को पैरों की जूती समझने वाले पति की अंध भक्ति महज़ इसलिए करती है की पति है। अपने जीवन के बारे में सोचना चाहती ही नहीं। उनको पता ही नहीं होता की हज़ारों राहें और असंख्य मौके उनके स्वागत में तैयार है बस हिम्मत करके कदम आगे बढ़ाने की जरूरत होती है। कोई भी महिला कमज़ोर नहीं, अगर लाचारी, बेबसी वाली मानसिकता से बाहर निकले तो जीवन सार्थक बना सकती है। पर नहीं समाज की थोपी गई कुछ रवायतों का अनुसरण करते प्रताड़ना सहते यूँहीं जीवन बीता देती है। आज नहीं तो कल पति सुधर जाएगा इस आस में श्मशान में बुझ चुकी राख में चिंगारी तलाश करती रहती है। एक बार खुद पर यकीन करके उस नर्क से निकलने की कोशिश तक नहीं करती। सहो नहीं समाधान ढूँढो।
कुछ लड़कियों के ज़हन में माँ-बाप एक ग्रंथी बाँध देते है कि जहाँ लड़की की डोली उतरती है, वहीं से अर्थी उठनी चाहिए। शादी के बाद पति का घर ही लड़कियों की असली जगह होती है और चार लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे वाली मानसिकता बच्चियों की ज़िंदगी खराब कर देती है। समाज क्या हमारे घर में दो बोरी अनाज डालने आता है? या मुसीबत में साथ खड़ा रहता है? जो समाज के डर से बेटियों की बलि नरपिशाचों के हाथों चढ़ा दें। क्यूँ चुटकी सिंदूर के बदले पूरी ज़िंदगी दाँव पर लगानी है?
हर गाँव और शहर में नारी सुरक्षा संस्थाएँ होती है, सारे कायदे कानून स्त्रियों के हक में है अपने अधिकारों का उपयोग करो। अगर आप कोई काम जानती है, आपमें कोई हुनर है तो आत्मनिर्भर बनकर दिखाओ। निर्वहन कैसे होगा इस डर की वजह से तामसी मानसिकता सहते ज़िंदगी मत काटिए। दीये की उम्र लंबी करने के लिए दमन का तेल सिंचकर उसकी रोशनी कम मत कीजिए। हर महिला को आज़ाद ज़िंदगी जीने का पूरा अधिकार है। क्यूँ शादी को गुलामी की जंजीर समझकर ढ़ोते रहना है।
हर कुछ दिन बाद कहीं न कहीं महिलाओं के दमन के किस्से पढ़ने सुनने को मिलते है। कहीं मारपिट, कहीं बलात्कार, कहीं एसिड अटेक, कहीं बच्चियों का शोषण तो कहीं बेटियों को जलाने की वारदातें। आख़िर कब ख़त्म होगी मर्दों के हाथों महिलाओं के शोषण की घटनाएँ? शायद कभी नहीं, क्यूँकि समाज को इस मुद्दे से कोई लेना-देना ही नहीं। हर घटना कुछ दिन कोहराम मचाकर शांत हो जाती है।
इसका समाधान यही है कि अब महिलाओं को जागरूक होने की जरूरत है। सबसे पहले महिलाओं से निवेदन है एक दूसरे को समझो, बहूओं को बेटियों की तरह रखिए, सास शब्द की गरिमा बढ़ाईये। जब तक स्त्री ही स्त्री को समझने का प्रयास नहीं करेगी, मर्दों से अपेक्षा रखना फ़िज़ूल है। खुद को इतना तराशो, इतना काबिल बनाओ की मर्द नाम के हिटलर का मोहताज ही न होना पड़े। अपनी बेटियों के लिए एक ऐसी राह का निर्माण कीजिए कि, उनके जीवन में दमन या प्रताड़ना शब्द का सामना करने की नौबत ही न आए।
अगर अब भी नहीं जगी महिलाएँ तो आने वाली कई सदियाँ ऐसे ही स्त्री विमर्श से साहित्य के पन्नें सजते रहेंगे। ‘प्रताड़ना का प्रतिकार करो।’
ज़माना चाहे कितना ही बदल जाए कुछ लोगों की गंदी मानसिकता कभी नहीं बदलती। आज भी महिलाएं हर क्षेत्र में उत्पीड़न का शिकार होती रहती है।
सिर्फ़ दैहिक बलात्कार ही नहीं होते महिलाओं के साथ मन को और आत्मा को झकझोर देने वाले हादसे कहीं न कहीं होते ही रहते है। स्कूल, घर, ऑफिस, बस, ट्रेन से लेकर राह चलते कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं। कुछ मर्दों के लिए महिलाएं इंसान नहीं भोगने की चीज़ मात्र होती है। मौका मिलते ही झपट लेते है।
जज्यादातर कामकाजी महिलाओं पर किसी सहकर्मी या वरिष्ठ अधिकारी द्वारा यौन संबंध बनाने के लिए अनुरोध किया ही जाता है, या फिर उस पर ऐसा करने के लिए दबाव डाला जाता है। महिला की शारीरिक बनावट, उसके वस्त्रों आदि को लेकर भद्दी या अश्लील टिप्पणियां की जाती है। कामोत्तोजक कार्य-व्यवहार या अश्लील हरकतें और कामुक सामग्री का प्रदर्शन किया जाता है। द्विअर्थी टिप्पणी और महिला की इच्छा के विरुद्ध यौन संबंधी कोई भी अन्य शारीरिक, मौखिक या अमौखिक व्यवहार किया जाता है।
यदि गलती से किसी महिला के अपने वरिष्ठ या सह कर्मचारी से किसी समय निज़ी संबंध रहे हों लेकिन वर्तमान में महिला की सहमति न होने पर भी उस पर आंतरिक संबंध बनाने के लिए दबाव डाला जाता है।
एसएमएस या फोन पर दोहरे अर्थ की बातें करके मानसिक दमन किया जाता है और अलग-अलग तरह के प्रस्ताव रखें जाते है, अगर महिला उनके प्रस्ताव को ठुकरा देती है तो उसके काम में रुकावटें खड़ी करके इतनी हद तक परेशान किया जाता है कि लड़कियों के नौकरी छोड़ने तक की नौबत आ जाती है और उनसे आगे बढ़ने के अवसर छिन जाते है। कई बार तो पीड़िता जान देने को भी मजबूर हो जाती है या कई बार उनकी प्रमोशन के लिए उनके शरीर को ही कारण बना दिया जाता है, क्योंकि वो लड़की है इसलिए उसकी काबिलियत नजरअंदाज़ कर दी जाती है।
पर हर महिला को ज्ञात होना चाहिए कि यौन उत्पीड़न की गंभीरता को देखते हुए महिलाओं को कानूनी सहयोग देने और उनके उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न निवारण, निषेध एवं निदान अधिनियम लागू किया गया है, जिसका फ़ायदा उठाते महिलाएं ऐसे दरिंदों के ख़िलाफ़ कारवाई कर सकती है।
सहने की आदी मत बनिए, ऐसे लोगों की पहली गंदी हरकत पर ही हिम्मत करके उसके ख़िलाफ़ आवाज उठाकर अपनी सक्षमता का परिचय दे दीजिए, पुलिस में शिकायत दर्ज़ करवा दीजिए या किसी महिला मुक्ति मोर्चा संस्था से संपर्क करके दमन करने वालों को सबक सिखाईये, ताकि भविष्य में आपको तंग करने से पहले सौ बार सोचें।
आज वक्त आ गया है बेटियों को शारीरिक और मानसिक रुप से सक्षम बनाने का। दस बारह साल की उम्र में ही सारी समझ देते बेटी को लड़ने की तालीम देनी चाहिए। सही और गलत स्पर्श की पहचान देनी चाहिए और काम से या ट्यूशन में जा रही लड़कियों को कुछ स्प्रे और छोटा सा हथियार भी अपनी हैंड बैग में रखना चाहिए, ताकि कोई भी मुश्किल परिस्थिति में अपनी सुरक्षा में काम आ सकें। बाकी कोई चमत्कार नहीं होगा, न कोई लेखक मसीहा बनकर आएगा। स्त्री विमर्श जैसा कलंक साहित्य के पन्नों से उस वक्त मिटेगा जिस दिन परिवार पर जी जान लूटाने वाली नारियॉं खुद अपना मूल्य समझेगी, अपने लिए गरिमा मय जीवन जीना सिखेगी और सत्तात्मक समाज से अपना सम्मान करवाना सिखेगी।
बहुत सी औरतों को बेचारगी सहने की आदत होती है। वो प्रताड़ना का समाधान नहीं ढूॅंढ़ती बल्कि चाहती है कि पति जानें कि वो कितना सहेन कर रही है, बस अपनी लाचारगी जताते जी रही होती है। जब तक खुद का सम्मान खुद करना नहीं सिखेगी तब तक अपमानित होती रहेगी अत्याचार सहती रहेगी और स्त्री विमर्श के तराज़ू में तूलती रहेगी।


भावना ठाकर ‘भावु’
बेंगलोर