Saturday, November 23, 2024
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धर्मनिरपेक्ष भारत को यूसीसी से नहीं शरिया से चलाने की जिद्द

मोदी सरकार द्वारा पहली जुलाई से देश में भारतीय न्याय संहिता लागू किये जाने के बाद अब समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का मुद्दा गरमाने लगा है, जिस तरह से मोदी सरकार के मंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यूसीसी के पक्ष में बयानबाजी कर रहा हैं उससे यूसीसी विरोधियों के भी सुर मुखर होने लगे हैं। सुन्नी पर्सनल लॉ बोर्ड तो पहले से ही यूसीसी का विरोध कर रहा था, अब शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इसी क्रम में लखनऊ में ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएसपीएलबी) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि समान नागरिक संहिता उन्हें किसी दशा में स्वीकार नहीं है। उनकी कौम देश के कानून से नहीं चलेगी, बल्कि शरीयत कानून को ही मानेगी। बोर्ड ने धमकी वाले अंदाज में कहा है कि मोदी सरकार यूसीसी बनाने की प्रक्रिया को रोक दे। इसके साथ ही बोर्ड की तरफ से चेतावनी भी दी गई कि यदि मोदी सरकार ने हमारा अनुरोध नहीं माना तो मोहर्रम के बाद आर-पार की लड़ाई लड़ेंगे। बोर्ड के यह तेवर तब हैं जबकि भारतीय संविधान से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी नागरिकों के लिये समान कानून की बात लम्बे समय से कहता रहा है। अलग-अलग मौकों पर देश की तमाम अदालतें सरकार से यूसीसी लागू करने के लिये कानून बनाने की बात भी कह चुकी हैं। वैसे भी एक धर्मनिरपेक्ष देश में सबके लिये एक जैसे कानून में कोई बुराई नजर नहीं आती है।
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में समान नागरिक संहिता पर सियासी और समाजिक दोनों ही स्तरों पर ही माहौल गर्म रहा है। एक ओर जहाँ देश की बहुसंख्यक आबादी समान नागरिक संहिता को लागू करने की पूरजोर मांग उठाती रही है, वहीं अल्पसंख्यक वर्ग इसका विरोध करता रहा है। इसी के मद्देनजर इस मुद्दे पर हर चुनाव में खूब राजनीति होती रही है, वहीं चुनाव बाद इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है,लेकिन लगता है कि अब मोदी सरकार इस पर बड़ा निर्णय लेने का मन बना चुकी है।यूसीसी से सबसे अधिक फायदा महिलाओं को होगा। क्योंकि आज भी किसी भी समाज और कौम में महिलाओं को पुरूषों के समान अधिकार मिलना रेगिस्तान में नख्लिस्तान से कम नहीं है, लेकिन यूसीसी लागू होने से महिलाओं के सामने कदम-कदम पर आने वाली चुनौतियाँ का ग्राफ थोड़ा कम हो सकता हैं। मगर चिंता की बात यह है कि एक तरफ जहाँ अल्पसंख्यक समुदाय नागरिक संहिता को अनुच्छेद 25 का हनन मानते हैं, वहीं इसके झंडाबरदार समान नागरिक संहिता की कमी को अनुच्छेद 14 का अपमान बता रहे हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता किया जा सकता है कि समानता के प्रति हमारा आग्रह क्षेत्रीय अखंडता के लिए ही खतरा बन जाए? क्या एक एकीकृत राष्ट्र को ‘समानता’ की इतनी जरूरत है कि हम विविधता की खूबसूरती की परवाह ही न करें? इसका जबाव हां में है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश का संविधान देशवासियों को कुल मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें भाषा और विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता का अधिकार, जमा होने संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार (इनमें से कुछ अधिकार राज्य की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ भिन्नता पूर्ण संबंध सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं)। बोलने, खाने पीने और अपने विचार व्यक्त करने की हमें आजादी है, लेकिन इसी आजादी का जब लोग गलत फायदा उठाने लगते हैं तो देश की संप्रभुता पर खतरा मंडराने लगता है।उस समय जनता को अधिकार के साथ उनकी जिम्मेदारी से भी अवगत कराया जाता है। समान नागरिक संहिता इसी क्रम की एक कड़ी मात्र है।
सवाल उठता है कि अगर हम सदियों से अनेकता में एकता का नारा लगाते आ रहे हैं तो, कानून में भी एकरुपता से आपत्ति क्यों? क्या एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून नहीं होना चाहिए ? अगर अब तक समान नागरिक संहिता को लागू करने की कोशिश संजीदगी से नहीं हुई है तो, इसके पीछे अल्पसंख्यक वोट बैंक की सियासत तो नहीं है? बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’।
समान नागरिक संहिता में किसी के रीति-रिवाज पर तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन शादी, तलाक तथा जमीन-जायदाद के बँटवारे आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होता है। अभी देश में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। संपत्ति, विवाह और तलाक के नियम हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-अलग हैं।इस समय देश में कई धर्म के लोग विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।
गौरतलब हो संविधान निर्माण के बाद से ही समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग उठती रही है। लेकिन, जितनी बार मांग उठी है उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ है। समान नागरिक संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि भारतीय संविधान में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं। अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव करने की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार लोगों को दिया गया है। लेकिन, महिलाओं के मामले में इन अधिकारों का लगातार हनन होता रहा है। बात चाहे तीन तलाक की हो, मंदिर में प्रवेश को लेकर हो, शादी-विवाह की हो या महिलाओं की आजादी को लेकर हो, कई मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। इससे न केवल लैंगिक समानता को खतरा है बल्कि, सामाजिक समानता भी सवालों के घेरे में है। जाहिर है, ये सारी प्रणालियाँ संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। लिहाजा, समान नागरिक संहिता के झंडाबरदार इसे संविधान का उल्लंघन बता रहे हैं।
दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज समान नागरिक संहिता का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा जाता है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। इसलिये, सभी पर समान कानून थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा। मुस्लिमों के मुताबिक उनके निजी कानून उनकी धार्मिक आस्था पर आधारित हैं इसलिये समान नागरिक संहिता लागू कर उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए।
दरअसल, समान नागरिक संहिता को लागू करने की पूरजोर मांग उठने के बाद भी इसे अब तक लागू नहीं किया जा सका है। कई मौके ऐसे आए जब माननीय सर्वाेच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक संहिता लागू न करने पर नाखुशी जताई है। 1985 में शाह बानो केस और 1995 में सरला मुदगल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी से भी इस मुद्दे ने जोर पकड़ा था, जबकि पिछले वर्ष ही तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी इस मुद्दे को हवा मिली। लेकिन, सवाल है कि इस मसले पर अब तक कोई ठोस पहल क्यों नहीं हो सकी है? दरअसल, भारत का एक बहुल संस्कृति वाला देश होना इस रास्ते में बड़ी चुनौती है। हिंदू धर्म में विवाह को जहाँ एक संस्कार माना जाता है, वहीं इस्लाम में इसे एक अनुबंध माना जाता है। ईसाइयों और पारसियों के रीति- रिवाज भी अलग-अलग हैं।
मौजूदा वक्त में गोवा और उत्तराखंड दो ऐसे राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। जाहिर है, इसके लिए काफी प्रयास किए गए होंगे। इसलिए यह कहना गलक नहीं होगा कि दूसरे राज्यों में भी अगर कोशिश की जाती है तो, इसे लागू करना मुमकिन हो सकता है।दूसरी ओर वोटबैंक की राजनीति भी इस मुद्दे पर संजीदगी से पहल न होने की एक बड़ी वजह है। एक दल जहाँ समान नागरिक संहिता को अपना एजेंडा बताता रहा है, वहीं दूसरी पार्टियाँ इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ सरकार की राजनीति बताती रही हैं। जाहिर है, एक दल को अगर वोट बैंक के खिसक जाने का डर है तो, दूसरे को वोट बैंक में सेंध लगाने की फिक्र है। दरअसल, सियासी दलों का यह डर पुराना है।
बता दें यूसीसी की तरह ही 1948 में जब हिन्दू कोड बिल संविधान सभा में लाया गया, तब देश भर में इस बिल का जबरदस्त विरोध हुआ था। बिल को हिन्दू संस्कृति तथा धर्म पर हमला करार दिया गया था।सरकार इस कदर दबाव में आ गई कि तत्कालीन कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर को पद से इस्तीफा देना पड़ा। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहता। हमें समझना होगा कि जब हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होगा तो, देश के सियासी दल वोट बैंक वाली सियासत भी नहीं कर सकेंगे और भावनाओं को भड़का कर वोट मांगने की रिवायत पर भी लगाम लग सकेगा।
हमें यह भी समझना होगा कि अगर राजा राममोहन राय सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठा सके और उसका उन्मूलन करने में कामयाब हो सके तो, सिर्फ इसलिये कि उन्हें अपने धर्म के भीतर की कुरीतियों की फिक्र थी। लिहाजा, धर्म के रहनुमाओं को ईमानदारी से पहल करने की जरूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि भारत जैसे देश में संस्कृति की बहुलता होने से न केवल निजी कानूनों में बल्कि रहन-सहन से लेकर खान-पान तक में विविधता देखी जाती है और यही इस देश की खूबसूरती भी है। ऐसे में जरूरी है कि देश को समान कानून में पिरोने की पहल अधिकतम सर्वसम्मति की राह अपना कर की जाए।
बहरहाल, बात शिया पर्सनल लॉ बोर्ड की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मेें यूसीसी कके विरोधकी कि जाये तो इसकी अध्यक्षता करते हुए मौलाना सैयद साएम मेहंदी ने कहा कि यूसीसी को लेकर दो साल से केंद्र सरकार से अनुरोध कर रहे हैं कि इस दिशा में न बढ़ा जाये, शिया कौम का कानून शरीयत है, सभी उसे मानते हैं और आगे भी मानते रहेंगे। कोई शिया कचहरी या थाना में न जाये ये संभव नहीं है, तब ऐसे कानून को लाया ही क्यों जाए। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड सरकार ने यूसीसी को विधानसभा से पारित कराकर राज्यपाल के पास भेजा है, ये सिर्फ इसीलिए हुआ ताकि शिया कौम सरकार की खुशामद करें। इसके लागू होने से देश में अमन-चौन कायम नहीं रह सकेगा। इसके साथ ही सैयद मेहंदी ने कहा कि आठ जुलाई से मोहर्रम शुरू हो रहा है। इसी दौरान कांवड़ यात्रा भी निकलेगी, शिया कौम को इस यात्रा से दिक्कत नहीं है, प्रदेश सरकार कांवड़ियों को सुविधाएं भी दे रही है।
मेंहदी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अपील है कि मोहर्रम में जहां ताजिये रखे या उठाये जाते हैं, जहां मजलिसे होती हैं या जुलूस निकलते हैं वहां सुरक्षा व्यवस्था के इंतजाम किये जाएं ताकि पूरे अमन तरीके से जुलूस निकल सकें। वहीं बोर्ड के महासचिव मौलाना यासूब अब्बास ने कहा कि यूसीसी से हमारे अधिकारों व पर्सनल लॉ पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। केंद्र सरकार सबका साथ, सबका विकास व सबका विश्वास का नारा लगाती है इसको ध्यान में रखकर कानून पर फिर से विचार करके इसे लागू न कराया जाए।मोहर्रम पर बेहतर इंतजाम करने के लिए बोर्ड की तरफ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र भेजा गया है। साथ ही हुसैनाबाद ट्रस्ट की जर्जर इमारतों की मरम्मत कराई जाए।
इस मौके पर मौलाना जाफर अब्बास ने कहा कि हम यूसीसी को डरकर मानने वाले नहीं हैं, हमारी कौम ने जालिमों के खिलाफ लंबे समय तक संघर्ष किया है, अब फिर मुकाबला करने को तैयार हैं। अब कौम को इतना मजबूत करना होगा कि कोई अदालत में न जाये। बोले, वे दूसरों की बैसाखी पर नहीं अपने शरीयत के हिसाब से चलेंगे।बोर्ड बैठक में उपाध्यक्ष मौलाना जाहिद अहमद रिजवी, डा. मोहम्मद रजा, मौलाना रजा अब्बास, मौलाना एजाज अतहर, मौलाना हसनी मीरापुरी समेत कार्यकारिणी के पदाधिकारी मौजूद थे।