भारत के चार प्रमुख धामों में श्री जगन्नाथपुरी एक परम पावन धाम है। चारों धामों का अपना पृथक-पृथक महत्व है, किंतु आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार प्रमुख तीर्थस्थलों को एक में जोड़कर पूरे भारत को एक सूत्र में आबद्ध कर दिया है और भारत के चारों प्रमुख तीर्थों में अपनी एक-एक पीठ भी स्थापित कर दी है। जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ स्वामी का मंदिर अपने-आप में पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों ही है।
यह मंदिर सन् 1199 ई. में स्थानीय नरेश अनंगभीम देव ने बनवाया और उसमें काष्ठ प्रतिमाओं को स्थापित किया। यह मंदिर 192 फुट ऊंचा है। मंदिर का घेरा 665 फुट लंबा और 615 फुट चौड़ा है। मंदिर के चारों दिशाओं में चार फाटक हैं। पूर्व दिशा का द्वार बहुत सुंदर बनाया गया है। इसे ‘सिंह द्वार’ कहते हैं। इस द्वार के दोनों ओर एक-एक सिंह की मूर्ति बनी है।
इसी द्वार पर काले पत्थर का एक स्तंभ 35 फुट लंबा है। उस पर गरुड़ की मूर्ति बनी है। इसे ‘गरुड़ स्तंभ’ कहा जाता है। पश्चिम के द्वार पर दो बाघों की मूर्तियां हैं। उत्तर और दक्षिण दिशा में भी सुंदर फाटक हैं। मंदिर के पश्चिम भाग में एक वेदी बनी है, इसे रत्नवेदी कहा जाता है।
यह तो सभी जानते हैं कि जगन्नाथ मंदिर में भगवान् जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), सुभद्रा और बलदाऊ जी की मूर्तियां हैं। यह प्रमाण मिलता है कि मालवा देश का राजा इन्द्रद्युम्न बहुत धर्मात्मा था। एक बार ‘जटिल’ नामक एक मुनि राजा के पास पहुंचे। मुनि ने राजा से कहा, ‘हे राजन! आप अपने परिवार के साथ उड़ीसा के नीलांचल के पास जाकर अपना आवास बनाए। इससे आपका बहुत हित होगा।’
राजा ने अपने पुरोहित को उस स्थान का पता लगाने के लिए भेजा। पुरोहित जी उड़ीसा प्रांत की यात्रा पर चल दिये। पुरोहित विद्यापति अपनी लंबी यात्रा करके उड़ीसा प्रांत के नीलांचल पर्वत पर पहुंचे। वहां पर पुरोहित की एक भक्त विश्ववसु से भेंट हुई। भक्त विश्ववसु शबर जाति के संत थे। शबर भक्त ने अपने पास पुरोहित जी को ठहराया और भगवान जगन्नाथ जी का प्रसाद खिलाया। भगवान जगन्नाथ जी के प्रसाद को सभी लोग बिना किसी छुआछुत के खाते हैं। प्रसाद में प्रायः भात और दाल ही होता है। प्रसाद में न तो छुआछुत का भेद रहता है और न ही झुठा छोड़ा जाता है।
भगवान जगन्नाथ जी का प्रसाद शबर भक्त के यहां खाकर पुरोहित जी रात्रि में वहीं सोए। पुरोहित जी ने रात्रि में स्वप्न देखा। भगवान जगन्नाथ जी कह रहे हैं, ‘पुरोहित तुम वापस अपने राजा के पास जाओ। अपने राजा को प्रजा समेत यहां ले आओ।’
स्वप्न में भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन पाकर पुरोहित विद्यापति धन्य हो गए। पुरोहित जी शबर से सलाह करके मालवा वापस चले गए। पुरोहित मालवा पहुंचकर अपने राजा से स्वप्न में प्राप्त भगवान जगन्नाथ जी के आदेश को विधिवत् सुनाया। पुरोहित की बात सुनकर मालवा के राजा इन्द्रद्युम्न अपने कुछ प्रमुख प्रजाजनों और अपने परिवार के साथ जगन्नाथपुरी की यात्रा पर चल पडे़। परिवार के कुछ सदस्य मालवा मेें ही रह गए।
राजा इन्द्रद्युम्न जगन्नाथपुरी की उस यात्रा में सर्वप्रथम गंगासागर पहुंचे। गंगासागर में स्नान कर लेने के बाद आगे बढे़। बीच में कई प्रसिद्ध मंदिरों के दर्शन करते हुए राजा उड़ीसा प्रदेश में पहुंच गए। उसी समय राजा की बायीं आंख फड़की। राजा के पास नारद जी पहले से ही उपस्थित थे। नारद जी से राजा ने अपनी बायीं आंख फड़कने का कारण पूछा। नारद जी ने कहा, ‘राजन! आपकी एक रानी ने पुत्र जना है, अतः इस समय आपको सूतक दोष के कारण भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं हो सकते।’
राजा को यह सुनकर कुछ चिंता हो गई। नारद जी ने राजा को धीरज बंधाया। राजा ने नारद जी की आज्ञा से वहां पर कई यज्ञों का सम्पादन किया। रात्रि में राजा को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ के दर्शन हुए। स्वप्न में भगवान के दर्शन पा लेने पर राजा को बहुत प्रसन्नता हुई। राजा नारद जी की सलाह से समुद्र स्नान के लिए चल पडे़। समुद्र स्नान करते समय समुद्र में ही भगवान प्रकट हो गए। भगवान के साथ ही एक वृक्ष भी प्रकट हुआ। भगवान की आज्ञा से उस वृक्ष को राजा ने यज्ञशाला में रखवाया।
भगवान की ही आज्ञा से उस वृक्ष का सदुपयोग हुआ। देवों की ओर से एक शिल्पी आया। देवों की आज्ञा से वह शिल्पी उसी काष्ठ की मूर्तियां बनाने लगा। देव शिल्पी ने 15 दिनों तक एकांत में रहकर मूर्तियों का निर्माण किया। कुछ दैवीय कारणों से तीनों मूर्तियों का निर्माण सर्वांगपूर्ण नहीं हुआ। तीनों मूर्तियां भगवान श्रीकृष्ण, बलराम जी एवं बहिन सुभद्रा की हैं। मूर्तियों के निर्माण के बाद उनकी स्थापना की समस्या पैदा हुई। नारद जी और राजा की इच्छा हुई कि मूर्तियों की स्थापना ब्रह्या जी के हाथों कराई जाए। वे दोनों ब्रह्या जी के पास पहुंचे। पृथ्वी पर से जब वे लोग ब्रह्याजी के पास पहुंचे, तो ब्रह्या जी से इन लोगों की भेंट हुई। इन लोगों ने ब्रह्या जी से धरा पर नीलांचल में तीनों मूर्तियों की स्थापना करने के लिए निवेदन किया। ब्रह्या जी से यह भी बताया कि स्थापना निमित्त संपूर्ण सामग्री तैयार है। ब्रह्याजी ने सर्वप्रथम मूर्तियों की स्थापना की बात मान ली। ब्रह्या जी ने यह भी कहा, ‘आप लोग पृथ्वी पर से जब चले, तब से मेरे लोक के हिसाब से बहुत समय बीत चुका है। सामग्री भी नष्ट हो चुकी है। आप धरा पर चलें और पुनः नयी सामग्री तैयार करें। मैं अभी आता हूं।’
पृथ्वी पर पहुंचकर नारद जी की सहायता से पुनः स्थापना की सामग्री तैयार हुई। ब्रह्या जी भी समय से पधारे। जब राजा इन्द्रद्युम्न नारद जी के साथ ब्रह्याजी के धाम की यात्रा पर चले थे और वहां से वापस हुए थे, तब से पर्याप्त दिन व्यतीत हो चुके थे। उस अवधि में महाराज मालवा ने ही जगन्नाथ जी की पूजा-अर्चना की। राजा इन्द्रद्युम्न ने पुनः जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया। उस विशाल मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी और सुभद्रा जी की मूर्तियां स्थापित की गयीं। यह मंदिर बहुत दिनों तक विद्यमान रहा। उस मंदिर में विकार आ जाने पर सन् 1199 में स्थानीय नरेश महाराजा अनंगदेव ने वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर अब अपनी जीर्णता में पहुंच चुका है। जगन्नाथ मंदिर अब तो राष्ट्र की सम्पत्ति है, अतः भारत सरकार ही इस मंदिर के जीर्णोद्धार कराने में सक्षम है। पुरातत्व कार्यरत् हो गया है।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ का रथयात्रा उत्सव मनाया जाता है। रथयात्रा की लंबी तैयारी बहुत पहले से ही चलती है। पुरी का रथयात्रा महोत्सव वहां का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। भगवान जगन्नाथ का रथ 65 फुट लंबा और 45 फुट ऊंचा है। रथ में कुल सात फुट व्यास के 16 पहिए लगे हैं। रथ खींचने में पहले राजा (स्थानीय नरेश) स्वयं हाथ बंटाते हैं। फिर स्थाई रुप से नियत 4,200 मजदूर रथ को खींचकर आगे ले जाने में लग जाते हैं।
इन 4,200 लोगों के भरण-पोषण के लिए राज्य की ओर से जमीन दी गई है। इनके अलावा श्रद्धालु दर्शनार्थी भी अपनी श्रद्धा एवं भक्ति का परिचय देते हुए रथ खींचने में लग जाते हैं। रथयात्रा में तीन रथ होते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे बड़ा है। तीनों रथ साथ-साथ ही खींचे जाते हैं। तीनों रथों को एक डोरी से बांधकर पहले राजा स्वयं आगे बढ़कर खींचते हैं। रथ जब बालू वाले भूखंड में पहुंचता है, तो गन्तव्य स्थान तक पहुंचने में कई घंटे लग जाते हैं। मंदिर से चलकर जनकपुर (गन्तव्य स्थान) पहुंचता है। जनकपुर और मंदिर की दूरी बहुत अधिक नहीं है, परंतु बालू वाले भूखंड के कारण बृहदाकार रथ बहुत परिश्रम से आगे बढ़ता है। इसी कारण ज्यादा समय लगता है। चौथे दिन एक साथ भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन लक्ष्मी जी करती हैं। यह उत्सव भी विशेष रुप से सज-धजकर मनाया जाता है। आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन रथ पुनः मंदिर में वापस आने पर मूर्तियां यथास्थान रख दी जाती है। उस समय भी विशेष उत्सव मनाया जाता है।
रथयात्रा महोत्सव में भारत के कोने-कोने से तीर्थयात्री जगन्नाथपुरी पहुंचते हैं। उस समय पुरी में बहुत भीड़ एकत्र हो जाती है। ठीक वैसे ही जैसे कुंभ के अवसर पर प्रयाग नगरी में भीड़ होती है। यात्रियों के लिए स्थान नहीं मिल पाता है। धर्मशालाएं हैं, किंतु मैदान की कमी है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान जगन्नाथ जी का शयन कराया जाता है और कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान को जगाया जाता है। भगवान के शयन और जागरण के बीच भी कई तिथियों में उत्सव चलते रहते है। श्रावण शुक्ल एकादशी को झूलनोत्सव, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है। पौष पूर्णिमा को भगवान के मंदिर में पुण्याभिषेक मनाया जाता है। वैशाख पूर्णिमा के दिन चंदन यात्रा होती है। भगवान जगन्नाथ की चल प्रतिमा को नावों में बिठाकर चंदन यात्रा करवाई जाती है।
जगन्नाथ पुरी पहुंचने पर दर्शनार्थी समुद्र स्नान करते है। जगन्नाथपुरी में समुद्र स्नान भी अपना विषेष महत्व रखता है। प्रातःकाल सूर्योदय का दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। प्रतीत होता है कि भगवान सूर्यदेव मध्य समुद्र से शनैः-शनैः निकल रहे हैं। लेखक को भी दो बार जगन्नाथ पुरी यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है।
कन्याकुमारी एवं रामेष्वरम् में सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों के दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। कन्याकुमारी तथा रामेष्वरम् में दोनों दृश्यों के अवलोकन के लिए नित्य दर्शनार्थियों की भीड़ जम जाती है। लेखक को कन्याकुमारी तथा रामेष्वरम् की यात्रा का भी एक-एक बार सौभाग्य प्राप्त हो चुका है।
-डॉ0 हनुमान प्रसाद उत्तम