Wednesday, March 12, 2025
Breaking News
Home » मुख्य समाचार » आधुनिकता के इस दौर में खो गया होली का उमंग

आधुनिकता के इस दौर में खो गया होली का उमंग

ऊंचाहार, रायबरेली। बसंत और ग्रीष्म ऋतु को समेटे हुए फागुन का यह महीना न सिर्फ तन को आनंदित करता है अपितु अंदर से मन को भी प्रकृति की भीनी सुगंध से भर देता है। प्रकृति तो नहीं बदली किंतु हमारी परंपराएं और हमारी प्रवृत्ति जरूर बदल गई है। करीब एक दशक पहले इस ऋतु में गांव की गलियां फगुआ लोकगीतों से गुलजार रहते थे, वहां आज वीरानगी है, खामोशी है। होली का पर्व आने वाला है, किंतु गांव में सन्नाटा है। न कहीं कोई शोर है और न ही लोकगीतों की फुहार। लगता है कि आधुनिकता के दौर में होली का उमंग ही खो गया है। सामाजिक समरसता की पहचान रखने वाला होली का त्योहार धीरे-धीरे जाति और समूह के दायरे में बंट रहा है। प्राचीन परंपराएं भी तेजी से खत्म हो रही हैं। एक समय था जब शहरों में भी ढोल-मजीरे के साथ फगुआ के गीत गाए जाते थे, अब शहरों की कौन कहे, गांवों में भी यह परंपरा लोगों को भूल गई हैं।
एक दशक पहले तक फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी। शहरों से लेकर गांवों तक फाग गाने और ढोलक की थाप सुनाई देने लगते थे। यह परंपरा बंद हो जाने के पीछे कुछ जीवन शैली में बदलाव को मानते हैं। ऊंचाहार के खोजनपुर गांव के पूर्व प्रधान लालचंद कौशल कहते हैं कि प्रेम सौहार्द के इस त्योहार में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे। पहले होली एक महीने तक चलने वाला त्योहार था। हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे। लेकिन अब एक दूसरे के साथ तालमेल के अभाव, कद्रदानों की कमी और गांवों से तेज होते पलायन के चलते यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है।
युवा पीढ़ी को तो फगुआ गीतों के बोल तक याद नहीं है। फगुआ के गीतों में पति-पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, देवर-भाभी के रिश्तों में हास्य का पुट तो होता ही था, धार्मिक गीतों को भी शामिल किया जाता है। इनकी जगह अब फूहड़ गीत बजने लगे हैं।