Monday, June 16, 2025
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पारंपरिक खेल: शारीरिक, मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास का आधार

मनुष्य के विकास में खेलों की भूमिका सदियों से महत्वपूर्ण रही है। विशेष रूप से पारंपरिक खेल न केवल मनोरंजन का साधन रहे हैं, बल्कि वे बच्चों और युवाओं के शारीरिक, मानसिक, संज्ञानात्मक, सामाजिक और नैतिक विकास में भी अत्यंत सहायक सिद्ध हुए हैं। परंतु वर्तमान समय में आधुनिकीकरण, शहरीकरण और मोबाइल क्रांति ने इन खेलों की जगह आधुनिक डिजिटल खेलों को दे दी है, जिससे बच्चों का जीवन-शैली और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। भारत की सांस्कृतिक विरासत में पारंपरिक खेलों का विशेष स्थान रहा है। कबड्डी, खो-खो, कुश्ती, कंचे, लंगड़ी टांग, पिट्टू, गिल्ली-डंडा, टायर दौड़, लुका-छिपी, गदा-पीठी, घरगुला आदि खेल गाँवों और शहरों दोनों में लोकप्रिय थे। इन खेलों में केवल मनोरंजन ही नहीं था, बल्कि इनमें जीवन के लिए आवश्यक अनेक गुण भी छिपे होते थे।
पारंपरिक खेलों में दौड़ना, कूदना, झुकना, पकड़ना, गिरना और उठना जैसी गतिविधियाँ होती हैं, जो बच्चों की मांसपेशियों, हड्डियों और सहनशक्ति को मजबूत बनाती हैं। बच्चे खुले मैदान में खेलने से ताजा हवा और प्राकृतिक धूप का भी लाभ लेते थे, जिससे उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती थी। इन खेलों में निर्णय लेने, रणनीति बनाने, प्रतिक्रिया देने और समस्याओं का हल निकालने जैसी क्षमताओं का विकास होता था। उदाहरण के लिए, कबड्डी और खो-खो जैसे खेलों में तेजी से सोचने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता बढ़ती है। यह बच्चों में स्मरण शक्ति, ध्यान केंद्रित करने की क्षमता और तार्किक सोच को भी मजबूत बनाता है। ये खेल सामूहिक होते थे, जिससे बच्चों में टीमवर्क, सहयोग, नेतृत्व, और सहानुभूति जैसे गुण विकसित होते थे। साथ ही, जब बच्चे हारते थे तो वे सीखते थे कि हार भी जीवन का हिस्सा है और इससे हतोत्साहित होने की बजाय अगली बार और बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। यही जीवन की असली सीख है। पारंपरिक खेलों के ज़रिए बच्चे ईमानदारी, अनुशासन, सहिष्णुता और दूसरों के प्रति सम्मान जैसे मूल्यों को अपने जीवन में आत्मसात करते थे। कोई भी खेल बिना नियमों के नहीं चलता, और इन्हीं नियमों के पालन से नैतिकता की नींव पड़ती है।
वर्ष 2000 के बाद, जब मोबाइल और कंप्यूटर तकनीक ने दुनिया में क्रांति ला दी, तब इसका सीधा असर बच्चों के खेलने के तौर-तरीकों पर पड़ा। स्मार्टफोन, वीडियो गेम, टैबलेट, और अन्य इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स ने बच्चों को घर के अंदर कैद कर दिया। अब बच्चे खुले मैदान की जगह छोटे स्क्रीन पर समय बिताने लगे हैं। इस बदलाव से बच्चों का शारीरिक विकास बाधित हो रहा है। दिनभर बैठकर गेम खेलने से मोटापा, आंखों की कमजोरी, पीठ और गर्दन में दर्द, और यहां तक कि मानसिक तनाव की समस्या भी बढ़ रही है। 5 से 10 वर्ष की आयु में चश्मा लगना अब आम बात हो गई है, जो पहले बहुत कम होता था। डिजिटल गेम्स जहां बच्चों को कल्पनाओं की दुनिया में ले जाते हैं, वहीं उनमें सामाजिक सहभागिता की कमी होती है। बच्चा अपने दोस्तों के साथ मिल-जुलकर खेलने और संवाद करने की बजाय मोबाइल स्क्रीन पर एकाकी समय बिताता है। इससे सामाजिक कौशल, आत्मविश्वास और भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास रुक जाता है। इसके विपरीत पारंपरिक खेलों में आपसी बातचीत, सहयोग और प्रतिस्पर्धा के साथ संतुलन बना रहता है, जो एक संपूर्ण व्यक्तित्व निर्माण के लिए आवश्यक है। पारंपरिक खेलों का एक और बड़ा लाभ यह था कि वे बच्चों को प्राकृतिक वातावरण के प्रति अनुकूल बनाते थे। बच्चे गर्मी, सर्दी, और बारिश जैसे मौसमों में भी खेलने जाते थे, जिससे उनका शरीर मौसम के प्रति सहनशील बनता था। आज के बच्चे मामूली बदलाव में भी बीमार पड़ जाते हैं, क्योंकि वे घरों में बंद रहते हैं और प्रकृति से जुड़ाव नहीं रख पाते।
आज समय की आवश्यकता है कि हम पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित करें। इसके लिए सबसे पहले माता-पिता और शिक्षकों को जागरूक होना पड़ेगा। वे बच्चों को इन खेलों से परिचित कराएँ, उनके साथ समय बिताएँ और उन्हें प्रोत्साहित करें कि वे मोबाइल और टीवी से दूर रहकर खुली हवा में खेलें। विद्यालयों में इन खेलों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। स्पोर्ट्स पीरियड में सिर्फ क्रिकेट या फुटबॉल ही नहीं, बल्कि पारंपरिक खेलों का भी आयोजन होना चाहिए। स्थानीय स्तर पर खेल मेले, प्रतियोगिताएँ और कार्यशालाएँ आयोजित की जा सकती हैं, जिनमें बच्चे भाग लेकर इन खेलों को सीखें और अपनाएँ। इसके अतिरिक्त सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को भी इस दिशा में काम करना चाहिए। पारंपरिक खेलों को बढ़ावा देने के लिए नीति बनाई जानी चाहिए, जिसमें इन खेलों के प्रचार-प्रसार, खेल के मैदानों के निर्माण और प्रशिक्षकों की नियुक्ति पर विशेष ध्यान दिया जाए।
पारंपरिक खेल केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाने वाले साधन हैं। वे न केवल बच्चों को शारीरिक रूप से मजबूत बनाते हैं, बल्कि मानसिक रूप से सजग, सामाजिक रूप से जागरूक और भावनात्मक रूप से संतुलित भी बनाते हैं। आज जब आधुनिक तकनीक बच्चों को प्राकृतिक जीवन से दूर कर रही है, तब पारंपरिक खेल ही उन्हें फिर से संतुलित और स्वस्थ जीवन की ओर ले जा सकते हैं। इसलिए यह हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि हम पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित करें, उन्हें अगली पीढ़ी तक पहुँचाएँ और अपने बच्चों को स्वस्थ, सशक्त और संस्कारित बनाने की दिशा में कदम उठाएँ।
-श्याम कुमार कोलारे, छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश