Monday, November 25, 2024
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बुझते दिए बदहाल कुम्हार

⇒चाइनीज आइटमों ने किया कुम्हारों को बदहाल
⇒सरकारें भी कुम्हारों को उपेक्षित किए हैं
कानपुर देहातः संदीप गौतम। कभी दीपावली का पर्व आते ही कुम्हारों के चेहरे पर चमक देखने को मिलती थी लेकिन आधुनिकता के इस दौर में एक ओर जहां लोगों के घरों में मिटटी के दियो की जगह इलेक्ट्रानिक झालरों ने ले ली है वहीं देश में अब परम्परागत दीपावली के साथ ही कुम्हारों का वजूद भी विलुप्त होता नजर आ रहा है। जिले के अकबरपुर कस्बे में करीब पचास घर कुम्हारों के है और इस वक्त भले ही हर घर में मिट्टी की दियाली बनाई जा रही हो पर ये काम लोग सिर्फ दिवाली पर ही करते हैं वो भी सिर्फ कुछ मुनाफे की खातिर बाकी समय में ये लोग मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर हैं। इनकी आर्थिक स्थिति साल दर साल बद से बदतर होती जा रही है।
कुम्हार के चाक पर घूमती गीली मिट्टी से परिवार पालने का दम रखने वाले लोगों के हाथ में ऐसा जादू होता है कि वे चाक पर नाचती इस मिटटी को कभी घड़े तो कभी सुराही तो कभी बच्चों के मिनी बैंक यानी गुल्लक तक बना देते हैं, वही दीपों के पर्व यानी दीपावली आने पर गीली मिट्टी हजारों दियालियों का रूप ले लेती है, लेकिन आधुनिकता की बड़ी मार दिनपर दिन इन कुम्हारों पर भारी पड़ती जा रही है।
परम्परागत दीपावली में इन मिटटी के दीपकों की जगह उललेखनीय होती थी, इन्हीं मिट्टी के दीपों में घी के दिए जलाने की परंपरा हमारे देश में थी, माना जाता है कि भगवान राम जब रावण का सर्वनाश कर पहली बार अयोध्या पहुचे थे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम का स्वागत मिट्टी की बनी दियाली में घी के दीप जलाकर किया था, तबसे आज तक हम दीपों के इस त्योहार को मनाते चले आए हैं।
पिछले दो दसकों से मिट्टी के दियों का चलन धीरे धीरे समाप्त हो गया है और मिट्टी की दियालियों की जगह घरों में इलेक्ट्रानिक झालरों ने ले ली है जिसमें चाइना से आई झालरों की कीमत सबसे कम होने के कारण लोगों का रुझान उसकी तरफ बढ़ता गया, आज हम अगर मिट्टी की दियालियों की बात करें तो महज 10 से 20 प्रतिशत मिट्टी की दियालियों का ही उपयोग दीपावली के दिन किया जाता है जिसकी वजह से भारत की इकोनामी का सीधा लाभ चाईना को मिल रहा है और इसकी सीधी मार इन कुम्हारों पर पड़ रही है, ऐसे में जहां एक ओर हम देश को आर्थिक चोट देकर चाईना को लाभ पहुचा रहे हैं वही हमारे देश के ऐसे कुम्हार जो इसी मिट्टी के चाक से परिवार पाल रहे थे वह इन दिनों भुखमरी का शिकार हो रहे हैं और दिवाली के अलावा बाकी दिनों में परिवार का पेट पालने के लिए मजदूरी कर रहे हैं।

पहले जरुरत इस बात की है कि आखिर एक तालाब की मिट्टी से दिए तक के सफर को भी आप जाने क्योकि कड़ी मेहनत के बाद एक कुम्हार की आमदनी कितनी होती है और उसके एवज में उसे मिलता क्या है। मिट्टी के इस सफर की शुरुवात होती है कुछ चुनिंदा जगहों से मिलने वाली मिट्टी से। पहले कुम्हारो को जो मिट्टी मुफ्त में मिलती थी उसके लिए उन्हें अब 12 से 15 सौ रूपये प्रति ट्राली रकम देनी होती है जिसके लिए एसडीएम की परमीशन भी जरुरी हो गई है, मिट्टी घर पहुचने के बाद उसे पीटा जाता है। बड़े ढेलों को पीटने के बाद इस मिट्टी को छन्ने से छाना जाता है ताकि मिटटी में एक भी कंकड़ न रह जाए, क्योकि एक भी कंकड़ आने पर बर्तन नहीं बनाए जा सकते, मिट्टी को छानने के बाद उसे बारीक पीस लिया जाता है जिसके बाद मिट्टी गीली होकर चाक पर आती है जहां उसे अलग अलग रूप दिया जाता है क्योकि इस समय दीपावली का पर्व नजदीक है लिहाजा इन दिनों दीपक की ओर इन कुम्हारों का ध्यान बढ़ जाता है, चाक पर मिट्टी जब दिए की शक्ल ले लेती है तो उसे गेरू में रंगने का काम किया जाता है जिससे दियालियो को लाल रंग मिल जाता है, इसके बाद इन दियालियों को पकाने के लिए ऐसी छोटी छोटी भट्टियों में रखा जाता है रात भर आंच में पकने के बाद दियालियां बाजार तक पहुचाई जाती हैं।
खुद कुम्हारों की मानें तो चाईना के सामान आने से सीधा असर उनके व्यापार पर पड़ रहा है, फाइवर की प्लेट व प्लास्टिक के ग्लासों के आने से बारह महीने चलने वाला कुम्हारों का यह धंधा चैपट हो चुका है, ऐसे में परिवार चला पाना मुश्किल पर रहा है और लोग भुखमरी की कगार पर आ चुके हैं। सरकार द्वारा कुम्हारों के इस धंधे के लिए कुछ भी नहीं किया जाता है।
बबली (कुम्हार) का कहना है कि चाइनीज झालरें बाजार में आने से अब मिट्टी के दिए को अब कोई नहीं पूछता है जहां पहले लोग 100 दियालियां लेते थे वह अब दस पांच दियाली ही खरीद रहे हैं, तमाम मुसीबतों के बाद जब सामान तैयार कर बाजार तक पहुचने के बाद बिक्री नहीं होती है तो इस तरह से परिवार पालने में दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है।
राजेश व करन का कहना है कि कभी इसी चाक के सहारे परिवार को पालने वाले कुम्हार के परिवार खासा परेशान हैं, राजेश के परिवार की महिलाओं का कहना है कि जबसे प्लास्टिक के गिलास और फाइवर प्लेट बाजारों में आ गई है तबसे आमदनी नहीं बची है जिसकी वजह से परिवार के अन्य सदस्य इस धंधे को अब नहीं करना चाहते हैं क्योकि इस व्यापार में अब कुछ भी नहीं बचा है।