( आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’, सिहोरा, जबलपुर )
सेवक से मालगुजार
सेवक बन सेवा करूं, झुक-झुक मांगी वोट ।
लेकिन अब यह कर रहा, जनता पर ही चोट ।।
जनता पर ही चोट, ले रहा वेतन भारी ।
हमें झुकाता फिरे, गजब की कारगुजारी ।।
‘‘राजगुरू’’ सब लील, रहा ये जनता के हक ।
बनता मालगुजार, किया था भरती सेवक ।।
नये सामन्त
घूमत देखे सड़क पर, नये गिद्ध, नव काग ।
लज्जित हो छुप गए कुछ, गये शहर से भाग ।।
शहर छोड़़ गे भाग, न ढूंढ़े मिलें पुराने ।
छीना सकल स्वभाव, हड़प के ठौर ठिकाने ।।
‘‘राजगुरू’’ पा वरद, हस्त कर रहे हुकूमत ।
सांसत सरल स्वभाव, देखते इनको घूमत ।।
कौवा-गिद्ध और नेता
कौवा अब चुप हो गये, दिल में लगी खरोंच ।
जहां मारते वे रहे अब नेता मारें चोंच ।।
अब नेता मारें चोंच, गिद्ध भी माँस न खाएं ।
छीना-झपटी देख, बेचारे दिन बिताएं ।।
नेताओं का बढ़ा, ‘‘राजगुरु’’ इतना हौवा ।
सोच रहे मर जांय, चुपे गिद्ध और कौवा ।।