इच्छामृत्यु के फैसले से बुजुर्गों का जीवन खतरे में
हम बचपन से बड़े-बुजुर्गों और पूर्वजों से सुनते आये हैं कि जीवन और मृत्यु एक सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों ही अटल सत्य हैं। प्रत्येक धर्म यही कहता है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है और प्रत्येक धर्म यह भी कहता है कि किसी का जीवन बचाना ही सबसे बड़ा धर्म है। यह सब बातें अगर सत्य हैं तो असाध्य रोग से पीड़ितों को इच्छामृत्यु के नाम पर अकाल मार देना कहां का न्याय होगा। सच तो यह है कि ‘‘इच्छामृत्यु की आड़ में और बढ़ेगा अन्याय तथा वृद्ध पीड़ितों के जीवन से होगा भयावह खिलवाड़ ।’’ कुछ 1 प्रतिशत असाध्य रोगों से पीड़ित यातनाग्रस्त जीवन जीने को मजबूर अतिपीड़ितों की सेवा न हो पाने पर हजारों दलीलों के एवज में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया पर फैसला सुना दिया और कहा कि खास परिस्थितियों के मद्देनजर लिविंग विल यानी इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता भी मिल गई है। देश की शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि विशेष परिस्थिति में सम्मानजनक मौत को व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार माना जाना चाहिए। कुछ विशेष लोगों के लिए भले ही यह फैसला राहत देने वाला रहा हो पर विचारने वाली बात यह है कि आखिर! इसके दूसरे स्याह पहलू को क्यों नजरअंदाज किया जा रहा कि भविष्य में इसके कितने भयावह दुष्परिणाम होंगे? इच्छामृत्यु का यह फैसला, हो सकता है कुछ विशेष लोगों के लिये यह राहतभरा अंतिम मजबूर फैसला हो पर आज के अर्थ युग में कुछ लालची और अपराधी मानसिकता के लोगों के लिये यह फैसला चैन की श्वांस और निर्भय हो जाने वाला है। यह गाज उन प्रोपर्टी वाले, सरकारी नौकरी करने वाले माता-पिता पर उनके ही अपनों द्वारा कभी भी गिर सकती है कि इच्छामृत्यु के बहाने उनका जीवन छीन लो और उनकी नौकरी जबरन मृतक आश्रित बनके हासिल कर लो। भविष्य में इस इच्छामृत्यु के फैसले के परिणाम बहुत ही घातक सिद्ध होंगे कि पहले तो अराजकतत्वी निजस्वार्थी लोग बुजुर्गों को वृद्धाश्रम छोड़ आते थे। जिससे कम से कम हमारे देश के सीनियर सिटीजन कम से कम, कहीं न कहीं जीवित तो रहते थे और बाकी की जिंदगी अपने तरीके से सुकून से तो बिताते थे पर सुप्रीम कोर्ट के लिविंग विल यानि इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता मिलने के इस एकपक्षी फैसले से हमारे देश के बुजुर्गों का जीवन ही खतरे में आ गया हैं। जो हमें कतई मान्य नहीं है। आपने तो एक पक्ष की मर्मस्पर्शी दलीलें सुनकर फैसला तो सुना दिया पर कृपया इसका दूसरा पक्ष भी तो देखिये कि जो बेटा आज अपनी वृद्ध माँ को छत से धक्का दे सकता है तो इस फैसले के बाद समाज और देश में हमारे बुजुर्गों के ऊपर कितनी अराजकता और अन्याय बढ़ेगा। यहां तो बीमारी से जूझ रहे गरीब और बीमारी से जूझ रहे प्राॅपर्टी वाले बुजुर्गों दोनों का ही जीवन, इच्छामृत्यु के फैसले की भेंट चढ़ जायेगा। आखिर! कौन जिम्मेदारी लेगा और किसकी जवाबदेही होगी और कौन तय करेगा कि किस पर इच्छामृत्यु का यह कठोर फैसला तीर की तरह चलाया जाये। इसका एक पक्ष भले ही पुरातन उदाहरणों जैसे- महाभारत काल में भीष्म पितामह, माता सीता, भगवान श्री राम और लक्ष्मण, आचार्य विनोबा भावे द्वारा इच्छा मृत्यु का वरण किया था, को देकर मजबूत कर लें पर दूसरे पक्ष पर मंथन बेहद जरूरी है कि वो युग और था, आज स्वार्थ युग चल रहा है जिसमें रिश्तों पर स्वार्थ हावी हो चुका है और इस बात को भी दरकिनार नही किया जा सकता। इच्क्षामृत्यु का यह मुद्दा तब प्रकाश में आया जब फरवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी, जिसमें एक गंभीर बीमारी से ग्रसित व्यक्ति जो कि डाॅक्टर्स के मुताबिक अब कभी ठीक नहीं हो सकता, उसके लिए इच्छामृत्यु या दया मृत्यु की अपील की गई थी। कोर्ट में याचिका लगाने वाली एनजीओ ने दलीली दी कि ‘गरिमा के साथ मरने का अधिकार’ ‘यानी राइट टू डाय विथ डिग्निटी’ भी होनी चाहिए। फिर देश में इच्छामृत्यु पर एक लम्बी बहस तब चालू हो गयी थी जब यौन उत्पीड़न की यातना झेल चुकी जिन्दा लाश बनी अरुणा शानबाग मुम्बई के किंग एडवर्ड मैमोरियल अस्पताल के कमरे में बर्षों पड़ी रही तथा आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से निष्क्रिय अरुणा शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने दुनियाभर की कानूनी अवधारणाओं के साथ प्राचीन धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुये अपना फैसला सुरक्षित किया। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु की याचिका तो ठुकरा दी थी परन्तु चुनिंदा मामले में कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया (कानूनी तौर पर लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने) की इजाजत दी थी। कोर्ट ने यहां तक कहा था कि 37 वर्षों से कोमा में पड़ी अरुणा शानबाग को यह अधिकार मिलना चाहिए था क्योंकि इच्छा मृत्यु की याचिका अरुणा के परिवार वालों ने नहीं बल्कि उसकी दोस्त पिंकी वीरानी ने दी थी, लिहाजा उसे यह अधिकार नहीं दिया जा सकता। हाँ यह बात पूर्णतः न्यायोचित है कि दोस्त की याचिका पर इतना बड़ा फैसला देना उचित नहीं था पर यह कौन तय करेगा कि दोस्त कौन हैं और दुश्मन कौन? कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जब कोई मरीज स्वयं होश में हो, मृत्यु की इच्छा जताए औैर लाइफ स्पोर्ट सिस्टम हटवाने के लिए तैयार हो, ऐसी स्थिति में डाक्टर और परिजन उसका फैसला मान सकते हैं। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि मरीज होश में न हो लेकिन उसने पहले ही ऐसी परिस्थिति के लिए इच्छा मृत्यु की वसीयत कर रखी हो। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि मरीज न तो स्वयं होश में हो और न ही उसने इच्छा मृत्यु की वसीयत कर रखी हो। तब डाक्टर और परिजन तय प्रक्रिया के तहत उसके लिए पैसिव यूथनेसिया की मांग कर सकते हैं। स्थिति कोई भी हो सिर्फ पैसिव यूथनेसिया यानि लाइफ स्पोर्ट हटाने की इजाजत होगी, एक्टिव यूथनेसिया यानि मृत्यु को संभव बनाने के लिए किसी तरह की दवा या उपकरण का प्रयोग करने की इजाजत नहीं होगी। हम यह बात पूरी ईमानदारी से मानते हैं कि हो सकता हैै कि देश की शीर्ष अदालत का यह फैसला कुछ 1 प्रतिशत लोगों औैर उनके परिजनों के लिए बड़ी राहत के तौर पर देखा जा रहा है, जो वर्षों से जिन्दा लाश की तरह अस्पतालों में पड़े मौत का इंतजार कर रहे हैं तथा उनके परिवारीजन जो अस्पतालों के लम्बे बिल की भरपाई में असमर्थ हैं। हाँ उन्हें राहत की श्वांस मिलें पर हमें यह भी नही भूलना चाहिए कि जबरन किसी की श्वांस छीनी भी न जा सके। जरा सोचिए! 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जहां 12 करोड़ बेरोजगार हों जिनके पास मंहगें इलाज के नाम पर आँखों में दो आँसू हों। जहां प्रति दस मिनट में एक रेप होता हो। जहां हर बीस मिनट पर बच्चें गायब होते हों। जहां के अधिकांश अस्पतालों में ब्लड बैंक ही खंड्डहर पड़ी हों। जहां मृतकों को आईसीयू में महीनों रख कर रूम का मोटा बिल वसूला जाता हो। जहां अस्पतालों में गरीब गर्भवती महिलायें जमीन पर लेटने और प्रसव को विवश हो, जहां अस्पतालों में माननीयों की सिफारिश से आॅपरेशन की डेट मिलती हो। जहां की एक बड़ी पीड़ित आबादी झोलाछाप डाॅक्टरों के भरोसे खुद को सौंपने पर विवश हैं। जहाँ स्ट्रेचर के अभाव में एक गरीब को अपनी बीवी, बच्चों का शव अपनी पीठ पर लाद कर ले जाना पड़ जाये। वहाँ आप ईमानदारी से इच्छामृत्यु की बात कैसे सोच सकते हैं? क्या इस फैसले के गलत इस्तेमाल की अर्जियां निपटाने के लिए सरकार कोई डिजिटल सिस्टम बना पाएगी ? जिस समाज में लालच की चाशनी में लिपटे इंसानी रिश्ते चंद सिक्कों पर घुटने टेक चुुके हों। जहाँ नैतिकमूल्य खूंटी पर टांगें जा चुके हों और मानवीय संवेदनाएं समाप्त हो चुकी हों, ऐसे में ईमानदारी की बात करनाा ही बेमानी होगा। आखिर! जीवन और मृत्यु पर परमात्मा का हक है इस चाबी को इंसान को तो कतई सौंपा नही जा सकता हैं। अतरू, इस फैसले पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए वरना यह जल्दबाजी होगी और अपराधियों की चाँदी होगी।