आज बच्चों को होमवर्क देना विद्यालयों की दैनंदिन शिक्षा प्रक्रिया का एक जरूरी अंग बन गया है। शायद ही कोई ऐसा स्कूल हो जो बच्चों को विषयगत होमवर्क न देता हो। देखने में आता है कि होमवर्क बच्चों को बांधे रखने का जरिया बन चुका है। होमवर्क में विद्यालय में पढ़ाये गये विषय के प्रकरण और पाठों पर आधारित वही प्रश्न घर पर पुनः लिखने को दिये जाते हैं जो बच्चों में ‘रटना’ की गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जबकि एनसीएफ-2005 की स्पष्ट अनुशंषा है कि बच्चों को कल्पना एवं मौलिक चिंतन मनन करने के अवसर दिये जायें, न कि रटने या नकल करने को बाध्य किया जाये। पर होमवर्क का बच्चों में ज्ञान निर्माण करने की बजाय सूचनाओं को रटवाने और नकल करने पर जोर है। क्योंकि आज की शिक्षा बच्चों को एक उत्पाद के रूप में तैयार कर रही है और इस प्रक्रिया में अभिभावक की भी स्वीकृति और भागीदारी है। तो यहां एक प्रश्न उभरता है कि बच्चों कों होमवर्क क्यों दिया जाये? क्या यह जरूरी है और बच्चों के लिए इसके क्या फायदे हैं?
होमवर्क में फंसे बच्चे के पास न तो प्रश्न हैं न ही जिज्ञासा। अगर कुछ है तो दबाव, होमवर्क पूरा करनें का दबाव और इस दबाव ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। उसके पास-पड़ोस और परिवेश में घट रही घटनाओं, प्राकृतिक बदलावों, सामाजिक तानाबाना, तीज-त्योहारों, को समझने-सहेजने, अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने का न तो समय है न ही स्वतंत्रता। होमवर्क बच्चो ंमें कुछ नया सीखने को प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि लीक का फकीर बनने को बाध्य कर रहा है। जाॅन होल्ट के शब्दों में कहूं तो ‘‘वास्तव में बच्चा एक ऐसी जिंदगी जीने का आदी बन जाता है जिसमें उसे अपने आसपास की किसी चीज को ध्यान से देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। शायद यही एक कारण है कि बहुत से युवा लोग दुनिया के बारे में बचपन में मिली चेतना और उसमें मिली खुशी खो बैठते हैं।’ आखिर कैसी पीढ़ी तैयार की जा रही है जिसकी सांसों में अपनी माटी की न तो महक बसी है और न ही आंखों में सौन्दर्यबोध। न लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और न ही लोकसाहित्य के लयात्मक राग के प्रति संवेदना और अनुराग। सहनशीलता, सामूहिकता, सहिष्णुता, न्याय, प्रेम-सद्भाव एवं लोकतांत्रिकता के भावों का अंकुरण न होने के कारण उनकी सोच एवं कार्य व्यवहार में एक प्रकार का एकाकीपन दिखायी पड़ता है। उसमें अंदर से रचनात्मक रिक्तता है और रसिकता का अभाव भी।
देखा जाये तो होमवर्क बच्चों की रचनात्मकता को उद्धाटित करने की बजाय उस मार्ग को अवरुद्ध करता है। होमवर्क पूरा करने के दबाव में बच्चे रचनात्मक शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों यथा नृत्य, संगीत, कला, पेपर क्राफ्ट, मिट्टी का कार्य, बुनाई, कशीदाकारी, लेखन, वाद-विवाद, भाषण, खेलकूद आदि से दूर हुआ है, जहां परस्पर मिलन और संवाद से बच्चे एक-दूसरे को समझते और सीखते हैं। होमवर्क के कारण पठन संस्कृति भी खत्म हो रही है क्योंकि बच्चो ंके पास इतना समय नहीं बच रहा कि वे पाठ्येतर पुस्तकें या पत्रिकाएं पढ़ सकें। इस कारण पढ़ने से उत्पन्न नया सीख पाने का भाव तिरोहित हो रहा हैं। बचपन में खेलकूद और अन्य सामूहिक क्रियाकलापों से बच्चे सामाजिकता का शुरुआती पाठ स्वयं ही सीख जाते हैं पर होमवर्क के कारण बच्चे खेलकूद और अन्य गतिविधियों से दूर हुए हैं और यह दूरी लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसी कारण बच्चे हिंसक और चिड़चिड़े होते जा रहे हैं और स्वानुशासनहीन भी। फलतः बच्चे एक व्यक्तिवादी सोच के साथ बढ़ रहे हंै। सामाजिक समरसता, वैश्विक बंधुत्वभाव और पर्यावरणीय चेतना के अभाव के कारण बच्चों का दृष्टिकोण और सोच एकांगी है। उसके मन में एक प्रकार की जड़ता ने घर बना लिया है जिससे उसे सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं रह गया है। आज दुनिया के अंदर हो रह नवीन शोध और अन्वेषण में भारत का कितना योगदान है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी ढोने वाला देश का नवीन शोधों के क्षेत्र में कहीं कोई स्थान ही नहीं है। चाहे वह तकनीकी ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र हो या रसायन एवं भौतिकी का। चाहे वह फिल्म निर्माण का फलक हो या खेती किसानी की जमीन। शिक्षण-प्रशिक्षण में कोई नवाचार हो या साहित्य सर्जन का। मौलिकता का पुट कहीं दिखाई नहीं देता। हम बस नकल करने में माहिर हंै क्याोकि बचपन में ही इसका बीजारोपण होमवर्क के माध्यम से कर दिया गया था। होमवर्क ने अपनी परम्परागत लोक ज्ञान-विज्ञान की अथाह थाती को समझने-बूझने का अवसर बालमन को नहीं दिया। श्रम के प्रति निष्ठा और गर्व एवं गौरव का भाव कहीं दिखाई नहीं देता।
मेरा मानना है कि बच्चों को विद्यालयों से विषय और पाठाधारित प्रश्न न देकर बच्चों की रुचि अनुसार ऐसे प्रश्न एवं प्रोजेक्ट दिये जायें जिनसे वह अपने सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को समझ सकें, जो उसमें अवलोकन, अनुमान, तुलना, सम्बंध निरूपण एवं खोजबीन करने एवं हालातों से जूझने की सामथ्र्य पैदा कर सके। श्रम के प्रति निष्ठा एवं मानवीय मूल्यों का पोषक हो। तब वे किताबांे एवं बड़ों की बनाई राय से इतर अपनी एक राय बना सकेंगे तथा स्वयं को लगातार बेहतर करते रहंेगे। यह उसे न केवल एक सुयोग्य संवेदनशील नागरिक के रूप में निर्मित करेगा बल्कि उसमें मानवीय मूल्यों का निर्माण भी करेगा। अभिभावकों को भी चाहिए कि वे बच्चों को मेलों, विवाह उत्सवों, कला एवं साहित्य प्रदर्शनियों, संगीत समारोहों एवं प्रकृति भ्रमण पर ले जायें तथा सतत् संवाद बनाये रखते हुए बच्चों से उनके अनुभव लिखवायें। होमवर्क के संजाल में उलझे बच्चे एक प्रकार के तनाव में जी रहे हैं। जीवन में सकारात्मकता का संचार हुआ ही नहीं। उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं नकारात्मकता, कुंठा और क्रोध के भाव पसरे दिखाई देते हैं। क्या यह शिक्षकों और पालकों की असफलता नहीं है कि जिस बचपन को हंसता-खिलखिलाता, तेजवान एवं अनंत ऊर्जावान हो उल्लास, उमंग से नवीन सर्जना में लगना चाहिए था वह मुरझाया, बुझा हुआ, दीनहीन, म्लानमुख एक अज्ञात भय के साये में बड़ा हो रहा है। कौन है इसका जिम्मेदार। स्कूल, शिक्षक, अभिभावक या हमारी शैक्षिक-सामाजिक व्यवस्था। तो बच्चों को उत्साही बनाये रखने का एक ही तरीका कि उन पर काम के बेहतर परिणाम का दबाव न डाला जाये। जैसाकि अमेरिकी शिक्षाविद् जान होल्ट अपनी किताब ‘बच्चे असफल कैसे होते है’ में कहते हैं कि ‘‘जब बच्चों को ऐसी परिस्थितियां मिलती हैं जहां सही उत्तर पा लेने का दबाव उन पर नहीं होता, न ही उन्हे सब कुछ तुरत-फुरत कर डालना होता है तो बच्चों का काम सचमुच अद्भुत होता है। मुझे लगता है होमवर्क की जड़ता से मुक्ति ही सक्षम एवं समर्थ पीढ़ी का निर्माण कर सकेगी।
लेखकः पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं।