आज से एक डेढ़-दो दशक पूर्व तक हमारे घरों में एक नन्ही प्यारी चिड़िया की खूब आवाजाही हुआ करती थी। वह बच्चों की मीत थी तो महिलाओं की चिर सखी भी। उसकी चहचहाहट में संगीत के सुरों की मिठास थी और हवा की ताजगी का सुवासित झोंका भी। नित्यप्रति प्रातः उसके कलरव से लोकजीवन को सूर्योदय का संदेश मिलता और वह अपने नेत्र खोल दैनन्दिन जीवनचर्या में सक्रिय हो उठता। विद्याथियों के बस्ते खुलते और किताबें बोलने लगतीं। कोयले से पुती काठ की पाटियों में सफेद खड़िया से सजे अक्षर उभरने लगते। बैलों के गले में बंधी घंटियों की रूनझुन के साथ कंधे पर हल रखे किसानों के पग खेतों की ओर चलने को मचल पड़ते और महिलाएं गीत गाती हुई जुट जातीं द्वार-आँगन बुहारने में। और तभी आँगन में उतर आता कलरव करता चिड़ियों का झुण्ड। रसोई राँधने के लिए अनाज पछोरते समय सूप के सामने वह फुदकती रहती। सूप से गिरे चावल के दाने चुगती चिड़ियाँ लोक से प्रीति के भाव में बँधी निर्भय हो सूप में भी बैठ सहजता से अपना भाग ले जाती। इतना ही नहीं, वह रसोई में भी निर्बाध आती-जाती और पके चावल की बटलोई में बैठ करछुल में चिपका भात साधिकार ले उड़ती। यह प्यारी चिड़िया कोई और नहीं अपनी गौरैया थी, हाँ, अपनी घरेलू गौरैया। वह परिवार की एक सदस्य ही थी। लोकधर्मी कवि घाघ से लेकर आधुनिक कवियों तक को गौरैया ने प्रभावित किया है। तभी तो प्रगतिशील कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन‘ कह उठते हैं हैं – ‘मेरे मटमैले आँगन में, फुदक रही प्यारी गौरैया। लोक मे बहुप्रचलित एक काव्यात्मक उक्ति गौरैया के व्यवहार के द्वारा प्राकृतिक परिवर्तन के महत्व को ही रेखांकित करती है, ‘‘कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अण्डा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।’’ लेकिन आज इस गौरैया के जीवन पर संकट आ खड़ा हुआ है। उसके अस्तित्व पर खतरा मड़रा रहा है और हम है कि बेसुध सोये पड़े हैं।आज से एक डेढ़-दो दशक पूर्व तक हमारे घरों में एक नन्ही प्यारी चिड़िया की खूब आवाजाही हुआ करती थी। वह बच्चों की मीत थी तो महिलाओं की चिर सखी भी। उसकी चहचहाहट में संगीत के सुरों की मिठास थी और हवा की ताजगी का सुवासित झोंका भी। नित्यप्रति प्रातः उसके कलरव से लोकजीवन को सूर्योदय का संदेश मिलता और वह अपने नेत्र खोल दैनन्दिन जीवनचर्या में सक्रिय हो उठता। विद्याथियों के बस्ते खुलते और किताबें बोलने लगतीं। कोयले से पुती काठ की पाटियों में सफेद खड़िया से सजे अक्षर उभरने लगते। बैलों के गले में बंधी घंटियों की रूनझुन के साथ कंधे पर हल रखे किसानों के पग खेतों की ओर चलने को मचल पड़ते और महिलाएं गीत गाती हुई जुट जातीं द्वार-आँगन बुहारने में। और तभी आँगन में उतर आता कलरव करता चिड़ियों का झुण्ड। रसोई राँधने के लिए अनाज पछोरते समय सूप के सामने वह फुदकती रहती। सूप से गिरे चावल के दाने चुगती चिड़ियाँ लोक से प्रीति के भाव में बँधी निर्भय हो सूप में भी बैठ सहजता से अपना भाग ले जाती। इतना ही नहीं, वह रसोई में भी निर्बाध आती-जाती और पके चावल की बटलोई में बैठ करछुल में चिपका भात साधिकार ले उड़ती। यह प्यारी चिड़िया कोई और नहीं अपनी गौरैया थी, हाँ, अपनी घरेलू गौरैया। वह परिवार की एक सदस्य ही थी। लोकधर्मी कवि घाघ से लेकर आधुनिक कवियों तक को गौरैया ने प्रभावित किया है। तभी तो प्रगतिशील कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन‘ कह उठते हैं हैं – ‘मेरे मटमैले आँगन में, फुदक रही प्यारी गौरैया। लोक मे बहुप्रचलित एक काव्यात्मक उक्ति गौरैया के व्यवहार के द्वारा प्राकृतिक परिवर्तन के महत्व को ही रेखांकित करती है, ‘‘कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अण्डा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।’’ लेकिन आज इस गौरैया के जीवन पर संकट आ खड़ा हुआ है। उसके अस्तित्व पर खतरा मड़रा रहा है और हम है कि बेसुध सोये पड़े हैं। यूरोप, एशिया, अमेरिका, अफ्रीका, न्यूजीलैण्ड और आस्ट्रेलिया में पायी जाने वाली घरेलू गौरैया की विश्व में छह प्रजातियों की पहचान हुई है। नगरों, कस्बों, गाँव, खेत-खलिहान में मिलने वाली गौरैया को ‘हाउस स्पैरो‘ कहा जाता है। एक आकलन के अनुसार विश्व में पाये जाने वाले पक्षियों में गौरैया की संख्या सर्वाधिक है। हल्के भूरे-सफेद रंग के पंखों, भूरी चोंच और पीले पैरों वाली 25-30 ग्राम वजनी झुण्ड में रहने वाली इस चिड़िया को लगभग हर तरह की जलवायु पसंद है। एक समय में तीन बच्चे/अण्डे होते हैं। भोजन की तलाश में ये प्रतिदिन दो-तीन मील का चक्कर काटते हैं। अनाज के दाने, घास के बीज, छोटे कीड़े इनका प्रिय भोजन है लेकिन रोटियों के टुकड़े, ब्रेड भी ये चाव से खा लेते हैं। तथाकथित विकास और प्रकृति के अत्यधिक दोहन-शोषण ने घरेलू गौरैया के प्राकृतिक आवास को छिन्न-भिन्न कर दिया है। बहुमंजिली इमारत के निर्माण और जंगलों की कटान से इसे घोसले बनाने को उपयुक्त स्थान नहीं मिल पा रहा। शहरी काॅलोनियों में पेड़ दिखते नहीं, छायादार निरापद जगह नहीं बची जहाँ वे अपने नीड़ का निर्माण कर सकें। सुपर मार्केट-माॅल संस्कृति के कारण घर-परिवारों में पैकेटबन्द अनाज और अन्य भोजन सामग्री आने से चुगने को दाने मिलना दूभर हो गया। मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगों ने इनकी प्रजनन क्षमता को कम कर दिया है। इस कारण इनके अण्डे पूर्णरूप से निषेचित नहीं हो पाते हैं और अण्डों से अविकसित बच्चों का जन्म हो रहा है। इन तरंगों नें उनकी दिशाशोधन प्रणाली को विकृत कर दिया है। फलतः ये बेजुबान पक्षी अपने राहों से भटक रहे हैं। शहरों में बिजली के तारों के जाल में अक्सर उलझ कर प्राण गवाँ बैठते हैं। चील, बाज, कौवा, कुत्ता, सियार, साँप जैसे प्राकृतिक दुश्मन इसके अण्डों और चूजों को खा जाते हैं। बच्चे भी गौरैया और इसके छोटे बच्चों को पकड़ लेते हैं और इनके पंखों पर रंग लगा देते हैं जिसके कारण इन्हें उडान भरने में खासी परेशानी होती है। बच्चे इनके पैरों में धागा बाँध देते हैं जिस कारण धीरे धीरे वहाँ से पैर कमजोर होकर टूट जाता है, अन्ततः वह मर जाती हैं। किसानों द्वारा रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से अन्न, जल और मिट्टी प्रदूषित हुई है। कीड़ों के मर जाने से फसलें भले ही सुरक्षित हुईं हो लेकिन इसने गौरैया के प्राकृतिक आहार कीड़ों को उनसे छीन लिया है। बच्चे च्यूगंम खाकर जहाँ कहीं भी फेक देते हैं और चिड़िया इसे कोई खाद्य पदार्थ समझ कर ज्यों ही चुगती है तो उसकी चोंच चिपक जाती है और छटपटाकर प्राण त्याग देती है। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते ताप के कारण भी गौरैया अपने आप को कमजोर महसूस कर रहे हैं। भोजन एवं जल की कमी, घोंसला बनाने के लिए उचित स्थान का न मिल पाने के कारणों से पिछले दो दशकों से इनकी संख्या में लगातार भारी गिरावट देखने में आ रही है। भारत ही नहीं वरन् सम्पूण विश्व में विभिन्न अनुसंधानों से प्राप्त निष्कर्ष बताते हैं कि इनकी संख्या में 70-80 प्रतिशत कमी हुई है। पौधों और पशु-पक्षियों के संरक्षण के लिए सन् 1963 में गठित अन्तरराष्टीय प्रकृति संरक्षण संघ ने भी घरेलू गौरैया की घटती संख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे ‘लाल सूची‘ में रखा है और इसे संकटग्रस्त पक्षी घोषित किया है। ब्रिटेन की ‘राॅयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स‘ भारत और विश्व के विभिन्न हिस्सों में वर्षों तक अध्ययन कर गौरैया को बचाये जाने के उपाय खोजने पर बल दिया है। ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी में इनकी संख्या बहुत तेजी से घटी है। नीदरलैण्ड ने तो इसे ‘दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी‘ में रखकर बचाने का संकल्प दिखाया है। इन सब प्रयासों के चलते 20 मार्च 2010 को अन्तरराष्टीय स्तर पर पहली बार ‘विश्व गौरैया दिवस‘ मनाया गया और दिल्ली राज्य सरकार ने 15 अगस्त 2010 को गौरैया को दिल्ली का ‘राज्य पक्षी‘ घोषित किया। भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई 2010 को 5 रूपये मूल्य का डाक टिकट जारी किया। गौरैया पर अमेरिका, कनाडा और बाँग्लादेश ने भी विभिन्न मूल्य वर्ग के डाक टिकट जारी किए हैं। 2014 में घरेलू गौरैया बचाओ अभियान के अन्तर्गत डाक विभाग ने गौरैया के चित्र का विशेष आवरण जारी कर गौरैया बचाओ मुहिम में जन सामान्य की सक्रिय भागीदारी की इच्छा व्यक्त की थी। गौरैया को बचाने के लिए हम सभी को आगे आना होगा। अभियानों और गोष्ठियों से केवल जागरूकता लाई जा सकती है। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं होगा। जरूरत ठोस कदम उठाने की है। हमें सामूहिक जिम्मेदारी निभानी होगी। अपने घरों और पास-पड़ोस में छायादार वृक्ष लगाने होंगे। प्लाई, गत्तों के टुकड़ों से घोंसलें बनाकर दीवारों में टाँग कर उन्हें वहाँ आने का आमंत्रण दें। छतों पर बर्तनों में पानी रखकर और अनाज के दाने बिखेर कर हम इसका साथ पा सकते हैं। अगर हम अभी नहीं चेते तो गिद्ध की भाँति गौरैया को भी खो देंगे। यह हमारा दायित्व है कि हम पुरखों से प्राप्त इस पक्षी को आगामी पीढ़ी के हाथों में सौपते हुए सर उठाकर कह सकें कि हमने इसे मरने नहीं दिया। तो आज ही शुरु करें कल कहीं बहुत देर न हो जाये। –प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘