डॉ. दीपकुमार शुक्ल
देश के पांच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश तथा मणिपुर में संपन्न हो रहे विधान सभा चुनाव में सर्वाधिक महत्व उत्तरप्रदेश को ही दिया जा रहा है। दरअसल इस राज्य के चुनाव परिणाम से ही आगामी लोकसभा चुनाव की दिशा तय होनी है। लोकसभा में उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीतकर केन्द्र में सरकार बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव किसी परीक्षा से कम नहीं है। लोकसभा चुनाव परिणाम के दृष्टिगत भाजपा को तीन सौ से भी अधिक सीटें मिलनी चाहिए परन्तु अब तक के विभिन्न सर्वेक्षणो पर यदि निगाह डालें तो भाजपा को सरकार बनाने के लिए आवश्यक 202 सीटें भी मिलती हुई नहीं दिखायी दे रही हैं। उत्तर प्रदेश की सत्ता में बैठी समाजवादी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन करके एक नए उत्साह के साथ मैदान में डटी है। समाजवादी पार्टी को कांग्रेस से गठबंधन करने का लाभ भले ही न मिले परन्तु उसने अपना एक विरोधी जरुर कम कर लिया है। हालाकि इस गठबंधन के चलते चुनाव लड़ने से वंचित हुए अनेक समाजवादी नेताओं का भितरघात भी सपा को झेलना पड़ेगा। जिसका सीधा लाभ भाजपा को ही होगा। सर्वेक्षण के नतीजों में यह गठबंधन बहुमत से काफी दूर है। वर्ष 2012 के चुनाव में भ्रष्टाचार तथा अराजकता से त्रस्त यू.पी. की जनता ने अखिलेश यादव के विचारों से प्रभावित होकर 224 सीटें सपा की झोली में डालकर उन्हें पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का अवसर दिया था। 2012 के चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश ने उत्तर प्रदेश की जनता को भरोसा दिया था कि वह प्रदेश से भ्रष्टाचार तथा अपराध को हर हाल में समाप्त कर देंगे। प्रदेश में अपराध और भ्रष्टाचार कितना कम हुआ यह तो सभी को पता है लेकिन इतना जरुर रहा कि पिता मुलायम सिंह के कार्यकाल की तरह प्रदेश दस्यु सरगनाओं की पनाहगाह नहीं बन पाया। साथ ही अपराधियों के संरक्षक की पहचान बना चुके चाचा शिवपाल सिंह को अखिलेश यादव ने न केवल अलग-थलग कर दिया बल्कि स्वयं को साफ सुथरी छवि वाला नेता सिद्ध करने में भी सफल रहे। 108 नम्बर की एम्बुलेंस सेवा तथा लखनऊ की मेट्रो रेल सेवा सहित विकास की अन्य कई योजनाओं के चलते प्रदेश की जनता के बीच वह काफी लोकप्रिय साबित हुए हैं परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए इतना प्रयाप्त नहीं है। प्रदेश स्तर के चुनाव में विकास से कहीं अधिक बड़ा मुद्दा कानून-व्यवस्था का होता है। इस दृष्टि से अखिलेश यादव असफल ही दिखायी देते हैं। प्रदेश की जनता मुख्यमन्त्री के रूप में एक आक्रामक प्रशासक चाहती है। इस छवि का दर्शन उनमे दूर-दूर तक नहीं होता है।
मायावती की छवि कभी आक्रामक प्रशासक वाली बनी थी। तभी वर्ष 2007 के विधान सभा चुनाव में मुलायम सिंह सरकार के समय बढ़े अतिसय अपराध से त्रस्त जनता ने मायावती को 206 सीटों के साथ प्रदेश की सत्ता सौंपी थी लेकिन उसके बाद, अपराध तो कम नहीं हुआ वरन भ्रष्टाचार सारी हदें पार कर गया। बसपा विधायकों और मन्त्रियों की अराजकता तथा मनमानी चरम पर पहुँच गयी थी। बहन जी के जन्म-दिन के नाम पर खुलेआम वसूली को प्रदेश की जनता आज तक नहीं भूली है। 206 से 80 सीटों पर सिमटी बसपा मायावती के नेतृत्व में एक बार फिर मैदान में है। हालाकि बसपा का पारम्परिक वोटबैंक आज भी बहुत हद तक उसके साथ है परन्तु पूर्ण बहुमत से बसपा बहुत दूर दिखायी दे रही है। मायावती को विश्वास है कि भाजपा तथा सपा से नाराज मतदाता बसपा को ही वोट देंगे। सर्वेक्षण के आकड़ों को देखें तो बसपा का ग्राफ 2012 के मुकाबले कुछ ऊपर जा रहा है।
विहार तथा दिल्ली में पराजय का मुंह देख चुकी भाजपा उत्तर प्रदेश में फूंक-फूंककर कदम रख रही है परन्तु उसका पूर्ण बहुमत का गणित अभी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। इसका सबसे अहम कारण यह है कि भाजपा ने अब तक मुख्यमन्त्री का नाम स्पष्ट नहीं किया है। भाजपा स्वयं के अनुभव से भी नहीं सीखना चाहती है। भाजपा ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में महज इसीलिए बहुमत प्राप्त कर पाने में सफलता प्राप्त की थी क्योंकि उसने नरेंद्र मोदी जैसे कुशल प्रशासक को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तुत किया था। आज मुश्किल यह है कि भाजपा प्रदेश स्तर के चुनाव भी नरेंद्र मोदी के दम पर जीतना चाहती है। प्रदेश की जनता अच्छी तरह से जानती है कि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद नरेन्द्र मोदी नहीं बल्कि कोई और मुख्यमन्त्री बनेगा। जिस प्रदेश की कानून-व्यवस्था चरमरायी हो, भ्रष्टाचार चरम पर हो वहां की सत्ता प्राप्त करने के लिए मुख्यमन्त्री का चेहरा स्पष्ट होना ही चाहिए। इसके अलावा भाजपा ने अपनी परम्परा से हटकर जहाँ कई स्काईलैब प्रत्याशियों को टिकट देकर अपनों से ही नाराजगी मोल ले ली है वहीँ कई बार से लगातार चुनाव जीत रहे परन्तु अब अकर्मण्य हो चुके सतीश महाना जैसे लोगों को भी टिकट दे दिया है। इससे आम मतदाता के बीच बनी भाजपा की अच्छी छवि भी कमजोर होती दिखायी दे रही है। नोटबंदी की नाराजगी भी भाजपा को झेलनी पड़ सकती है। एक अच्छा कदम होते हुए भी यह आम आदमी को परेशानी में डालने वाला ही साबित हुआ। केन्द्र सरकार द्वारा हाल ही में पेश हुए लोकलुभावन बजट का भी थोडा बहुत लाभ भाजपा को मिल सकता है।
कुल मिलाकर अब तक की परिस्थितियों को देखते हुए उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के निकट कोई भी दल नहीं है। मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन के बीच ही है लेकिन बसपा भी लड़ाई में है। जिसके कारण प्रदेश में त्रिकोणात्मक संघर्ष की स्थितियां बन रही हैं। एक तरफ नरेन्द मोदी के दम पर चुनाव लड़ रही नेतृत्वविहीन भाजपा है तो दूसरी तरफ साफ-सुथरी छवि तथा विकासवादी सोच रखने वाले परन्तु कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर विफल अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा-कांग्रेस गठबंधन है। राहुल गाँधी होते भी कही नहीं हैं। तीसरी ओर आक्रामक छवि वाली परन्तु अपने पिछले कार्यकाल में कानून व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पूरी तरह विफल सिद्ध हुयीं मायावती के नेतृत्व में बसपा खड़ी है। अब प्रदेश के मतदाताओ को तय करना है कि वे किसे सत्ता सौंपते हैं। विधान सभा का चुनाव पार्टी की नीतियों के आलावा बहुत हद तक मुख्यमन्त्री के रूप में प्रस्तुत व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा स्थानीय प्रत्याशी की कार्यशैली एवं व्यवहारिकता पर भी निर्भर करता है।