पंसद है मुझे यूँ तन्हा रहना,
यूँ अकेले अपने आप से बात करना,
सोचकर कभी किसी बात को,
आ जाती है चेहरे पर मुस्कान कभी,
तो बहने लग जाती हैं अचानक ही आंसुओं की धारा कभी,
उठाती हूँ सुबह चाय की प्याली को हाथ से जब,
तो काँपने लग जाते हैं ये दो लब मेरे तब,
उठ जाती हूँ रात के किसी भी पहर अब,
और करती हूँ शुरू गिनती तारों की आसमां में तब
कभी ये तन्हाई नासूर बन जाती है,
तो कभी जीने का मकसद दे जाती है
मोनिका जैन द्वारका (दिल्ली)