मनुष्य, जीवन जीने के लिए किसी न किसी विधि से उपार्जन करता है l इसके लिए वह विभिन्न पेशों, व्यवसायों या कार्यों का चुनाव करता है लेकिन मानवीय दृष्टि से अगर कोई पेशा या कार्य सबसे ज्यादा पवित्र, उत्तरदायित्वपूर्ण व संवेदनपूर्ण होता है तो वह है चिकित्सक का पेशा l किसी भी मानव या जीव को सबसे ज्यादा प्रिय उसके प्राण होते हैं और इस दृष्टिकोण से सृष्टि में ईश्वर के बाद अगर किसी का स्थान आता है तो वह है एक चिकित्सक का … जो अपनी सेवा और हुनर से मरते हुए इन्सान को बचाकर नया जीवन देता है l यही एक चिकित्सक का धर्म भी होता है पर आज चिकित्सा भी एक धंधा बन गया है .. मरीज़ों के शोषण का l कारण तो एक हीं है कि, पैसा आज मानवीय मूल्यों, भावों और सरोकारों से ऊपर हो चुका है किन्तु इसके आलावा मेडिकल कॉलेजों की कम संख्या, चिकित्सा की पढाई में होने वाला भारी खर्च, न्यूनतम सीटें आदि अनेक वजहें भी इसके लिए जिम्मेवार है l मानवीयता जैसे गुण और सेवा-भाव के प्रति समर्पण जैसी भावना एक तो वैसे हीं लोगों में बहुत कम रह गए हैं ऊपर से इन्ट्रेंस टेस्ट में इन चीजों को वरीयता देने की कतई जरूरत नहीं समझी जाती जबकि चिकित्सा क्षेत्र के लोगों का यही चरम लक्ष्य और प्रयोजन भी होना चाहिए l अब बात करते हैं कॉलेजों के संख्या की – देश में मेडिकल कॉलेजों की संख्या देखी जाए तो अन्य प्रोफेशनल कॉलेजों के मुकाबले यह काफी कम है तिसपर सरकारी कॉलेजों की संख्या और भी कम l प्राइवेट कॉलेजों का तो ये हाल है कि बगैर मान्यता वाले भी एडमिशन ले रहे हैं, नए-नए मान्यता प्राप्त निजी कॉलेजों में मनमाने तरीके से प्रवेश लेना आम बात है l फ़ीस की बात अगर की जाए तो तमिलनाडु के कई निजी मेडिकल कॉलेजों में एक साल की फ़ीस 21 लाख है, दिल्ली में 15 से 18 लाख तो मुम्बई में 16.5 लाख ये तो हुई महानगरों की फ़ीस पर छोटे शहरों में भी 12-13 लाख से कम किसी भी कॉलेज की फ़ीस नहीं l इस हिसाब से देखा जाए तो अमूमन 5 साल की पढ़ाई में करोड़ों रूपए खर्च होते हैं l एम.डी और एम.एस की डिग्री चाहिए तो 3 से 5 लाख तथा 15 से 25 लाख अलग से l एक साधारण सी बात है इतने रूपए खर्च करके जो छात्र डॉक्टर बनकर निकलेगा उसकी पहली कोशिश अपनी पढ़ाई के खर्चे को निकलना होगा, मरीज़ों के प्रति सेवा और समर्पण नहीं l
अब बारी आती है देश में चिकित्सकों के संख्या की l जाहिर है चिकित्सकों की संख्या कम होगी तो वहाँ भीड़ ज्यादा होगी, जहाँ भीड़ जरुरत से ज्यादा होगी वहाँ असंतुलन होगा हीं l काबिलेगौर है कि, देश में 65% मेडिकल कॉलेज दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में स्थित हैं जबकि पूर्वी, उत्तरपूर्वी और सेन्ट्रल पार्ट्स में कॉलेजों के अभाव की वजह से डॉक्टरों की संख्या काफी कम है l इस सन्दर्भ में, जिन राज्यों में देश की आधी जनसंख्या निवास करती है वहाँ के विद्यार्थियों के लिए मात्र 1/5 मेडिकल सीट्स का होना हीं काफ़ी कुछ बयां कर देता है l
हिंदुस्तान में चिकित्सा की दयनीय हालत और एम्बुलेंस आदि का अकाल अभी हाल में पूरी दुनियाँ ने तब देखा जब ओडिशा में दाना मांझी नाम का एक गरीब और मजबूर पति अपनी पत्नी की बॉडी को कंधे पर लादकर 10 किलोमीटर पैदल चलकर शमशान घाट ले गया l उसकी पत्नी की मौत टीबी से हुई जबकि टीबी अब कोई लाइलाज़ बीमारी नहीं है l इस घटना से लोग इसलिए वाकिफ़ हो सके क्योंकि यह सोशल मिडिया पर वाइरल हो गया था पर सच तो यह है कि ऐसे-ऐसे कितने हीं वाकये आए दिन आते हैं, गुजर जाते हैं और भुला दिए जाते हैं l दुर्स्थितियों की विडम्बना देखिए कि अभी हाल के मेडिकल कॉलेजों के एडमिशन में कॉलेजों की सीट ख़ाली रह जाने के बाद दुबारा काउंसलिंग डेट बढ़ाने के सुप्रीम कोर्ट के आर्डर के बाद (2016) लखनऊ के काउंसलिंग सेंटर पर नामी-गिरामी प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के दलाल इस तरह के प्रलोभनों के साथ कि, ‘’दो स्टूडेंट्स के एडमिशन पर 12 की जगह 8 लाख हीं लगेंगे’’ पर्ची लेकर अभिभावकों को पटाते हुए नज़र आए, वैसे अभिभावक जिनके पास इन कॉलेजों की फ़ीस भरने लायक पर्याप्त पैसे हैं उन्हें ऐसे प्रस्ताव स्वीकार करने में कोई बुराई नज़र नहीं आती, एक बार डॉक्टर बन जाने के बाद उनका बच्चा उससे दुगने तिगने पैसे कमा लेगा l
एक पवित्र और पूर्ण समर्पण वाले पेशे को करियर के रूप में अपनाने की चाहत रखने वाले हजारों लाखों विद्यार्थियों की राह में पहले भी कम काँटें न थे ऊपर से हाल के तीन चांस वाले आदेश के द्वारा तो काँटों का बाड़ हीं बिछा दिया गया है l छात्रों ने सड़कों पर उतरकर जब तोड़ फोड़ की तब जाकर उनकी बात सुनी गई, वो भी आधी अधूरी l जब कुर्सी की भूख लगती है तब खादी वाले यूथ-यूथ चिल्लाते हैं और जब यूथ के हित की बात आती है तो उन्हें अपने हक़ के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है, तोड़-फोड़ किये बगैर उनकी बात तक नहीं सुनी जाती l एक तो करेला उसपर से नीम चढ़ा .. इनसब के बीच अगर बात महिला डॉक्टरों की की जाए तो नगरों और महानगरों में रहने वाली छात्राओं के लिए तो रास्ते फिर भी खुले हुए हैं पर छोटे कस्बों, गाँवों में रहने वाली उन बच्चियों के लिए किसी के पास सोचने की फुर्सत नहीं जो बच्चियाँ बचपन से सिर्फ एक हीं सपना लेकर बड़ी होती हैं कि उन्हें चिकित्सा सेवा क्षेत्र में जाकर मानवता धर्म के यज्ञ में अपने हाथों से एक आहुति डालनी है l कितने पैसे और समय खर्च करके ये न जाने कितनी-कितनी दूर डाल दिए गए एग्जामिनेशन सेन्टरों पर जैसे तैसे पहुँचती हैं .. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे गा-गा कर लड़कियों के विकास की भाषणबाजी और वास्तविकता में फ़र्क यहाँ स्पष्ट तौर पर नज़र आ जाता है l काफी दूर दूर के शहरों में पड़े सेंटरों तक जाने आने में उनकी सुविधा और सुरक्षा के बारे में सोचने का कष्ट कोई नहीं उठाना चाहता l अपनी अनेक असुविधाओं के बीच सीमित सीटों और राजनीति के खेल में इन मेहनती और प्रतिभाशाली लड़कियों के सपने ज्यादातर सपने बनकर हीं रह जाते हैं l भले हीं दूर दराज़ के गाँवों-कस्बों के अस्पतालों में एक भी महिला डॉक्टर न हो पर स्वार्थ के मारे अन्धे बहरों के इस देश में इनसब चीजों के बारे में सोचने की जरुरत कोई नहीं समझता l वाह रे हिन्दुस्तान ! जनसंख्या बढ़ती है, डॉक्टरों की आवश्यकता बढ़ती है लेकिन मेडिकल कॉलेजों की सीट नहीं बढ़ाई जाती, नए मेडिकल कॉलेज नहीं खुलवाए जाते एटेम्पट कैप लगाकर 75% छात्र-छात्राओं को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है l WHO द्वारा तय किये गए मानक के अनुसार अधिक से अधिक 1000 मरीज़ों पर एक डॉक्टर अवश्यंभावी रूप से होना चाहिए लेकिन इण्डियन मेडिकल रजिस्टर के आंकड़े कहते हैं कि भारत में 2000 लोगों पर एक डॉक्टर है (There is an extreme shortage of doctors in the country, with only one doctor available for 2000 patients, found the Parliamentary Standing Committee report on the Medical Council of India – DNA) l यह हालत वेइतनाम और पाकिस्तान से भी ज्यादा बुरी है l रिपोर्ट्स के मुताबिक अगर देश में अगले 5 सालों तक 100-100 की संख्या में नए मेडिकल कॉलेज खुलवाये जाएँ तब जाकर 2029 तक हिन्दुस्तान में चिकित्सकों की संख्या पर्याप्त हो पायेगी l
– कंचन पाठक
लेखिका, स्तंभकार