Sunday, November 24, 2024
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मुद्दों से भटकती राजनीति

JAN SAAMNA PORTAL HEADदेश के पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों में अपनी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए राजनैतिक दलों की नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगता दिख रहा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना तो दिख ही रही है लेकिन विकास के मुद्दों से भटकते हुए भी सभी दल दिख रहे हैं। चुनावी रैलियों में हो रही भाषणवाजी से तो यही जाहिर हो रहा है कि नेताओं को विकास की बात करते हुए शायद अपनी कुर्सी पक्की नहीं नजर आ रही बल्कि अपशब्दों व बेमतलब के बयानों को पेश कर जनता के दिलोदिमाग को भटाकाने का प्रयास करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहे। बेमतलब की बयानवाजी राज्यस्तरीय नेता ही नहीं कर रहे बल्कि देश के प्रधानमंत्री जी भी कर रहे हैं।
विकास के मुद्दों को दरकिनार कर सपा-कांग्रेस गठबन्धन के प्रचारक नेताओं के साथ ही बसपा, भाजपा सहित सभी दलों के प्रचारक ऐसे शब्दों का प्रयोग कर एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब विकास का नहीं बल्कि बकवास का दौर चल रहा है। हद तो यहांतक हो गई है कि अब पशुओं के नामों को लेकर बयानवाजी कर नेताओं ने अपनी भाषा की सीमायें ही लांघ दी हैं। वहीं जाति-वर्ग की राजनीति करने से भी नेता जी अपना मौका नहीं गवाना चाह रहे हैं।
वर्तमान की भाषणवाजी पर अगर गौर किया जाये तो शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, महिला उत्पीडन जैसे ज्वलन्त मुद्दों को महत्व कम दिया जा रहा है बल्कि अनावश्यक को आवश्यकता की तरह पेश कर न जाने किस स्तर की बात की जा रही है। इसमें न तो मोदी जी पीछे दिख रहे हैं और न ही अखिलेश-राहुल व माया। सभी अपने अपने तरीके से ऐसे बयान पेश कर रहे हैं जिन्हें सुनकर ऐसा लगता है कि अब इनके पास कुछ कहने के लिए बचा ही नहीं है।
ऐसा कहना अनुचित नहीं है कि आजादी के 70 साल गुजरने के बाद भी देश की तमाम आबादी आज भी अच्छी शिक्षा, आवास व अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। वादे तो हर चुनाव में किए जाते हैं लेकिन चुनाव नतीजे आते ही इन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। चाहे प्राथमिक सरकारी स्कूल हों या सरकारी अस्पताल, सभी में कार्यरत कर्मचारियों व अधिकारियों का वेतन तो समय समय पर बढ़ता चला जा रहा है लेकिन शिक्षा अथवा स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर निरन्तर गिरता ही चला जा रहा है। इसी वजह से प्राइवेट संस्थाएं अपनी मनमानी कर रहीं हैं। आज भी लाखों परिवार खुलेआसमान में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं और उन परिवारों के बच्चों को शिक्षा से कोई लेना देना नहीं रहता है।
इस पर ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन इस पर शायद कोई दल ठोस कदम नहीं उठा रहा है। सही विकल्प न मिलने पर, मजबूर होकर जनता भी जुमलेवाजों को वोट देकर सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ती दिखती है।