रात की थकान से ग्रसित
आंखों में नींद की खुमारी लिये
सुबह उठते ही वो दौड़ती है
रसोई की ओर
खुले बालों का बनाते हुए
हाथों से जूड़ा
भागती है बेतरतीब सी
इधर से उधर
बिखरे घर को संभालते संभालते
भूल जाती है खुद को सम्हालना
फिर भी पाती है पूरे घर से
सिर्फ झिड़की और उलाहना
एक काम भी ढंग से नहीं कर पाती हो
पता नहीं अपना दिमाग कहां लगाती हो
और वो सब सुनकर भी हो कर सहज
सिर्फ मुस्करा कर रह जाती है
क्योंकि जानती है वो
कि जिस दिन भी वो बोल पड़ेगी
उसकी गृहस्थी की दीवार चरमरा जायेगी
अपनों की खुशियां बस यूं ही कायम रहें
यही सोच कर बस वो मुस्कराती सी
निज जीवन यापन करे।
Written By: Alka Agrawal, Agra (UP)