कहते हैं ईश्वर को देखना है तो प्रकृति को गौर से देखो और महसूस करो। ये प्रकृति ही है जो हमें सिर्फ देती ही है बिल्कुल जीवनदायी मां की तरह। जितना हम उसे देते हैं या उसे पोसते हैं उसके बदले में कई गुना अधिक वह हमें दे देती है। यह हमारी अज्ञानत और मूढ़ता ही है कि हम अपने विनाश के सौदागर खुद ही बन रहे हैं। हमारे निहित स्वार्थ हमें अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ सोचने नहीं दे रहे।
कभी आपने महसूस किया है कि सुबह शांत वातावरण में पक्षियों का चहचहाना, हवा की सरसराहट, फूलों का खिलना, सुबह की धूप ऐसा लगता है कि उस समय देवता पृथ्वी घूम रहे हों। उस समय मैं मगन रहती हूं बाद में पनपते हैं ये विचार। बात वही पुरानी है कि इस लाकडाउन ने पर्यावरण को लेकर एक उदाहरण हमारे सामने रख दिया है कि हम इंसान पर्यावरण पर कितना अत्याचार कर रहे हैं?
सहारनपुर की पर्वत शिखर की फोटो यही साबित करती हैं। जब यह चित्र इतने सुंदर हैं तो वास्तविक नजारा कैसा होगा? हम इन्हीं चोटियों की सुंदरता को देखने के लिए कई हजार फीट ऊपर चढ़कर जाते है। मैं नाथूला में आठ हजार फीट ऊपर इंडिया और चाइना बार्डर देखने गई थी। जहां सांस लेना भी मुश्किल था आज कुछ दूरी पर से ही दिख रहा था। वहीं उतनी ऊंचाई से कंचनगंगा का खूबसूरत नजारा भी देखा। साफ नदियां जैसे कहती हुई लग रही है कि मैं कचरा फेंकने के लिए नहीं हूं। तकनीकी उन्नति श्राप बनकर जीवन को बर्बाद किए हुए हैं। चिमनियों से निकलता धुआं, गाड़ियों से फैलता प्रदूषण, पेड़ पौधों का समाप्त होना यह हमारे जीवन के लिए अभिशाप है। पर्यावरण का साइड इफेक्ट प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखने को मिल जाता है। कहा जाता है आने वाले वक्त में ऑक्सीजन खरीदनी पड़ेगी। सिर्फ आक्सीजन? हमारी जिंदगी? हमारा जीवन स्तर? हमारी जीवन शैली? यह सब किस तरह से संभव होगा? हम सामान्य जीवन किस तरह जी पाएंगे? आज इस खूबसूरत नजारे को देखकर एक सवाल मन में आया हैं कि हम प्रकृति पर नहीं बल्कि खुद पर अत्याचार कर रहे हैं। हम अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं देख पा रहे। यदि सुरक्षित जीवन चाहते हैं तो प्रकृति के साथ तालमेल जरूरी है। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का मतलब अपने जीवन में बाधा डालना है। बदलने की जरूरत हमें है, प्रकृति को नहीं। प्रकृति बहुत सुंदर है और जीवन उससे भी ज्यादा सुंदर। हमें सृजनता की ओर अग्रसर होना चाहिए। प्रियंका वरमा माहेश्वरी गुजरात