इन भयावह समय का मुख्य तकाजा यह है कि कोरोना वायरस अब आने वाले कुछ समय के लिए हमारे जीवन का एक अटूट हिस्सा है और अब हमें इसके आसपास काम करने की जरूरत है। एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की उपलब्धियों पर हमें गर्व है, कोरोना वायरस से उपजी महामारी ने
तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को जबरदस्त नुक्सान पहुंचाया है। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं। बावजूद इसके ऐसी आशा है कि हमारा देश इस संकट से जूझते हुए अपनी व्यवस्था को पुन: सुचारू कर लेगा, किंतु इन सबके लिए हमारी कृषि प्रधानता वाली रीति-नीति में कुछ ठोस व्यापक कदम उठाने होंगे, जिससे खासकर हमारे अन्नदाता और मजदूर वर्ग को कोई विशेष आर्थिक नुक्सान का सामना न करना पड़े। औद्योगिक इकाइयों से लेकर सभी कारोबार आज अपने पुराने दिन वापस पाने की कोशिश में हैं।
सबसे ज्यादा बेचैनी किसान और श्रमिकों को है, वास्तविकता यह है कि इसके कार्यबल का एक बड़ा प्रतिशत आर्थिक अनिश्चितताओं के दबाव में है। किसान की खेती इंतजार नहीं कर सकती।
किसान ग्रामीण क्षेत्रों में है तो श्रमिक वर्ग औद्योगिक नगरों और मेगासिटी के आस-पास की झुग्गियों में कठोर परिस्थितियों का सामना कर रहा है।
तीसरा लॉकडाउन शुरू होते ही, सरकार ने लोगों के लिए कई तरह से चीजों को आसान बनाने की कोशिश की है। नारंगी और हरे क्षेत्रों में कई प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। स्थानीय प्रशासन को यह तय करने की जिम्मेदारी दी गई है कि विभिन्न क्षेत्रों में स्थितियों के आधार पर प्रतिबंधों को किस हद तक सही किया जा सकता है। सरकार ने प्रवासी मजदूरों को घर वापस जाने की अनुमति दी है। कुछ श्रामिक स्पेशल ट्रेनें भी अपने गंतव्य तक पहुँच चुकी हैं।
लॉकडाउन की वजह से शहरी क्षेत्रों से गांवों की ओर भारी पैमाने पर पलायन हुआ है यानी वहां के पहले से ही कम संसाधनों में हिस्सेदारी बंटाने वालों की संख्या बढ़ गई हैं। ऐसे में गाँवों में उनके लिए कुछ ही अवसर हैं। अवसर तो पहले भी कम ही थे तभी वो अक्सर अपने परिवारों को पीछे छोड़ते हुए शहरों की कठोर परिस्थितियों का सामना करते हैं। वे अपने लिए एक जीवन बनाने और अपने परिवार का समर्थन करने के लिए ऐसा करते हैं। तभी शहर उनके बिना नहीं कर सकते, इसलिए आज उनकी दुर्दशा को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
हमने विकास की परिभाषा को सिर्फ शहरों तक सीमित कर दिया है। उसी विकास की चकाचौंध में लोग गांवों से पलायन कर शहरों की ओर बढ़ रहे हैं। अब जब संकट का वक्त आया है तो यही लोग गांव वापस लौटे हैं, लेकिन सवाल वहीँ पर है कि आखिर गांव में इनके लिए रोजगार कहां है? अगर रोजगार नहीं होगा तो फिर ये क्या करेंगे, क्या फिर शहरों में जायँगे ? मंदी की मार झेल रहे शहर क्या इन्हें वापस काम दे पाएंगे? सवाल कई हैं लेकिन इन सबके बीच में जवाब सिर्फ एक ही है कि हमें गांवों को भी समृद्धि संपन्न बनाना होगा। गांवों के भीतर ही रोजगार विकसित करने होंगे।
कोविद -19 संकट भारत के कारीगरों की परंपराओं, हस्तशिल्प और ग्रामीण कृषि उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए एक उपयुक्त उचित अवसर भी प्रतीत होता है। यह मेक इन इंडिया पहल पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने का समय है। यह सभी के लिए रोजगार उत्पन्न नहीं कर सकता है, लेकिन यह ग्रामीण भारत में आशा और दीर्घकालिक लाभ लाएगा। गांव-केंद्रित दृष्टिकोण में एक बदलाव लाएगा। ग्रामीणों के पास अक्सर दिलचस्प संस्कृतियां और परंपराएं होती हैं ,जो शहरों में जगह नहीं पाती हैं। हमारे गांवों और मोफुसिल शहरों में की गई पहल के बारे में कई सफलता की कहानियां हैं
आइये हम ज्ञान युग को गले लगाते हैं और ग्रामीण युवाओं की क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में अवसर, सिद्धांत रूप में, शहरी क्षेत्रों में उन लोगों की तुलना में अधिक हो जाते हैं क्योंकि ग्रामीण खंड अब तीनों (कृषि, विनिर्माण और सेवा) क्षेत्रों से अर्थव्यवस्था में लाभान्वित हो सकते हैं। ज्ञान युग में, समग्र शिक्षा, उपयुक्त प्रौद्योगिकी और बढ़ी हुई आजीविका के संदर्भ में ग्रामीण युवाओं की क्षमता और क्षमता निर्माण पर जोर देने के साथ-साथ आय के साथ-साथ जनसंख्या के अधिक संतुलित वितरण की भी संभावना है।
इसके लिए शहरों और गांवों के बीच समुचित पुलों का निर्माण करना होगा, और एक ऐसे पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करना होगा, जिसे एक “बांड” ( सिलेज मतलब सिटी और विलेज का सम्बन्ध) के रूप में अवधारणाबद्ध किया गया हो – शहर और गाँव का एक समान संयोजन। एक शहर और एक गाँव के बीच ज्ञान की खाई को पाटना, दोनों के बीच की आय की खाई को भी पाटना होगा और यह सिलेज भारत में और औद्योगिक रूप से उन्नत देशों में औसत व्यक्तिगत आय के बीच की खाई को पाटने का काम भी करेगा।
सिलेज में पारिस्थितिकी तंत्र के विकास के लिए समग्र शिक्षा और अनुसंधान, प्रौद्योगिकी विकास और प्रबंधन के साथ-साथ प्रौद्योगिकी-सक्षम ग्रामीण आजीविका संवर्धन के लिए एक निहित और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी। कई नए कौशल, प्रौद्योगिकी और सहायता प्रणाली की सुविधा प्रदान करना जो नए उद्यम शुरू करने के लिए इन लोगों की वर्तमान क्षमताओं का लाभ उठा सके। उनकी आजीविका की सुविधा के लिए तत्काल व्यवस्था, और उनकी वर्तमान क्षमताओं का लाभ उठाने से गांवों में कम से कम कुछ लोगों को बनाए रखने में मदद तो मिल सकती है।
आगे बढ़ते हुए, हमें ज्ञान गतिविधियों को उच्च स्तर पर ले जाना चाहिए ताकि इन लोगों द्वारा बनाए गए उत्पाद और सेवाएँ अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकें। स्थानीय अवसरों के दोहन के लिए विघटनकारी प्रौद्योगिकियों को देखते हुए पालन करना चाहिए। सरकार मानव संसाधन का संतुलित उपयोग कर गांवों को तीर्थ बना सकती है। हां, इसके लिए पहल की जरूरत है। जो व्यक्ति पैदल हजार-दो हजार की दूर
तय कर अपनी मातृभूमि पर लौट सकता है, वह अपने लिए रोजगार भी अपने गांव में ही पैदा कर सकता है। इसके लिए माहौल बनाने की जरूरत है, तभी भारत के नए विकास में सिलेज सार्थक रूप ले पायेगा।
-डॉ सत्यवान सौरभ, कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार