रिश्तों का जंजाल हटा, हो जाऊं मुखर, हो जाऊं प्रखर,
अनुबंधों के कटिबन्ध हिले, छू लेने दो अब मुझे शिखर।
सम्बन्धों के लिए समर्पण ही, कर गया छलावा संग मेरे,
मैं रही सरलऔर सहज सदा, बिछे कपट जाल सम्मुख मेरे।
सम्बन्धों पर विश्वास सुदृढ, मेरी आँखों को भिगो गया,
नित धूल झौकता आंखों में, जीवन कटुता में डुबो गया।
अब सम्बंध सुहाते नहीं मुझे, हो गयी वितृष्णा इन सबसे,
अपनों ने ही किये प्रपंच, तो करूं शिकायत अब किससे।
खुद से ना कोई उपालम्भ, हर फर्ज निभाया शिद्दत से,
अपने ही छलते रहे सदा, खुद अपनी अपनी फितरत से।
रही अडिग जीवन पथ पर, बाधाएं विचलित कर न सकी,
हर मार्ग मिला, हर लक्ष्य मिला, सफलता ने मानों राह तकी।
कुसुम सिंह अविचल