Wednesday, November 27, 2024
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निजी स्कूलों को नियंत्रित कर सरकार शिक्षकों की भर्ती करें

(प्राइवेट पंजों से निकल राज्य के अधीन हो पूरी शिक्षा व्यवस्था, निजी स्कूलों के नेटवर्क पर लगाम लगानी होगी) -प्रियंका सौरभ
दरअसल सरकारी स्कूल फेल नहीं हुए हैं बल्कि यह इसे चलाने वाली सरकारों, नौकरशाहों और नेताओं का फेलियर है। सरकारी स्कूल प्रणाली के हालिया बदसूरती के लिए यही लोग जिम्मेवार है जिन्होंने निजीकरण के नाम पर राज्य की महत्वपूर्ण सम्पति का सर्वनाश कर दिया है। वैसे भी वो राज्य जल्द ही बर्बाद हो जाते है या भ्र्ष्टाचार का गढ़ बन जाते है जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और पुलिस व्यवस्था पर निजीकरण का सांप कुंडली मारकर बैठ जाता है। आज निजी स्कूलों का नेटवर्क देश के हर कोने में फैल गया है। सरकारी स्कूल केवल इस देश के सबसे वंचित और हाशिये पर रह रहे समुदायों के बच्चों की स्कूलिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अच्छे घरों के बच्चे निजी स्कूल में महंगी शिक्षा ग्रहण कर रहें और इस तरह हम भविष्य के लिए दो भारत तैयार कर रहें है।
दरअसल शिक्षा के माफिया स्कूली शिक्षा को एक बड़े बाज़ार के रूप में देख रहे हैं, जिसमें सबसे बड़ी रुकावट सरकारी स्कूल ही हैं। इस रुकावट को तोड़ने के लिए वे आये दिन नई-नई चालबाजियों के साथ सामने आ रहे हैं जिसमें सरकारी स्कूलों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप वयवस्था को लागू करने पर जोर दे रहें है। शिक्षा की सौदेबाजी के इस काम में नेताओं और अफसरशाही का भी समर्थन मिल रहा है जो सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने में मदद करते है और चाहते है कि यह व्यवस्था दम तोड़ दे निजीकरण इस व्यस्था को अपने आगोश में लें ले। यही कारण है कि राज्य सरकारें प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, ज़रूरी आधारभूत सुविधाओं की कमी, बच्चों की अनुपस्थिति और बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने के मसलों पर सरकार कोई जोर नहीं देती। आपको हैरानी होगी कि हरियाणा में पिछले दस सालों में प्राथमिक शिक्षकों की कोई भर्ती नहीं गई और वहां के लाखों छात्र अपनी योग्यता को साबित कर एचटेट की दस-दस बार परीक्षाएं उत्तीर्ण कर चुके है। इससे यही साबित होता है कि सरकार राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर जोर नहीं देना चाहती।
करीब पांच साल पहले इलाहाबाद हाई ने सरकारी स्कूलों की दुर्दशा पर सख्त कदम उठाया था। कोर्ट ने कहा था कि जब तक जनप्रतिनिधियों, उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी। सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में पढ़ें और ऐसा न करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई हो। ये बात भी रखी गई कि यदि कोई कॉन्वेंट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजे तो उस स्कूल में दी जाने वाली फीस के बराबर धनराशि उससे प्रतिमाह सरकारी खजाने में जमा कराएं और उनकी वेतनवृद्धि व प्रोन्नति कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था हो। कोर्ट ने प्रदेश सरकार को उस समय अगले शिक्षा सत्र से इस व्यवस्था को लागू करने को कहा था। मगर यह व्यवस्था लागू करने का आदेश शिक्षा के ठेकदारों ने कागज़ों में ही गुम कर दिया।
हमें सबके लिए एक समान स्कूल की बात करनी होगी। लेकिन, यह बात इतनी सीधी नहीं है। जब पानी से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य तक की चीजों को बाजार में ला दिया गया हो तो यह बात बेतुकी है। लेकिन, शिक्षा की जर्जर हालत को सुधारने के लिए हमें इस दिशा में बढ़ना होगा। सामाजिक न्याय, समरसता और बदलाव का यही एकमात्र रास्ता है। ये देश भर के सभी बच्चों के लिए एक ऐसी व्यवस्था की वकालत है, जिसमें हर वर्ग के बच्चे को बगैर किसी भेदभाव के एक साथ पढ़ने-बढ़ने का अधिकार मिल सकता है। सबके लिए एक समान शिक्षा के अभाव में समाज के ताकतवर लोगों ने सरकारी स्कूलों को ठुकरा दिया है और वो अपने बच्चों को हाई-प्रोफाइल स्कूल में भेजना चाहते है। जिसके फलस्वरूप शिक्षा माफिया पनपते जा रहें है। शिक्षा को बाजारू बनाकर रख दिया गया है।
वैसे भी सावर्जनिक स्कूल तभी अच्छे तरीके से चल सकतें है जब इसके संचालन में समुदाय और अभिभावकों की भागीदारी हो। आज ग्रामींण क्षेत्र के ज्यादार सरकारी स्कूल बच्चों के अभाव में बंद होने के कगार पर है। लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की बजाय पीले वाहनों में भेज रहें है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए समुदाय की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है लेकिन इस दिशा में सबसे बड़ी समस्या संसाधन सम्पन्न अभिभावकों का निजी स्कूलों की तरफ झुकाव है। सरकारी स्कूल के शिक्षक खुद अपने बच्चों को निजी स्कूल में भेज रहे है। ऐसे में वो बाकी लोगो को कैसे प्रेरित कर पाएंगे। दरअसल हमारे सरकारी स्कूल संचालन/प्रशासन, बजट व प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी और ढांचागत सुविधाओं पर खरे उतरने में नाकाम रहे हैं जिससे लोगों का ध्यान सरकारी स्कूलों से हटकर निजी स्कूलों की तरफ पर केंद्रित हो गया है और दूसरा शिक्षा माफियों ने इसे मौका समझकर अपना धंधा बना लिया है। इन माफियों में बड़े-बड़े नौकरशाह और नेता खुद किसी न किस तरह हिस्सेदार है। ऐसे में वो एकदम सरकारी स्कूलों की दिशा और दशा सुधारने के प्रयास नहीं करना चाहते।
ऐसे में एक उम्मीद न्यायपालिका से ही बचती है। वर्तमान दौर में देश भर में शिक्षक पात्रता उत्तीर्ण युवाओं की कोई कमी नहीं है। लेकिन वो नौकरी के अभाव में बेरोजगार है और देश हित में योगदान देने में असमर्थ है। केंद्र सरकार और न्यायपालिका को शिक्षा के निजीकरण पर पूर्ण पाबंदी लगानी चाहिए और देश में सबके लिए एक समान शिक्षा की पहल को पुख्ता करना चाहिए। तुरंत फैसला लेते हुए अब स्कूलों में अध्यापक और छात्र अनुपात को घटाया जाये। ये फैसला कोरोना जैसी महामारी से बच्चों और शिक्षकों के बचाव का माध्यम तो होगा ही साथ ही बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में भी सहायक होगा। सभी निजी स्कूल सरकार के अधीन कर नयी शिक्षक भर्ती करें ताकि देश भर के प्रतिभाशाली शिक्षक हमारी शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करें।
पहले से चल रहें निजी स्कूल सरकार के लिए एक विकसित व्यस्था का काम करेंगे। सरकार को कोई इमारत और अन्य सामान की व्यवस्था में कोई दिक्क्त नहीं होगी। केवल अपने अधीन कर नए शिक्षक भर्ती करने होंगे। इस कदम से भविष्य में एक भारत का निर्माण होगा, सबको एक समान शिक्षा मिलेगी, गुणवत्ता सुधरेगी, युवाओं की बेरोजगारी घटेगी और शिक्षा माफिया खत्म होंगे।
(ये लेखक के निजी विचार है)
चित्रांकन: विपिन सुभाष, कक्षा-तृतीया