कितने विमर्श, कितनी तारीफें, कितनी संवेदना लिखी गई है औरतों को लेकर। पर हर कोई भूल चुका है कि मर्द की आँखों में भी नमी होती है जो पलकों पर ही ठहर गई है, एक कतरा भी बहकर परिवार की खुशियाँ तितर-बितर नहीं होने देता। संसार रथ के दो पहिये जब कदम से कदम मिलाकर चलते है,,, तब हर मर्द की ये कोशिश रहती है अपनी साथी को रक्षते अगवानी में एक कदम आगे रहने की। वो जानता है वो परिवार का स्तंभ है, कभी टूटने नहीं देता खुद के होते परिवार की माला को।
कार्येशु दासी, करणेषु मंत्री,भोज्येशु माता, शयनेषु रंभा,
रूपेच लक्ष्मी, क्षमया धरित्री,षट्कर्म युक्ता कुळधर्मपत्नी।”
ऐसा कोई मंत्र पुरुष के लिए नहीं बना,, साहित्य की पहली पसंद हंमेशा स्त्री ही रही, पुरुष का समर्पण एक कदम पीछे ही रहा। “माँ ही हंमेशा महान कहलाई” बेशक माँ की किसीसे तुलना सूरज को दिया दिखाने जैसी होगी, पर पिता का देवत्व और समर्पण शब्दों का मोहताज नहीं। वह नि:स्वार्थ परिवार पर कुर्बान होने के लिए जन्मा है।
हर स्त्री के अस्तित्व की पहचान होता है मर्द,,, शादी के बाद स्त्री के पीछे एक नाम जुड़ता है सक्षम, कभी न टूटने वाली दीवार सा मजबूत। बच्चों को पहचान देता है पिता। हर महीने स्त्री की हथेली पर अपने पसीने का फल रखता है पुरुष।
नहीं जताता एक भी ज़ख़्म परवाह की आड़ में छुपा लेता है।
स्त्री को कहाँ पता होता है कब भरपाई होती है लोन की किश्तें, अचानक आने वाली विपदाओं का इन्तजाम भी इन्शोरेंस और मेडिक्लेम के ज़रिए हो जाता है। हर छोटी बड़ी बचत में पत्नी को नोमिनेट करके ताउम्र की सलामती लिख देता है पत्नी के नाम। ना बेटे को पता होता है के जी से लेकर कालेज तक पहुँचाने में पिता ने कितने पापड बेले है। ना बेटी को फ़िक्र करने देता है पाई-पाई जोड़ते दहेज का सरमाया कैसे जुटाया है। खुद कोरे आसमान सा रहकर परिवार के जीवन में हज़ारों रंग घोलता है।
समर्पण, संवेदना, सलामती, संवाद, सहकार और हर बात पर स्वीकृति देते सबकुछ न्योछावर करके संतोष और हंसी का मुखौटा चेहरे पर सजाए अपनों को खुशी देकर खुश होता है पुरुष। कितने रुप में ढ़लते अपना फ़र्ज़ निभाता है बेटा, पति, पिता, प्रेमी, दोस्त,,,,
बेटा बनकर पिता के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहते माँ बाप को सहारा देता है। पति बनकर पत्नी की उम्र भर के लिए जिम्मेदारी निभाता है। पिता बनकर बच्चों के सर की छत बनकर रक्षता है तो दोस्तों के लिए फ़िदा होते तन-मन वार देता है।
प्रेमी का हाथ थामें आधी रात को सड़क पर चलते एक पुरुष मेरे साथ है ये सोचकर ही स्त्री निडर बन जाती है, सलामती का प्रमाण है पुरुष। भले ही स्त्री अपने पैरों पर खड़ी रहकर लाखों कमाती हो, पर अपने मर्द के सीने से लगकर जो सुकून महसूस करती है वही बात एक मर्द की अहमियत को मायना देती है। पत्नी की खुशी में अपना सुख ढूँढते स्वीकृति की मोहर लगाते ज़िंदगी को आसान बनाने की कोशिश रहती है हर मर्द की वो सबकुछ पत्नी और परिवार के नाम करने से नहीं डरता।
हर मुश्किल को अकेले झेलते कभी परिवार को जताता नहीं। एक हुनर शायद ईश्वर ने दिया है मर्द को खारे आँसू पी कर मीठा सुख देता है। तभी तो देखा है कभी गिला तकिया पुरुष का। कमिटमेन्ट में कच्चे नहीं होते मर्द,, अपना वादा अपना फ़र्ज़ हर किंमत पर निभा जाते है। अपने शामियाने का सरताज बीवी को रानी की तरह रखने के लिए संपूर्ण समर्पित होता है। पुरुष का गुस्सा बर्फ़ के समान होता है महज़ चंद पल में पिघल जाता है। सहकार और संवाद से अपने घर की शांति और गरिमा बनाए रखता है।
होते है मर्दो के खुद के भी सपने, खुद के भी अरमाँ पर दफ़न होते है सिने के भीतर। परिवार के सपने जेब में लेकर घूमता है,,, और एक एक पूरे करने की जद्दोजहद में अपने बालों में चाँदी भर लेता है। संघर्ष, अंधेरा, मुश्किल ये सारी चीजें उसे भी बेशक डराती ही है पर मर्द है ना! नहीं जताता। स्त्री का हाथ मजबूती से थामें ज़िंदगी के हर पड़ाव पर अपना किरदार निभाते चट्टान की तरह फूल जैसी नाजुक नारी का सच्चा हमसफ़र बनकर उभरता है। मर्द कि संवेदना को समझो बचपन से पचपन के सफ़र में कितना पीसता है। नारी विमर्श से भरे सौ पन्नों के बीच मेरे लिखें दो पन्नें मर्द की शान में झिलमिलाते नज़र आए तो समझ लेना त्याग की मूर्ति की उर्जा उजागर हो रही है।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)