(आज जब साँस लेने के लाले पड़ रहे हैं तब हमें पता लग रहा है कि, जो असली ऑक्सीजन का स्रोत हैं, वह हमारे वृक्ष ध्वनस्पति हैं। जो अनीति मनुष्य ने की है, परिणाम भी भुगतना तो पड़ेगा। क्या कहता है वृक्ष?)
रचयिता- डाॅ. कमलेश जैन ‘वसंत’, तिजारा
मैं वृक्ष हूँ ‘मनु’ मित्र तेरा, चाहता रहना चिरायु..
रे, मनुज अब भी सम्हल.. मैं हूं तेरी प्राणवायु..
प्रथम युग में कल्पतरु, इस भूमि का दाता बड़ा था..
अहर्निश सब कुछ लुटा, परमार्थ में अर्पित खड़ा था..
मैं ही तेरी औषधि,जीवन मेरा निःस्वार्थ है रे..
छाल-पल्लव, फूल-फल, कण-कण मेरा परमार्थ है रे..
मुझको अपनाकर रहे, आनंदमय ऋषि-मुनि शतायु..
रे, मनुज अब भी सम्हल..मैं हूँ तेरी प्राणवायु..
प्रकृति के सौंदर्य का, मैं ही प्रबल कारण रहा हूँ..
सब रहें नीरोग सुंदर, मैं नियति का प्रण रहा हूँ…
सृष्टिरूपी मल्लिका का, जो सुखद उपहार हूँ मैं..
पशु-पक्षियों का आसरा, वसुधैव का श्रृंगार हूँ मैं..
पर सुनी कब ‘आह’ मेरी? मैं बिलखता-सा जटायु..
रे, मनुज अब भी सम्हल..मैं हूं तेरी प्राणवायु..
तू है महत्वाकांक्षी.. धर दी हमारे तन पे आरी..
वेदना सहता रहा, फिर भी फिकर करता तुम्हारी…
अस्तित्व मेरा ध्वंस कर, तूने महल अपना सजाया..
देह तेरी रहे पावन, मैंने अपना तन जलाया…
राख बनकर भूमि को..मैंने किया है उर्वरायु..
रे, मनुज अब भी सम्हल..मैं हूँ तेरी प्राणवायु..
हां, अकृत्रिम ऑक्सीजन का विपुल भंडार मैं ही..
हां, मनुज की चेतना का आदि से आधार मैं ही…
घाम-पाला-चोट सहकर, सदा मैंने फल दिया है..
कुछ नहीं एहसान तेरा, बादलों ने जल दिया है…
दे रहे आशीष, कटकर, बहते मेरे रक्तस्नायु..
रे, मनुज अब भी सम्हल..मैं हूं तेरी प्राणवायु..
संग्रह- डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’