मेरे समझ में यह कभी नहीं आया कि इतने बंधन और इतनी रूढ़ियां क्यों बनाई गई है? जब सांसे घुटती हैं तब यह समाज दिखाई नहीं देता। जरा सा सुकून हासिल हुआ कि लोगों को खलने लगता। इस अवसाद भरी जिंदगी से बाहर निकल कर दो पल सुकून के क्यों अखर जाते सबको? आखिर इन्हें ढोने के लिए क्यों मजबूर हूं मैं? इन्हें ढोते-ढोते इक उम्र जाया हो गई और अब भी जंग जारी है। इस बारिश ने और कोरोना के कारण हुई लॉकडाउन में “घर में रहें सुरक्षित रहें” के नियमों का मैं पालन कर रहा था और बारिश में चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा था। सन्नाटी सड़क और पेड़ों के पत्तों से गिरती हुई बारिश की बूंदें मेरे मन को और ज्यादा रीता हुआ सा कर रही थी और यही सब बातें मेरे जेहन में घूम रही थी।
मालती से मिले हुए मुझे चार महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका था। उससे मुलाकात भी कुछ अजीबोगरीब तरीके से हुई थी। मैं कानपुर जाने के लिए बस में सफर कर रहा था और करीब घंटे भर का सफर अभी बाकी था कि एक मैडम मेरे पास में आकर बैठ गई, वो कुछ परेशान सी लग रही थी। कुछ देर बाद कंडक्टर टिकट चेक करने के लिए आया और बाजू में बैठी मैडम से टिकट मांगा तो उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा कि, “अरे आप इन्हें मेरा टिकट दिखाइए ना।” मैं एकदम से हकबका गया। कुछ समझा नहीं और मैं उसके चेहरे को देखने लगा। उसने आंखों से इशारा किया जिसमें याचना थी कि अभी की स्थिति संभाल लें। मैंने उस महिला का टिकट लिया और उसके हाथ में थमा दी। कंडक्टर के जाने के बाद उस महिला ने मुझे थैंक यू कहा और बताया कि उसका पर्स रास्ते में कहीं गिर गया है जिसकी वजह से वह टिकट नहीं ले पाई और ऐसे वह किससे मदद मांगती। वह अगले दिन रुपए वापस करने के लिए कहने लगी।
मैं:- “अरे… नहीं ठीक है, कोई बात नहीं। रुपए वापस करने की जरूरत नहीं है। आपके काम आ गया ये अच्छी बात है। वैसे आपको जाना कहां है?”
महिला:- “कानपुर। आप कुछ रुपए और उधार दे दें तो आपका एहसान होगा क्योंकि घर तक जाने के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं है। मैं कल पक्का आपके पैसे वापस कर दूंगी”।
मैंने उसे दो सौ रूपये दिए और सोचने लगा कि कैसे स्त्री है और पैसे मांग रही है। कहीं ठग तो नहीं? कि तभी उस महिला ने रुपए वापस करते हुए कहा कि घर जाने के लिए तो पचास रूपये लगते हैं, आपके पास पचास रूपये हो तो दे दीजिए। मैंने उसे पचास का नोट थमा दिया।
महिला:- “थैंक यू”।
मैं मुस्कुरा कर रह गया और साथ ही मेरी सोच भी बदल गई उस महिला के प्रति।
महिला:- “आपका नंबर दे दीजिए ताकि आपको आपके रुपए वापस कर सकूं, नहीं तो मैं आपको कहां ढूंढू़ंगी”।
मैं:- “अरे, नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं है।”
महिला:- “अरे, जरूरत कैसे नहीं है? मेरा मन नहीं स्वीकार करेगा कि मैं आपसे इस तरह से पैसे ले लूं”। मजबूरन मुझे अपना नंबर देना पड़ा।
महिला:- “कानपुर में आप कहां रहते हैं?”
मैं:- “नहीं मैं कानपुर में नहीं रहता, मैं तो इलाहाबाद से आया हूं, यहां काम के सिलसिले में आया था”।
महिला:- “तब आप कब वापस जाएंगे?”
मैं:- “देखता हूं, जब काम खत्म हो जाएगा वापस चला जाऊंगा”। वो कुछ बोली नहीं कुछ समय बाद हम दोनों अपने अपने गंतव्य पर चले गये।
अगले दिन मैं अपने काम में व्यस्त रहा। काम के सिलसिले में दो चार लोगों से मिलना था आर्डर और पेमेंट दोनों लेना देना था। मैं उसी सब में उलझा रहा कि फोन की घंटी बजने से मेरा ध्यान भटका। नंबर अनजान था।
मैं:- “हेलो”।
(सामने से फोन पर) “हेलो सर नमस्कार! आपने मुझे पहचाना नहीं?”
मैं:- “आप कौन बोल रही हैं?”
(फोन पर) “जी मैं मालती कल आपसे बस में मुलाकात हुई थी। वो आपके पैसे वापस करने थे तो मैं बस स्टैंड पर आपका इंतजार कर रही थी। आप दिखे नहीं तो फोन कर लिया”।
मैं:- “अरे, मालती जी इसकी कोई जरूरत नहीं। आप बेकार में परेशान हो रही है”।
मालती:- “देखिए आपको पैसे तो लेने ही पड़ेंगे नहीं तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा, प्लीज”।
मैं:- “जी ठीक है। मैं बस स्टैंड आ जाऊंगा”।
मालती:- “बस स्टैंड के पास एक छोटी होटल है वहीं पर आ जाइएगा, मैं वही मिलूंगी और होटल का नाम आशियाना है”।
मैं:- “घंटे भर का वक्त दीजिए, मैं पहुंचता हूं”।
करीब एक घंटे के बाद मैं होटल आशियाना पहुंचा जहां मालती मेरा इंतजार कर रही थी।
मैं:- “सारी, आपको ज्यादा इंतजार करना पड़ा। काम में उलझा हुआ था, जल्दी निकल नहीं पाया”। मालती मुस्कुराकर रह गई।
मालती:- “आप क्या लेंगे चाय या ठंडा?”
मैं:- “जी चाय चलेगी”। मालती ने एक चाय और एक ठंडा ऑर्डर किया। फिर उसने मुझे मेरे पैसे वापस किए और धन्यवाद कहा।
मालती:- “जल्दी से लोग इस तरह किसी की मदद नहीं करते लोगबाग ठग समझ लेते हैं, लेकिन आपने मेरी मदद की उसके लिए बहुत धन्यवाद और आपने मुझे गलत व्यक्ति नहीं समझा इसके लिए भी धन्यवाद। क्या मैं आपका नाम जान सकती हूं?”
मैं:- “मोहन, मोहन कहते हैं मुझे। वैसे कुछ देर के लिए तो मैंने भी आपको ठग ही समझ लिया था लेकिन बाद में जब आपने पचास रूपये ही मांगे तो मेरी शंका जाती रही। खैर आपसे मिलकर अच्छा लगा”।
मालती:- “आपके घर में कौन-कौन है?”
मोहन:- “मेरी पत्नी और एक प्यारी सी बेटी है। मां और पिताजी हैं”।
मालती:- “जी मतलब भरा पूरा परिवार है आपका। पत्नी कामकाजी हैं क्या?”
मोहन:- “नहीं वह बाहर काम नहीं करती। बिटिया अभी छोटी है और मां – पिताजी की भी जिम्मेदारी है। मैं घर पर जरा कम ही ध्यान दे पाता हूं। चलिए अब चलूंगा, अगली बस से इलाहाबाद के लिए निकलना है”।
मालती ने होटल का बिल चुकाया और हमने विदा ली।
मैंने सोचा था कि अब मालती से मुलाकात नहीं होगी क्योंकि उसके और मेरे मिलने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया था मगर महीने भर बाद ही एक अनजान नंबर फोन पर बजा।
मैं:- ” हेलो, हेलो मैं मालती बोल रही हूं।
मोहन:- “मालती……..कौन मालती?”
मालती:- “कौन मालती? मुझे पता था, आप भूल जाएंगे वही कानपुर बस स्टैंड वाली जिसे आपने पैसे दिए थे”।
मोहन:- ओह्ह… हां.. हां कहो कैसे याद किया?”
मालती:- “मैं इलाहाबाद आई हुई हूं मौसीजी के पास। यहां आई हूं तो सोचा कि मिलती चलूं आपसे”।
मोहन:- “अभी… अभी तो आना संभव नहीं है मेरे लिए”। मालती:- ” मैं यहां मौसीजी के पास दो दिन हूं। आप जब भी फ्री हों तो मिल लीजिएगा”।
मोहन:- “जी बिल्कुल”।
मैं उहापोह में पड़ गया कि यह लड़की क्यों मिलना चाह रही है या क्यों इतना जुड़ रही है मुझसे? मैं समझ नहीं पा रहा था। ऐसा कुछ भी नहीं था हम दोनों में कि हम आकर्षित हो जाते एक दूसरे से। सोच में ही था कि मिलने जाऊं कि नहीं जाऊं। इसी विचार – विचार में घर आ गया।
मोहन:- “मीनू (पत्नी), एक प्याली चाय बना दो”।
मीनू:- “जी, अभी लाई”।
मीनू:- “लो चाय। तुम तो सारा दिन घर के बाहर रहते हो। घर बाहर का सब काम मुझे ही देखना पड़ता है। ऊपर से पापा जी अलग परेशान करते हैं। कुछ भी खाना उनको पसंद नहीं आता। आपने देखा कि उनका वजन कितना बढ़ गया है? उनकी खाने की फरमाइश बंद ही नहीं होती। डॉक्टर से चेकअप करवाना है उनका। उनकी सांस भी फूलने लगी है। मम्मी को भी दिखाना है उनके पैरों में दर्द है। आपको तो फुर्सत ही नहीं होती। मुझे मायके भी जाना है”।
मीनू स्वभाव की कुछ रूखी थी। वो मेरी मानसिक स्थिति नहीं पढ़ पाती थी या फिर अपनी ही दुनिया में मगन रहती थी। वह मुझे भी समझ नहीं पाती थी। उसे समझ नहीं आता था कि कब क्या बात करनी चाहिए या तो घर की रामायण लेकर बैठ जाती थी या फिर अपनी दुनिया में मगन रहती थी। उसे कोई मतलब नहीं रहता। मैं भी उसके स्वभाव से कभी कभी परेशान हो जाता। मैंने अपने कामों से जरा सी फुर्सत पाई थी और सोचा था कि कुछ समय परिवार के साथ बिताऊंगा लेकिन मीनू अपने मायके चली गई। मीनू के साथ गुड़िया भी चली गई और मैं अकेला रह गया। समझ में नहीं आ रहा था कि घर में अकेला क्या करूं? आखिर में गाड़ी उठाई और मां के पास चला आया। मां के पास मन को जरा सुकून मिला। मां बिन कहे ही सब परेशानी समझ लेती थी।
मां:- “कितने दिन के लिए है यहां पर?”
मै:- “कुछ दिन फुर्सत के निकाले थे, सोचा था कि गुड़िया के साथ घूमने जाऊंगा लेकिन मीनू मायके गई है। तुम चलो कल डॉक्टर के पास अपना चेकअप करवा लो बहुत दिनों से डॉक्टर को दिखाना रह जा रहा है। पापा को भी दिखा देता हूं”।
तीन दिन मम्मी पापा के साथ गुजारे। सुखद एहसास रहा क्योंकि मैं उन्हें समय नहीं दे पाता था। मैं फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया।
सुबह चाय पीते हुए मीनू ने बताया कि किसी कोमल नाम की लड़की का फोन आया था।
मैं:- “क्या कह रही थी?”
मीनू:- “बोल रही थी कि सर से बात करनी है। मैंने कहा कि दस बजे से पहले बात नहीं हो पाएगी। कौन है यह कोमल? क्या रिश्ता है तुम्हारा उससे?”
मुझे गुस्सा आ गया मैंने कहा, “क्या उटपटांग बात करती हो? कुछ भी बोल देती हो और वो शर्मा जी जो मेरे कस्टमर हैं उनकी रिसेप्शनिस्ट है”। विनीता भाभी के लिए भी तुम ऊटपटांग बोलते रहती हो। किसी के हंसमुख स्वभाव के होने का यह मतलब नहीं होता है कि वो चरित्र से खराब है।मैं उठा और तैयार होने चला गया।
मैं मीनू के स्वभाव को समझने में नाकामयाब था। वह अपनी सहेलियों, मायके और अपने काम में ही व्यस्त रहती थी। वो मुझसे कुछ चिढ़ी हुई सी रहती थी। कारण कभी समझ में नहीं आया जबकि मैं हर तरह से उसे खुश रखने की कोशिश करता था। शायद हमारी सोच नहीं मिलती थी इस वजह से हम में दूरियां थी। अक्सर मैं टीवी देखते देखते हॉल में सोफे पर ही सो जाया करता था। कभी कभी जिंदगी बोझ सी लगने लगती थी। कोई रौनक नहीं थी जिन्दगी में। आखिर मैंने खुद को काम में बहुत ज्यादा व्यस्त कर लिया और मीनू अपनी दुनिया में मस्त हो गई। कुछ जरूरत पर ही बातचीत होती थी हमारी।
फोन बजने पर मालती का नाम दिखा तो तुरंत उठा लिया।
मैं;- “हेलो, मालती कैसी हो?”
मालती:- “अच्छी हूं। आप तो याद करते नहीं? कभी फोन नहीं करते? तो सोचा मैं ही कर लूं। कल इलाहाबाद आ रही हूं , मासी के यहां फंक्शन है। आपसे मिलना चाहती हूँ”।
मैं:- “अरे, इतनी शिकायतें एक साथ। मैं बस स्टैंड आ जाऊंगा फिर बातें करेंगे और बाद में तुम्हें घर छोड़ दूंगा। अब शिकायत दूर हो गई तुम्हारी”।
मालती:- “हां। मैं इंतजार करूंगी”।
पता नहीं कोई जान पहचान ना होते हुए भी वो क्यों मुझे अपनी सी लगने लगी थी। मैं सुबह ग्यारह बजे मालती को लेने पहुंच गया। वह बस से उतरते हुए बोली चलो पहले चाय पिलाओ। बहुत तलब लगी है, फिर घर जाऊंगी”। पास के होटल में हमने चाय पी और बातें करने लगे। यूं ही औपचारिक बातें घर में कौन है पिताजी क्या करते बगैरा बगैरा फिर मैंने उसको ऑटो में बिठा कर घर वापसी की। जाते जाते मालती ने फिर से मिलने का वादा ले लिया। मैं भी उससे जुड़ने लगा था तो मना नहीं कर पाया। कुछ इसी तरह से हमारे मिलने का सिलसिला बढ़ता चला गया है। कुछ हद तक मैं अपनी परेशानियां उसे बता चुका था। मालती भी कुछ घरेलू परेशानियों के कारण और अच्छे रिश्ते ना मिलने के कारण अभी तक अकेली थी। हम दोनों का झुकाव एक दूसरे के प्रति बढ़ने लगा। धीरे-धीरे हम हर बात एक दूसरे से शेयर करने लगे। वह मेरा ध्यान रखने लगी क्या खाया? कितनी देर तक काम किया। मेरे मना करने पर भी मुझसे मिलने चले आना, मुझे अंदर तक सुकून देता था। मैं मालती को चाहने लगा था। यही हाल मालती का भी था। एक दिन मैंने मालती से कहा, “मैं शादीशुदा हूं मेरी एक बेटी भी है। जो स्थान मीनू का है वो मैं तुम्हें नहीं दे सकता। मैं मेरा घर नहीं तोड़ सकता। मुझे गुड़िया के भविष्य की चिंता है”।
मालती:- मैने आपसे कभी कुछ कहा? कोई डिमांड रखी क्या? मैं सिर्फ आपका प्यार चाहती हूँ। आप अपने घर की जो जिम्मेदारी निभाते आए हैं वो निभाते रहिये। बस मुझे मेरे हिस्से का प्यार दे दीजिए”।
मैं सोच रहा था कि जिंदगी आसान क्यों नहीं होती? आज जो व्यक्ति मुझे अच्छा लगता है, मुझे समझता है, मेरी चिंता करता है मैं उसे सामाजिक रूप से क्यों नहीं अपना सकता? क्यों ऐसे बंधन है जिन्हें ढोने पर हम मजबूर है। जहां सोच नहीं मिलती, जहां मन, विचार नहीं मिलते वहाँ रिश्तो को जबरदस्ती निभाने पर मजबूर हैं हम। मन बगावत कर रहा था लेकिन बंधन और रूढ़ियों ने पैर जकड़े हुए थे, मगर मैं मालती से दूर भी नहीं जा पा रहा था। मैं मालती को खोना नहीं चाहता था।
प्रियंका वरमा माहेश्वरी गुजरात