कुछ घरों में माँ बाप के हालात देखकर आँखें भर आती है। नये ज़माने के बच्चों की दुनिया में क्यूँ समा नहीं सकते माँ-बाप जब ये बच्चें बड़े हो जाते है। क्यूँ वो बच्चें इतने ज़्यादा समझदार हो जाते है जब माँ-बाप बूढ़े हो जाते है। माँ-बाप दो मिलकर दो तीन बच्चों को लाड़ से पालते है पर दो तीन बच्चें मिलकर माँ बाप को ढंग से रख नहीं सकते।
माना की एक पीढ़ी का अंतर हो जाता है माँ बाप और बच्चों की सोच के बीच। पर जिनको अपने पैरों पर चलना सिखाया वही बच्चें बोलते है की आपको कुछ पता नहीं, आप नहीं समझेंगे या आपको कुछ आता नहीं ये कहाँ के संस्कार है।
जन्म लेता है जब बच्चा तो माँ-बाप की दुनिया संपूर्ण हो जाती है। बच्चे के आसपास लिपटी दुनिया में खो जाते है, अपने हर सपने बच्चों की आँखों में भर देते है। बच्चे का हंसना, रोना, पलना, बढ़ना उनकी बातें बिना अल्फ़ाज़ों के भी समझ लेते है माँ बाप। वहाँ बच्चे बड़े होते ही उनके लिए माँ-बाप की बातें क्यूँ फ़िज़ूल, बेमतलब की और बेमायने हो जाती है। खून का रिश्ता क्यूँ स्वार्थ में बदल जाता है ? या यूँ कहो की डीएनए वाला एटीएम में तब्दील हो जाता है। क्यूँ जो लाड़ प्यार माँ बाप बच्चों को देते है वो अनमना और नफ़रत की भावना के साथ लौटाते है।
माँ बाप की फ़िक्र क्यूँ बंदीश लगने लगती है। बेटा खाना खा ले, बेटा जल्दी सोजा या बाहर गए हुए बेटे को फोन करके कहना की बेटा बहुत रात हो गई घर आजा ये प्यार और फ़िक्र जताना क्यूँ अखरता है जब बच्चे बड़े हो जाते है।
एक ज़माना था जब किसी भूल के लिए बच्चे अपने माता-पिता की मार भी बिना किसी शिकायत के चुपचाप सह लेते थे। किंतु आज के बच्चों को मारना तो दूर आज तो माता-पिता अपने बच्चों को डाँटने में भी डरते हैं कि कहीं गुस्से में उनका बच्चा कुछ कर न बैठे या तो सामने से उल्टा जवाब ना दे दें।
क्या वो सचमुच में इतने बड़े बन जाते है की बूढ़े माँ-बाप की किंमत घर में पड़े पुराने सर सामान सी हो जाती है। कँधे पर बिठाकर खिलाने वाला बाप क्यूँ बोझ लगने लगता है।
खिलौने, कहानीयाँ, झूला जुलाना और लौरी गाना बच्चे की हर गलती माफ़ करते माँ का ढ़ेरों प्यार जताना क्यूँ एक भी अहसान याद नहीं रहता जब बच्चें बड़े हो जाते है। माना की डिज़िटल ज़माना है आजकल के बच्चे नये युग के मॉर्डन मोडल मानते है खुद को। खुद का एक स्टेटस होता है। माँ बाप ताल-मेल बिठाना चाहे तो हंसी उड़ाएंग, और नई सोच नहीं अपनाते तो पुराने ज़माने के लगते है। अरे ये क्यूँ भूल जाते है बच्चे जब बड़े हो जाते है की तू आज जो कुछ है उसके पीछे एक बाप के पसीने की खुशबू और माँ के त्याग की कहानी छुपी है। होगी उनकी दुनिया नई, सोच नई परिवर्तन दुनिया का नियम है पर इतना बदलाव आँखों में किरकिरी भर जाता है। जब माँ-बाप का रचा बसाया घर उनके लिए पराया हो जाता है। कोख जना खुद ही वृध्धाश्रम की चौखट पर छोड़ जाता है।
क्यूँ जिसकी ऊँगली पकड़ कर चलना सिखते है उनके बुढ़ापे की लाठी बनने की बजाय दर-दर की ठोकरे देते है जब बच्चे बड़े हो जाते है।
भावना ठाकर, बेंगुलूरु