कहते है जीवन में साक्षात भगवान का स्वरूप माता-पिता होते है और यह सच भी है कि बच्चे के लालन-पालन में माता-पिता स्वयं ही खर्च हो जाते है। माता-पिता बनने के बाद उनकी केवल एक ही अभिलाषा रह जाती है कि मेरे बच्चे का कभी अहित न हो। भवानी को अपनी शिक्षा और इंटर्नशिप के कारण अपने गुरु के घर जाकर भी कभी-कभी अध्ययन में आने वाली परेशानियों के समाधान हेतु उनसे परामर्श लेना पड़ता था क्योंकि गुरुजी अत्यंत व्यस्त रहते थे। वे धन के अत्यंत ही लोभी थे इसलिए अतिरिक्त जिम्मेदारियों को भी लेने के लिए हमेशा तैयार रहते थे क्योंकि इससे उनकी आमदनी में इजाफा होता था। यहीं स्वभाव उनकी पत्नी में भी था। चापलूसी और चाटुकारिता भी उनका पीछा छोड़ नहीं पाई।
भवानी कुछ नया करना चाहती थी। वह किस तरीके से अपने नवीन प्रयोग का क्रियान्वयन करें इसके लिए गुरु के मार्गदर्शन पर निर्भर थी। भवानी की विशेषता उसका कुशल व्यवहार और समझदार होना था। इसी के चलते गुरुजी और उनकी पत्नी उसे कुछ व्यक्तिगत और घरेलू कार्य भी बता दिया करते थे। भवानी को न चाहते हुए भी गुरु की आज्ञा समझते हुए इन कार्यों को पूर्ण करना होता था। कभी-कभी गुरुजी और उनकी पत्नी शिक्षा संबन्धित कार्यों के लिए बाहर जाते तब भवानी को उनकी लड़की सीता के साथ घर पर ही रुकने को बोल जाते, पर सीता तो निहायती घमंडी और अड़ियल थी। वह अपने माता-पिता के पद, पैसे और प्रतिष्ठा के अभिमान में मगरूर थी। वह भवानी को अत्यंत ही हीन समझती थी। वह घर में उसके रुकने से लेकर खाने-पीने की वस्तुओं इत्यादि के प्रति भवानी से दुर्व्यवहार करती थी। उच्च शिक्षित होने पर भी वह माता-पिता की अंध भक्त थी। वह तो केवल उनके पद चिन्हों पर आँख मूंदकर चल रही थी। उसकी एक और बुराई अपने माता-पिता की तरह दूसरों की शारीरिक बनावट का उपहास और माखौल बनाने की थी। उसने अपनी शिक्षा का कभी उपयोग ही नहीं किया जोकि इंसानियत का भी पाठ सिखाता है।
भवानी मजबूरी के चलते यह सब गलत व्यवहार बर्दाश्त कर रही थी क्योकि उसके उद्देश्य मात्र अपनी शिक्षा को पूर्ण करना था। भवानी के खुद के घर में भी यदि माता-पिता भुलवश कोई गलत निर्णय लेने जाते तो भवानी उन्हें प्रेमपूर्वक समझा-बूझाकर सत्य से परिचित करवाती और वे भी सत्य जानने पर सहर्ष उसका स्वागत करते परंतु इसके विपरीत सीता तो अपने स्वविवेक का उपयोग करने के बजाए अपने माता-पिता के साथ लालची बनने, दूसरे को हीन समझने और उनका शोषण करने का स्वभाव सीख रही थी। भवानी मन ही मन सोच रही थी कि यह पूर्णतः सत्य है की जीवन की मति और गति के निर्धारक माता-पिता होते है पर हमें शास्त्रों में प्रहलाद का भी उदाहरण मिलता है जिसने अपने पिता की गलत बात पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं किया और सच की राह पर अकेला ही निडर होकर चला। प्रहलाद ने स्वविवेक का उपयोग किया और अपने पिता का भी उद्धार किया। इस लघुकथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि माता-पिता की अंध भक्ति हितकारी नहीं है यदि वे गलत है तब हमें प्रेमपूर्वक उन्हें सत्य का मार्ग सुझाना चाहिए। हमें अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करके भी समाज हित में निर्णय लेना चाहिए।
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)