किसी भी लेखन को पढ़ कर उसके बारें में बताना समीक्षा कहलाता है। समीक्षक द्वारा की गई टिप्पणी पाठकों को पुस्तक पढ़ने या ना पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। किसी किताब, लेख, कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया होती है जो अच्छी या बुरी हो सकती है। समीक्षा से पाठकों को लेखन के विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है। समीक्षा मतलब समालोचना, किसी भी लेखन की समीक्षा व्यवहारिक आलोचना का एक सशक्त रूप होती है। लेकिन लगता है कि आज यह काम कुछ व्यवहारिक बन है, आजकल रचना और लेखों की समीक्षा निजी संबंधों को निभाने के तौर पर की जाती है, मतलब लेखक को खुश करने का ज़रिया। समीक्षा की स्थिति आज दायित्वहीनता की परकाष्ठा तक पहुंच चुकी है। समीक्षाएं आज विशुद्ध लेन-देन का जरिया बन चुकी है।
एक अच्छे समीक्षक का फ़र्ज़ होता है की लेखक की खूबियों के साथ-साथ कमियों को भी उजागर करें नां कि अच्छी-अच्छी बातें लिखकर मक्खन लगाकर चने के पेड़ पर चढ़ा दे। ऐसी समीक्षा लेखक के विकास को बाधित करती है।
अगर आप किसी प्रतियोगिता में रचनाकारों के लेखन की समीक्षा करते है तो आपकी नज़र में हर प्रतिभागी एक विद्यार्थी जैसा होने चाहिए, किसी खास प्रतिभागी के लिए पक्षपाती वलण आपको अपनी ही नज़र में गिरा देता है। और जैसे एक शिक्षक विद्यार्थी को उसकी गलती पर टोकते है वैसे ही समीक्षक को प्रतिभागियों की कमियां भी बतानी चाहिए ताकि अगली प्रतियोगिता में उस गलती को सुधार सकें। आलोचना करना और सुनना दोनों ही गलत नहीं, इंसान गलतियों से ही सीखता है पर गलती मानने का हुनर हर किसीमें नहीं होता।
आजकल कुछ लेखक पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों से अपने साहित्यिक और गैर साहित्यिक संबंधों के बदौलत सेटिंग करके यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी किताब की समीक्षा अमुक समीक्षक ही लिखें। कई बार लेखक के कहने पर उसका खड़ा किया समीक्षक समीक्षा लिखकर दे देता है और कहता है लीजिए छपवा दीजिए आपकी बुक हीट हो जाएगी। इस तरह की समीक्षाओं का क्या प्रभाव पड़ेगा लेखक और पाठकों पर ये नहीं सोचते। ऐसे दायित्वहीन समीक्षक हर तरह की नैतिकता को बाजु पर रखकर, लेखक को प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम और हरिवंश राय बच्चन आदि की श्रेणी में रख देते है। फिर भले ही लेखन कितना भी गया गुज़रा क्यूँ न हो। ऐसा काम लेखक की लेखनी को क्षति पहुंचाने के साथ पाठकों के साथ भी घोर अन्याय करता है। पाठक बुक खरिदता है, पढ़ता है फिर देखता है कि किताब और समीक्षा में कोई साम्य ही नहीं है तो उसका समीक्षा और समीक्षक दोनों पर से भरोसा उठ जाता है।
साहित्यिक जगत से आलोचना लगभग ख़त्म हो गई है। आलोचना की जगह समीक्षा ने ले ली है। क्यूँकि इंसान की फ़ितरत है किसीको आलोचना सुनना पसंद नहीं और समीक्षक आलोचना करके लेखक की नज़र में बुरा बनना नहीं चाहता। क्यूँकि आलोचना करने पर खुद समीक्षक को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है।
हिन्दी साहित्य का एक दौर वह भी था जब दिनकर जी की उर्वशी की भगवतशरण उपाध्याय द्वारा की गयी ध्वंसात्मक समीक्षा उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी और साहित्य जगत में तूफान आ गया था। उस दौर के अधिकांश रचनाकार इस समीक्षा पर बहस में शामिल हुए थे। कुछ ऐसे ही तीखी समीक्षा श्रीपतराय द्वारा लिखी गई राग दरबारी समीक्षा थी तब समीक्षाओं की एक विश्वसनीयता थी और उस पर ध्यान भी दिया जाता था। आज स्थिति यह हो गई है कि लेखक की बौद्धिकता की नहीं संबंध निभाने के लिए समीक्षा की जाती है। अच्छा-अच्छा लिखो और अच्छा-अच्छा सुनों।
समीक्षा के पतन का सबसे बडा कारण यही है कि समीक्षक लेखक की कमियां उजागर करने का साहस ही नहीं करते है। कहा जाता है कि साहित्य नैतिकता की आवाज है, लेकिन अब यह नैतिकता आम पाठक की दृष्टि में संदिग्ध हो चुकी है।
समीक्षकों का दायित्व होता है की लेखन के सही, गलत दोनों पहलू पर टिप्पणी करते निष्पक्ष समीक्षा करें जिससे लेखक को अपने कमज़ोर पहलू का भी ज्ञात हो। और अगर आप एक सच्चे लेखक है तो तारीफ़ के साथ-साथ आलोचना को पचाना भी सीखना चाहिए, क्योंकि आलोचना आपको और बेहतरीन लिखने के लिए प्रेरित करती है।
भावना ठाकर ‘भावु’ (बेंगुलूरु,कर्नाटक)