मत करो कर्ज़ लेकर शादियां, इतना खर्च किस लिए, समाज को ये दिखाने के लिए की देखो हमारे पास कितनी संपत्ति है? या देखो हमने कितनी शानो शौकत से अपने बच्चों की शादी की। जब की आपकी शानों शौकत को देखने कोई नहीं आता।
किसी की शादी में कितने लोगों असल में पारिवारिक संबंध निभाने के तौर पर जाते है? शादी में आए करीब सत्तर प्रतिशत लोग दुल्हा-दुल्हन की शक्ल तक नही देखते, उनका नाम तक नहीं जानते। अक्सर विवाह समारोहों में आए लोगों को ये पता नहीं होता कि स्टेज कहाँ सजा है, युगल कहाँ बैठा है उनको सज-धज कर आने में और स्वादिष्ट खाना खाने में ही दिलचस्पी होती है। और यही लोग आपका ही अन्न खाकर पचास नुक्श निकालेंगे, पनीर थोड़ा सोफ़्ट नहीं था सूप टोमैटो की जगह मनचाऊ रखते तो अच्छा रहता वगैरह। विवाह जैसे प्रसंगों में हम ऐसे सत्तर प्रतिशत फालतू जनता को आमंत्रित कर लेते है, जिसे विवाह मे कोई रुचि नही जो आपका सिर्फ़ नाम जानती है, जो केवल आपके घर की लोकेशन जानती है, जो केवल आपकी पद-प्रतिष्ठा जानती है और जो केवल एक वक्त के स्वादिष्ट और विविधता पूर्ण खानों का स्वाद लेने आती है तो क्यूँ ऐसे लोगों को दावत देकर आपकी सालों की कमाई बर्बाद करनी है।
विवाह कोई भंडारा नहीं है कि हर आते जाते राह चलते को रोक कर खाना खिलाया जाए। एक पिता की सालों की मेहनत की पूँजी लग जाती है तब बेटी का मंडप सजता है। विवाह दो व्यक्ति को जन्म जन्मांतर के रिश्ते में बांधने वाली रस्म है, नांकि संपत्ति का दिखावा मंदिर में ईश्वर और नज़दीकि रिश्तेदारों को गवाह रखकर संपन्न कर लेना चाहिए।
सिर्फ़ आपके रिश्तेदारों, और करीबी मित्रों के अलावा आपके विवाह में किसी को रुचि नही होती, ताम-झाम, पंडाल झालर, सैकड़ों पकवान, आर्केस्ट्रा, दहेज का मंहगा सामान एक संक्रमक बीमारी है। जिसे देखकर औरों के मन में भी ये रोग पनपता है और देखा देखी में वह और दुगना खर्चा करते है, चाहे उनका बैंक बेलेंस खाली क्यूँ न हो जाए।
तो ऐसे फालतू जनता के सामने दिखावा करने में अपने जीवन भर की कमाई क्यूँ लूटानी है। पाँच सौ रुपये का कवर थमा कर डेढ़ हज़ार की डिश उड़ा कर निकल जानें वालों को आपके लाखों के ताम झाम से कोई लेना-देना नहीं होता, उनकी आँखों में ये रोशनी बस आधे घंटे के लिए चकाचौंध भरती है और आप उसकी किश्तें जीवन भर चुकाते रहते है। पैसों के इस अपव्यय से बेहतर है बच्चों के नाम की फ़िक्स डिपोज़ीट करवा लें, उनका जीवन संवारिए और एक कुप्रथा का अग्निसंस्कार कीजिए जो सामान्य इंसान की कमर तोड़ देती है।
और ये काम आम इंसान नहीं कर पाएगा, इज्जतदार और पैसेदार लोग जो भी करते है एक बेंचमार्क लग जाता है। अगर दो ऐसे लोग इस कुप्रथा को ख़त्म करने पर अमल करेंगे तो उनके पदचिन्ह पर चलकर पूरा समाज हिम्मत करेगा तो ज़रा सोचिए अपने बच्चों का जीवन संवारना चाहते हो या अपनी पूँजी फालतू लोगों पर लुटाना चाहते हो।
भावना ठाकर ‘भावु’ (बेंगुलूरु, कर्नाटक)