जहां आज महिलाएं इस डिजिटल युग में नित नई ऊंचाइयों को छू रही हैं और सबसे बड़ी बात कि गरीब तबकों से आई हुई महिलाएं, लड़कियां भी अपने सपनों को पंख लगा कर उड़ रही हैं ऐसे में महिलाओं की यह सोच एक सवाल खड़ा करती है कि आज भी पति द्वारा पीटा जाना जायज है। नेशनल फैमिली हेल्थ द्वारा एक सर्वे के दौरान यह खुलासा हुआ है और आंकड़ों पर गौर किया जाये तो घरेलू हिंसा को सही ठहराने वाली महिलाओं का प्रतिशत अधिक है. उनमें- आंध्र प्रदेश 83.6℅, कर्नाटक 76.9℅, मणिपुर 65.9℅ और केरल 52.4℅ शामिल हैं। जबकि हिमाचल प्रदेश, नागालैंड और त्रिपुरा में घरेलू हिंसा को लेकर स्वीकृति सबसे कम देखी गई। केवल 14.2℅, 21.3℅ ही सहमति व्यक्त की।
यह सोच फर्क पैदा करती है कि अभी महिलाओं को दासता की प्रवृत्ति से बाहर आना बाकी है। इसमें कोई शक नहीं कि आज महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत हो रही है लेकिन कहीं ना कहीं आज भी उन्हें नियंत्रित करने की चाबी पुरुष के हाथों में है। सर्वे के अनुसार घर से बिना बताए बाहर जाना, घर परिवार की उपेक्षा करना, खाना ठीक से ना बनाना, परसंबंध ऐसे तमाम कारण है जो घरेलू हिंसा की वजह बनते हैं। पर क्या यह कारण इतने अहम हैं कि इसके समाधान स्वरूप मारपीट की जाए ? पुरुषवादी सोच कि मैं स्त्री को आजादी देता हूं, कितना उचित है? मैं नौकरी करने की छूट देता हूं, घुमाना फिराना, सारी सुविधाएं मुहैया कराता हूं तो उस पर अपना आधिपत्य रखना, अपना अधिकार समझता हूं, यह कितना उचित है? आपसी मामले का हवाला देकर किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते और यदि पुलिस की मदद ली जाती है तो अलगाव की स्थिति आ जाती है। यह सोच क्यों नहीं पनपती यदि पुरुष सुविधाएं दे रहा है तो स्त्री भी समर्पित है परिवार के लिए।
घर गृहस्ती को गाड़ी के दो पहिए कहा गया है। फिर सब सामान हुए यह असमानता क्यों? आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद कितनी महिलाएं हैं जो अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से ले सकती हैं? आखिर महिलाएं इस दास प्रवृत्ति से बाहर क्यों नहीं आना चाहती? एक महिला का तर्क है कि परिवार में शांति बनाए रखने के लिए और शांति से जीने के लिए चुप रह जाना पड़ता है। घर का माहौल खराब होता है और बच्चों पर भी बुरा असर पड़ता है। एक और महिला से बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि वह घरेलू हिंसा की शिकार थी लेकिन फिर भी वह उस जगह से पलायन नहीं कर रही थी क्योंकि उसे अपने मायके का सहयोग नहीं था जब स्थिति ज्यादा खराब हुई तब उसका भाई उसे लेने पहुंचा मगर उसने आने से मना कर दिया क्योंकि उसका कहना था कि आप लोग वापस यहीं पर छोड़ जाओगे फिर मैं वापस क्यों आऊं। अंततः मायके वालों की मदद से उसने अपना घर परिवार छोड़कर आत्मनिर्भर होना स्वीकार किया।
यह बात छोटे और अशिक्षित तबको में होती है तो समझ में आता है लेकिन शिक्षित परिवारों में भी ऐसा देखने को मिलता है तो किस सभ्य समाज की बात की करते हैं हम? इस सोच से बाहर आना होगा कि जिस घर में डोली गई है वहां से अर्थी निकलेगी। अपने आत्मसम्मान को जगाना होगा। जो गलत है कम से कम उसके लिए बोलना ही होगा। परिवार एक सामाजिक इकाई है जिसे स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर चलाते हैं। आपसी सहयोग से इसमें कोई कम या ज्यादा का ना भाव है ना महत्व है।
प्रियंका वरमा माहेश्वरी, गुजरात