Sunday, November 24, 2024
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अलगाववाद को प्रोत्साहन

Pankaj k singhनिश्चय ही कश्मीर मुद्दे पर अब भारत सरकार को निर्णायक कूटनीतिक कदमों की ओर आगे बढ़ना चाहिए। सरकार ने पर्यवेक्षकों के कामकाज की उच्चस्तरीय समीक्षा में पाया है कि पर्यवेक्षकों की अब कोई जरूरत नहीं है। उनकी मौजूदगी में भी ‘एलओसी’ (लाइन आॅफ कंट्रोल) पर लगातर पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी और खून-खराबा हो रहा है। जिस उम्मीद के साथ कभी ‘संयुक्त राष्ट्र’ के सैन्य पर्यवेक्षकों का कार्यालय भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम समझौते का पालन सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया था, उसमें वह खरा नहीं उतर सका है। कश्मीर मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र का रुख बेहद ढुलमुल रहा है। संयुक्त राष्ट्र कश्मीर मुद्दे को लेकर अमेरिकी नीतियों से प्रभावित रहता है। कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षक प्रायः मूकदर्शक ही बने रहे हैं और आज तक उन्होंने कभी भी पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद और भारतीय सीमाओं में घुसपैठ के मुद्दे को संपूर्ण शक्ति के साथ मजबूत ढंग से नहीं उठाया है। भारत को इस संदर्भ में एक कठोर रुख अपनाने की आवश्यकता है। भारत कोई दीन-हीन देश नहीं है, जिसे अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने के लिए किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता हो। राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में भारत को किसी के प्रमाण-पत्र की भी आवश्यकता नहीं है। एक दृढ़ और सशक्त रणनीति के साथ ही भारत कश्मीर क्षेत्र में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रख सकता है। भारत के सीमांत क्षेत्रों तथा अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से सटे राष्ट्रीय राजमार्ग घुसपैठियों तथा आतंकवादियों के लिए आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। आतंकी गुट राष्ट्रीय राजमार्गों को अक्सर निशाना बनाते रहते हैं। जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में कठुआ से लेकर सांबा तक के 48 किलोमीटर लंबे जम्मू-पठानकोट राजमार्ग पर सबसे अधिक संख्या में आतंकी घटनाएं अंजाम दी जा चुकी हैं। पिछले हमलों की तुलना में आतंकी संगठनों ने नए हमलों में अपने पुराने तौर-तरीकों में कुछ बदलाव किए हैं। यह आश्चर्यजनक है कि बार-बार सीमाओं पर घुसपैठ हो रही है और भारतीय सैन्य बल भारतीय सीमाओं को घुसपैठ की घटनाओं से पूरी तरह मुक्त नहीं करा पा रहे हैं। इससे भारतीय सैन्य बलों की क्षमता और सतर्कता पर भी प्रश्नचिन्ह लग रहा है। जम्मू-पठानकोट हाइवे पर आधा दर्जन आतंकी हमले किए जा चुके हैं, जिसमें एक लेफ्टिनेंट कर्नल सहित सुरक्षा बलों के 12 जवान मारे जा चुके हैं, जबकि 11 नागरिक भी मारे गए हैं। सुरक्षा बलों ने भी इन मुठभेड़ों में 14 आतंकियों को मार गिराया है। उल्लेखनीय है कि ये राष्ट्रीय राजमार्ग अंतर्राष्ट्रीय सीमा से मात्र 12 से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। इन क्षेत्रों में स्थित सैन्य शिविर, पुलिस थाने, सार्वजनिक स्थल, स्कूल आदि सामान्यतः आतंकियों के निशाने पर बने ही रहते हैं। बदली हुई रणनीति के तहत आतंकी अब अलग-अलग टुकड़ियों में बंटकर हमले कर रहे हैं और एक ही दिन में कुछ ही घंटों के अंतराल में दो या अधिक बार हमले कर रहे हैं। आतंकियों की इस रणनीति और बढ़ती हुई आतंकी घटनाओं ने भारतीय सैन्य बलों और सुरक्षा तंत्र की नाकामी को भी सामने ला दिया है। स्पष्ट है कि यदि आतंकियों के हौसले बढ़ते रहे, तो भारतीय सीमाएं और सीमाओं से लगे राष्ट्रीय राजमार्गों पर जनजीवन पूरी तरह नष्ट हो जाएगा। कश्मीर में विशेष संवैधानिक प्रावधानों तथा उदार प्रशासनिक तंत्र के कारण अलगाववाद को प्रोत्साहन मिलता रहा है। पूर्व जनसंघ अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा कश्मीर में ‘एक देश में दो प्रधान, दो निशान और दो विधान’ के विरुद्ध एक व्यापक जनजागरण आंदोलन छेड़ा गया था। अनुच्छेद 370 के विरुद्ध शुरू हुआ यह आंदोलन राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाला था। नेहरू और शेख अब्दुल्ला के मध्य दिल्ली समझौते के आधार पर कश्मीर के लिए कतिपय ऐसे फैसले कर लिए गए, जो एक स्वाधीन और संप्रभु भारत की एकता और अखंडता की भावना के सर्वथा विपरीत थे। उस समय के अनेक भारतीय राजनेताओं, नागरिकों और चिंतकों ने दिल्ली समझौते को असंवैधानिक बताते हुए इसका विरोध किया था। उल्लेखनीय है कि दिल्ली समझौता 1952 में हुआ, जबकि अनुच्छेद 370 संविधान के लागू होने के दिन से ही प्रभावी हो गया था। आज भी देश में अनेक राजनैतिक दलों और नागरिक संगठनों के द्वारा धारा 370 को राष्ट्रीय भावना के विपरीत मानते हुए इसे हटाए जाने की मांग होती रहती है। 1964 में भी संसद में प्रकाश वीर शास्त्री द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाए जाने संबंधी निजी विधेयक पर व्यापक बहस हुई थी। इस बहस में विभिन्न राजनैतिक दलों के 27 नेताओं ने हिस्सा लिया था। मत विभाजन के समय कांग्रेस ने अपने सदस्यों के लिए व्हिप लागू किया था। इस व्हिप के कारण ही कई कांग्रेसी सदस्यों ने यद्यपि अनुच्छेद को हटाने का समर्थन अपने व्यक्तव्य में किया था, परंतु दलगत व्यवस्थाओं के कारण उन्हें अनुच्छेद 370 के समर्थन में सदन में मतदान के लिए बाध्य होना पड़ा। अनुच्छेद 370 के विरोध में समाजवादी नेताओं राम मनोहर लोहिया तथा मधु लिमये व वामपंथी नेता हीरेन मुखर्जी ने भी मतदान किया था। धारा 370 को लेकर तब से लेकर आज तक बहस चली आ रही है, लेकिन दलगत राजनीति और सत्ता स्वार्थ के कारण इस संदर्भ में आज तक व्यापक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए एक दूरदर्शी निर्णय नहीं लिया जा सका है। वास्तव में आज यह समय की मांग है कि व्यापक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाया जाए। अनुच्छेद 370 की आड़ में कश्मीर में लागू किए गए सभी प्रावधान, जो भारत के समस्त नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों को सीमित कर देते हैं अथवा ऐसे सभी प्रावधान, जो संपूर्ण देश के नागरिकों को तो कतिपय सुविधाएं और अधिकार प्रदान करते हैं, परंतु जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को इन स्वाभाविक अधिकारों से वंचित किया गया है। इन दोनों ही प्रकार की स्थितियों को तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए। भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप भारत के संपूर्ण भूभाग में भारत के समस्त नागरिकों को एक समान स्वतंत्रता और बुनियादी अधिकार मिलने ही चाहिए। अनुच्छेद 370 के नाम पर जम्मू-कश्मीर में अनेक राष्ट्रविरोधी तत्वों और अलगाववाद को फलने-फूलने का वातावरण मिलता रहा है। अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर में भारत विरोध की उपजाऊ भूमि तैयार की है। भारत के लिए सामरिक और वैचारिक रूप से यह बहुत आवश्यक है कि कश्मीर क्षेत्र केवल तकनीकी रूप से ही भारत में न दिखे, वरन कश्मीर के आचरण, व्यवहार और चिंतन में भी भारतीयता सर्वत्र और निर्बाध रूप से प्रतिबिंबित होनी चाहिए। ‘अफस्पा’ के संदर्भ में भी देश में बहस की स्थिति बनी हुई है। – पंकज के. सिंह