किसान और किसानी के विकास, सुरक्षा तथा बेहतरी के लिए न जाने कितनी सरकारी योजनाओं और घोषणाओं के अम्बार लगे हुए हैं पर इन अम्बारों की तह के नीचे अब भी अगर कुछ है तो वह है बैंक के ऋण, साहूकारों के कर्ज, दलालों और व्यापारियों की मनमानी, बीज खाद और कीटनाशकों की निष्ठुर कीमतें, बिचैलियों के मौज-मजे, बरसाती नदी के पानी की तरह लगातार बढ़ती लागत और बदले में मुनाफा-दर शून्य, मौसम के बदलते मिजाज का कहर तो है ही, सही कृषि-नीतियों के अकाल के साथ हीं और भी है बहुत कुछ … एवं इन सब की तहों के नीचे पड़े हुए हैं व्यवस्था की खामी से चोटिल, स्तब्ध और टूटे हुए किसानों के नरकंकाल, कपाल, लाशें स हाँ .. इन सब के नीचे है हताश, निराश और डरावने भविष्य के अन्धकार में लिपटा किसानों का सशंकित, संत्रासित और अशांत मन स दिन-रात अपने शारीरिक सामर्थ्य से बढ़कर मेहनत करनेवाले उस किसान को जब खाने के लिए दो निवाला सुकून और तसल्ली का नहीं मिल पाता तो लाचारी में हारकर वह सल्फास की गोली खा लेता है। आशा के सुखद सुनहरे हिंडोले से जब वह घाटा खाकर औंधे मुँह जमीन पर गिरता है तो अंतिम रास्ते के रूप में झूल जाता है फांसी के फंदे पर स पिछले बीस वर्षों में तीन लाख किसानों ने व्यवस्था के कहर से मजबूर होकर अपने हीं प्राणों की बलि दे दी पर जब उससे भी राक्षसी व्यवस्था की प्यास नहीं बुझती तब दलों की आपसी राजनीति के खेल में गोलियों से उड़ा दिए जाते हैं किसान .. जैसा कि मध्य प्रदेश के मंदसौर में हुआ है अभी-अभी .. ।।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश जहाँ तकरीबन सत्तर प्रतिशत आबादी किसानों की है वहाँ राजनैतिक दलों के लिए किसान एक बहुत बड़ा वोट बैंक है, जिसे लुभा कर अपनी स्वार्थ सि(ि के लिए विभिन्न दल तरह-तरह के झूठे वादे करती है, लालच देती है स जब रिजर्व बैंक बहुत पहले हीं कर्जमाफी के मुद्दे पर सारे विचार साफ-साफ बता चुकी है कि इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर 2600 अरब का भारी बोझ पड़ जाएगा, जिसमें से इस वक्त 17 राज्य पहले हीं कर्जों के बोझ से दबे हुए चल रहे हैं तो कर्ज माफी के झूठे वादे करके किसानों को ठगने की बजाय उनके वास्तविक हक की बात क्यों नहीं की जाती? अपने आपस की लडाई में किसानों को डालकर उन्हें मौत के घाट उतरवा देना इससे घटिया सियासत और क्या हो सकती है ! हरेक राजनीतिक दल की यह आदत बन चुकी है कि चुनाव से पहले तो अनाप शनाप वादे कर देते है और जब वादे पूरे करने का समय आए तो चुप बैठ जाते हैं। ऐसे में अपनेआप को ठगे हुए महसूस करनेवाले किसान अन्य लोगों की बातों में आकर चुनाव के पहले वाले अपने उन्हीं मुद्दों को लेकर अगर धरने पर बैठ जाएँ तो लाचार, निर्धन और निर्बल किसानों पर गोली चलाकर उनकी जान ले लेना राजनीतिक आतंकवाद नहीं है तो और क्या है ? याद रहे कि किसानों पर गोली चलाने की यह पहली घटना नहीं है इसके पहले भी ऐसे निन्दनीय कृत्य घट चुके है स राजनीति के खिलंदड़ओं के लिए एक गरीब मेहमतकश की जान और इज्जत-औकात का कोई मोल हीं नहीं।
वह किसान जो अपने एक-एक पौधे को, अपनी नन्हीं-नन्हीं फसलों को अपनी संतानों की तरह प्रेम स्नेह की स्निग्ध धारा और अपने खून पसीने से सींचकर पोशते हैं उनके लिए यह कैसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी जाती है कि वे अपनी हजारों टन सब्जियों को सड़कों पर बिखेर देता है, क्या इसलिए कि उनकी खुद की थाली में केवल सूखी रोटी रह जाए .. ? चिंतन योग्य बात है कि एक किसान जो केवल फसलों को सींचना जानता है जिसके लिए अपनी फसलों का एक एक दाना प्यारा होता है वह किसी भी हाल में अपनी हजारों टन फसलों की यूँ बर्बादी कर हीं नहीं सकता। ये सच है कि गहन कृषि योजनाओं के तहत पैदावार बढ़ी है पर एक हीं स्थान पर जहाँ धनी किसान लाभान्वित हुए हैं वहीँ गरीब किसान और भी बदहाल हो गया है क्योंकि उसे न तो फसलों के सही खरीदार मिल रहे हैं न उचित मूल्य। अगर आलू या टमाटर सड़कर खराब हो रहे हैं तो इसका मतलब ये है कि किसानों के पास उन्हें स्टोर कर रखने के लिए सुविधा का अभाव है, कोल्डस्टोरेज कम हैं, उन्हें बिक्री के लिए या शहर तक ले जाने के लिए साधनों का, वाहनों का अभाव है इन फसलों से चिप्स, सौस या जैली बनाने के लिए मशीनों का, जानकारियों का अभाव है। उनकी पूर्ति पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी हल चलाने वाले कंधे इतने कमजोर नहीं कि छोटी मोटी बातों से टूट कर अपनी कड़ी मेहनत के वैभव से तैयार फसलों को यूँ हीं सड़कों पर फेंक दे। पर बात फिर वहीँ आ जाती है कि उन्हें उनका हक तो मिले, थोड़ी सहायता तो मिले स इसमें कोई शक नहीं कि आपदा राहत के अनेक उपायों के साथ हाल के समय में फसलों की बेहतरी के लिए भी खासे उपाय किए गए हैं फिर भी किसान मर रहे हैं तो इसकी वजह ये है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के जो पीढ़ी दर पीढ़ी किसानी करनेवाले असल लोग हैं पहली बात तो ये कि उनमें शिक्षा का अभाव है। उत्तम कृषि पद्धतियों की जानकारी से वे आज भी अनभिज्ञ हैं। यही नहीं बैंक के कर्ज देने की नीति, प्रक्रिया, नियमों की तो इन्हें जानकारी तक नहीं। ये बैंक से कर्ज क्या लेंगे और क्या चुकाएँगे ? आपदा की स्थिति में ये आज भी साहूकारों पर हीं निर्भर हैं। बैंक से कर्ज भी वही लोग ले रहे हैं जिनका काम पहले भी ठीक ठाक चल रहा था। पढ़े लिखे, जानकार ये लोग मध्यमवर्गीय या खाते पीते सम्पन्न किसान हैं। खेती के नाम पर ऋण लेकर ये बाइक कार या ऐशोआराम की चीजें खरीदते हैं स ये इस इंतजार में रहते हैं कि कब और कितना ऋण सरकार की तरफ से माफ किया जाता है। इंतजार इस बात का भी कि सरकार बदलेगी तो कुछ न कुछ ऋण के इन नियमों में भी बदलाव आएगा तो सम्भवतः ऋण लौटाने से बचा जा सके और इनकी ऐसी सोच के पीछे काम रही हैं राजनीतिक गोटियाँ, जो खेल रही हैं अपनी वोटों की राजनीति और कर्ज माफी के बहाने इनके हाथों में पकड़ाई जा रही है बैसाखी। बैसाखी जो तकलीफ का इलाज तो कतई नहीं है। इससे बीमारी तो अपनी जगह पर हीं रह जाएगी। क्या हीं अच्छा हो कि इन्हें इस योग्य बनाया जाए कि अपनी ऐशों आराम की इन चीजों को ये अपनी फसलों के मुनाफे से खरीदें। तभी एक अच्छी प्रवृति विकसित होगी और कृषिकर्म सुरक्षित तथा सम्मानित भी हो पाएगा।
नकली लाल कार्ड बनवा कर फायदा उठा लेनेवालों की कमी नहीं क्योंकि इसे बनवाना बड़ी बात नहीं। बड़ी बात ये है कि मदद सही जगह पर पहुँच रही है या नहीं। अतः सरकार जांच की ऐसी व्यवस्था रखे ताकि मदद सही और असल जरुरतमन्द तक पहुँचे। बीच में हीं खप्पर पकड़े खा पी कर डकार लेने वालों पर एक मजबूत नकेल पूरी दृढ़ता से यूँ जकड़ी रहे ताकि भ्रष्टाचार की लालची कुहेलिका से विलग सबकुछ नियन्त्रित तरीके से चलता रहे।
दूसरी जो सबसे बड़ी और विकराल समस्या है वह ये कि दिनोंदिन अबाध रूप से बढ़ती जनसंख्या से खेतों के इतने छोटे छोटे टुकड़े हो चुके हैं कि भरपूर पैदावार की उम्मीद करना हीं भूल है। जरुरत है इस समस्या के जल्द से जल्द और समुचित निवारण की।
कृषि की नवीन विधियों में विनियोग बढ़ाना धनी किसानों के लिए न सिर्फ आसान है बल्कि हरित क्रान्ति के कारण ये अमीर किसान राजनीतिक रूप से भी अच्छे खासे सबल हो चुके हैं। पर गरीब किसानों के खून पसीने की मेहनत को जो बिचैलिए, सेठ-साहूकार आदि उड़कर लपक लेते हैं जरुरत है उसके सटीक समाधान निकालने की। इसके साथ हीं जरुरत है उनके फसलों के उचित मूल्य निर्धारण तथा बीमे की।
अंत में एक हीं बात कहना चाहूँगी कि कृषक मानवता के सबसे महान सेवक हैं। जरुरत है राजनीति के खेल और अपनी – अपनी स्वार्थ की चालबाजी से हट कर इन अन्नदाताओं के सही – सही वास्तविक उत्थान की, क्योंकि तभी हो सकेगा देश समाज और मानवता का भी सही- सही उत्थान।