Saturday, November 23, 2024
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अशांत पड़ोसियों से घिरा भारत

pankaj-k-singhभारत अपनी सीमाओं के चारो ओर अधिकांशतः बेचैन और अशांत पड़ोसियों से घिरा हुआ है। बांग्लादेश के संदर्भ में भी भारत कई प्रकार की शंकाओं से ग्रस्त रहा है। बांग्लादेश में प्रायः राजनैतिक अस्थिरता का वातावरण बना रहता है। बांग्लादेश की अस्थिर राजनीति का प्रभाव भारतीय सीमाओं पर भी दिखाई पड़ता है। वर्ष 2011 में शेख हसीना ने संविधान में संशोधन के द्वारा सर्वदलीय सरकार के अधीन चुनाव कराने का रास्ता प्रशस्त किया था। इसके बाद से ही बांग्लादेश में निरंतर दो बड़ी राजनैतिक प्रतिद्वंदियों-शेख हसीना व खालिदा जिया के मध्य गंभीर टकराव की स्थिति बनी हुई है। खालिदा जिया गैर दलीय सरकार के अधीन चुनाव कराने की मांग करती रही हैं। शेख हसीना के इस्तीफे की मांग भी उनके द्वारा निरंतर की जाती रही है। खालिदा जिया के बहिष्कार के बाद बांग्लादेश में हुए चुनावों को आम तौर पर निष्पक्ष चुनाव माना गया। खालिदा जिया की यह सोच थी कि जिस प्रकार 1996 में सत्ता संभालने के चार माह बाद उन्हें स्वयं दबाव में आकर चुनाव कराना पड़ा था, ऐसे ही शेख हसीना भी दबाव में आकर चुनाव कराने के लिए विवश हो जाएंगी। बांग्लादेश की राजनीति में कट्टरपंथी तत्व तेजी से हावी होते जा रहे हैं।
खालिदा जिया कट्टरपंथी संगठनों के सहारे अपनी राजनीति को आगे ले जाना चाहती हैं। आम चुनावों के बाद यह संकेत मिले हैं कि बांग्लादेश में आम जनता कट्टरपंथी तत्वों को व्यापक राजनैतिक स्तर पर प्रभावी होते नहीं देखना चाहती हैं। बांग्लादेश में ‘बीएनपी’ (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) और ‘जमायत-ए-इस्लामी’ लगभग हाशिए पर पहुंच गई हैं। भारत के लिए बांग्लादेश निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण राष्ट्र रहा है। इस पड़ोसी देश के साथ भारत के सांस्.तिक, आर्थिक, सामाजिक व व्यापक राजनैतिक संबंध रहे हैं। शेख हसीना के कार्यकाल में भारत-बांग्लादेश संबंधों को नए आयाम मिले हैं। स्पष्ट है कि बांग्लादेश में राजनैतिक अस्थिरता और कट्टरपंथी तत्वों की बढ़ती ताकत व्यापक भारतीय हितों को देखते हुए हमारे लिए शुभ नहीं हो सकती।
नेपाल में संवैधानिक संकट की स्थिति का बने रहना न केवल नेपाल के लिए अत्यधिक चिंता का विषय है, वरन भारत भी इससे कहीं न कहीं प्रभावित होता दिखाई पड़ता है। नेपाल में अनेक प्रयासों के बावजूद अभी तक राजनैतिक स्थिरता और संविधान का गठन संभव नहीं हो सका है। वर्ष 2007 में एक व्यापक जनक्रांति के बाद नेपाल में राजशाही संविधान के स्थान पर अंतरिम संविधान के तहत शासन प्रणाली की शुरुआत की गई थी। नेपाल का नवीन संविधान निर्मित करने के लिए वर्ष 2008 में पहली संविधान सभा निर्वाचित की गई थी, परंतु अनेक मतभेदों की वजह से यह संविधान सभा संविधान निर्माण में पूरी तरह विफल रही। दूसरी संविधान सभा भी नेपाल में संविधान निर्माण के कार्य को अंजाम देने में असफल रही है। वास्तव में नेपाल में राजनीतिक अवसरवादिता और परस्पर मतभेदों के कारण किसी भी मुद्दे पर आम सहमति नहीं बन पाती है। विभिन्न राजनैतिक पक्ष तथ्यों का आंकलन करने के स्थान पर अपनी बात मनवाने और निजी हितों की पूर्ति पर अधिक बल देते हैं। संविधान सभा में देश के स्वरूप को लेकर बहुत अधिक विवाद है।
नेपाली कांग्रेस और सीपीएन- यूएमएल जहां देश में छह से आठ राज्यों का गठन करने के पक्षधर हैं, वहीं माओवादी देश में 12 से 15 राज्यों के गठन की मांग बुलंद करते रहे हैं। दोनों ही पक्ष इस मुद्दे पर आम सहमति तलाशने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठा रहे हैं और अनावश्यक रूप से अड़ियल रुख अपनाए हुए हैं। माओवादी एक लंबे अरसे से नेपाल में संघीय ढांचे की मांग करते रहे हैं। उनकी मांग रही है कि कार्यकारी शक्तियां जनता द्वारा चुने गए राष्ट्रपति के पास होनी चाहिए। इसके विपरीत नेपाली कांग्रेस और सीपीएन- यूएमएल संसद को ही सर्वोच्च शक्तिशाली संस्था के रूप में स्थापित किए जाने के पक्षधर हैं, जिसमें राष्ट्रपति यद्यपि प्रतीकात्मक रूप से राष्ट्र का अध्यक्ष और प्रथम नागरिक होगा, परंतु समस्त कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री के पास ही होंगी। माओवादी यह भी मांग करते रहे हैं कि नेपाल में मिश्रित निर्वाचन प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। इसके मुताबिक, देश में प्रत्यक्ष और प्रतिनिधित्व दोनों प्रणालियों के माध्यम से निर्वाचन किया जाना चाहिए। प्रत्येक 10 से 14 सीटों पर एक प्रतिनिधि नामित किए जाने की मांग माओवादी करते रहे हैं, जिसका कि नेपाली कांग्रेस द्वारा विरोध किया जाता रहा है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के कारण भारत स्वाभाविक रूप से नेपाल में एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार के पक्ष में रहा है।