शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, थाना और तहसील जैसे पाँच संस्थानों की विफलता गंभीर चिंता का विषय है। शिक्षा अब ज्ञान नहीं, कोचिंग और फीस का बाजार बन चुकी है। स्वास्थ्य सेवाएँ निजीकरण की भेंट चढ़ चुकी हैं, जहाँ इलाज से ज्यादा पैकेज बिकते हैं। चिकित्सा व्यवस्था मुनाफाखोरी का अड्डा बन गई है। थाने न्याय की जगह रिश्वत का केंद्र और तहसील एक कागज़ी भूलभुलैया बनकर रह गई है। इन संस्थाओं को सुधारने की जरूरत हैं।
-प्रियंका सौरभ
“शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, थाने औ तहसील।
सब मिलकर ताबूत में, ठोंक रहे हैं कील।।”
यह दो पंक्तियाँ महज़ अलंकार नहीं, बल्कि उस निराशा का संगीन उद्घोष हैं, जो आम आदमी की उम्मीदों को कुचलकर उसे निराशा की चुम्बक बनाती हैं। ये पाँच स्तंभों से हमारा समाज अपनी नाजुक मिट्टी का संतुलन बनाये रखता है — पर, अफ़सोस, वे स्वयं पत्थर बन चुके हैं।